Wednesday 24 December 2014

ऐसे दौर में जबकि विरोध और सवाल उठाना सम्भव नहीं है, वैसे में यह एक गुजारिश है बाजार की भावुकता और महानता से मुठभेड़ करने की।  तुलसी बाबा के शब्दों में कहें तो 'कहे बिना रहा नहीं जाता' ! और प्रख्यात विद्वान विद्यानिवास मिश्र ने कहने की लाचारी को साहित्य और रचाव की लाचारी कहा है ।
कोई माने या न माने .... सचिन को भारत रत्न… बाजार, मीडिया और मीडिया द्वारा सृजित अनुकूल 'जनमत' के कारण सोची-समझी रणनीति के कारण अचानक दिया गया। क्रिकेट के ज्वार और बाजार ने इसे सम्भव किया है। मुनाफाखोर लालची संस्कृति ने सम्भव किया है। यह असल समस्याओं से ध्यान भटकाने की भी साजिश है। लोग भूख, महंगाई, बीमारी, बेरोजगारी को भूल-भाल लोग सचिन को लेकर गदगद हो जाएं ! मंदिर बनवाकर पूजा करने लगें !  मेहनत, भय-भूख और संघर्ष की धरती बिहार में मंदिर भी बन रहा है। यह मानसिक गुलामी और दिवालियापन की हद है।


यह हमेशा होता है। सत्ता नयी-नयी तरकीब रचती है जिससे लोग उसी में उलझे रहें। फंसे रहें ! भारत रत्न नहीं पटाखा हो गया , जब चाहे फोड़ दो ! नागरिक पुरस्कारों का राजनीतिकरण हो गया है। यह दलगत स्वार्थ बनता जा रहा है। पद्म श्री, पद्म भूषण की लिस्ट उठा के देख लीजिये । ध्यान चंद, जो भारत के असल खेल रत्न हैं, जिन्होंने हिटलर के लुभावने प्रस्ताव को ठुकरा दिया था ! ध्यान चंद न सचिन की तरह टैक्स बचने वाले '' अभिनेता '' थे, न ही पैसे पर खेलने वाले खिलाड़ी। जिनके खेल और गोल की करतल ध्वनि को क्रिकेट के लीजेंड डॉन ब्रेडमैन ने भी देखा था। सराहा था। चूंकि ध्यानचंद अब नहीं हैं। उनके पीछे बाजार नहीं है ! विज्ञापनों की झूठ नहीं है। वे वोट की फसल नहीं हैं, सो सरकार और राजनीति को उनसे मतलब नहीं !

जब ध्यान चंद भारत का मान बढ़ा रहे थे, उस दौरान ब्रेकिंग न्यूज़ वाले न दीपक चौरसिया थे, न रवीश कुमार और न पुण्य प्रसून वाजपेयी, आशुतोष आदि , जो लगातार खबर चलाकर-----खेलकर ---तानकर किसी को हीरो या जीरो बना देते ! 

'हमने भगवान' को खेलते देखा है। भारत में क्रिकेट धर्म है और सचिन भगवान् हैं…। ''
इस तरह की बातें एक अर्से से जान बूझकर मीडिया माध्यमों द्वारा बाजार के दबाव में…कहें तो लालच में फैलाया जा रहा है। सनसनी पैदा की जा रही है। सारे मुद्दे हवा हो गए हैं। दलित-शोषित जनता की आवाज मीडिया से गायब है। मीडिया, खासकर टीवी मीडिया बाजार का गुलाम बन कर रह गया है ! एक तरह से यह असल समस्याओं से ध्यान भटकने का भी यह खेल है....! रोटी नहीं क्रिकेट धर्म है ? यह प्रपंच मेडिया द्वारा स्वीकृत बनाया जा रहा है। बार-बार झूठ बोलकर बाज़ार की भाषा को जनभाषा बना दो। यह वैचारिक कंगाली है। सचिन एक भले, विनम्र इंसान और खिलाड़ी हैं। मेधावी विलक्षण क्रिकेट प्रतिभा के रूप में उन्होंने लम्बा सफ़र तय किया है। रिकार्ड्स की झड़ी लगा दी। एक व्यक्ति और खिलाड़ी के रूप में वे हम सबके प्यारे-दुलारे हैं। वे बड़ों, सीनियरों से आज भी अदब से मिलते हैं। प्रभाष जोशी (जनसत्ता के संस्थापक संपादक, पत्रकार-विचारक ) सचिन के दीवाने थे। सचिन के रिकॉर्ड और खेल को लेकर भावुक हो जाते थे। जनसत्ता के पन्ने रंग जाते थे। आज वे होते तो झूम उठते--ठीक सचिन की माँ और करोड़ों लोगो की तरह। आज सचिन दौर में मुझे प्रभाष जी याद आ रहे हैं। वह तो ख़ुशी का बवाल मचा देते !  ''एक सचिन ने हमारे सपने को सच कर दिया '' लिखते ! लिखा भी है और बुद्धिजीवियों की आलोचना सही है अतिवादी प्रशस्ति को लेकर ! जबकि वे खुद रत्न थे।

तो भारत रत्न देने से लेकर अतिवादी शोर-गुल और ज्वार पैदा करना……खेल के हित में नहीं है। सचिन को निश्चित रूप से ' भगवान् ' बनाने की जिद उन्हें भी नहीं सुहाता ! उनकी राय गाहे-बगाहे अभिव्यक्त भी हुई है। खैर, अगर भारत रत्न क्रिकेट में ही देना जरूरी हो तो सुनील गावस्कर, कपिलदेव और धोनी को भी दे देना चाहिए ! सुनील और कपिल को तो अवश्य ही ! सुनील गावस्कर जिस दौरान खेल रहे थे तो क्रिक्रेट का मार्किट इतना बड़ा नहीं था। मीडिया माध्यम ले देकर दूरदर्शन और आकाशवाणी। ब्रेकिंग पर ब्रेकिंग वाला जमाना नहीं था। एक्सक्लूसिव की चीख नहीं थी। इंडियन पैसा लीग नहीं था ! फिर खेल के नियम, चुनौती उस समय के हिसाब से रन को देखिये। जिस समय वेस्टइंडीज का क्रिकेट में डंका बजता था, उस दौरान कपिल ने विश्व कप जीता। धोनी ने 28 साल बाद यह कारनामा दोहराया। 20-20 वर्ल्ड कप जीता। सफल कप्तान के रूप में धूम मचाई। बाजार भी कम नहीं। क्यों नहीं इन्हे भी दे देते ?

विश्वनाथन आनंद, पी टी उषा, मिल्खा सिंह, बाइचुंग भूटिया, लिएंडर पेस, अभिनव विन्द्रा, पी गोपी चंद ने क्या बिगाड़ा है ?  ये लड़ाकू तो अपने-अपने क्षेत्र में कही ज्यादा संघर्षी हैं । 
साहित्य-पत्रकारिता, कला के क्षेत्र में कोई रत्न नहीं हैं क्या ?

डॉ रामविलास शर्मा, डॉ नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर … ये भी २४ कैरेट वाले रत्न हैं । इनसे मीडिया और बाजार को कोई लेना देना नहीं है, सो आप इनके बारे में प्रायः नहीं जानते। 




यह सिर्फ विवाद के लिए विवाद नहीं है। यह अकसर होता है। भारत रत्न ही नहीं दुनिया के समस्त सम्मान-पुरस्कार के साथ वाद-विवाद का गहरा सम्बन्ध रहा है। नोबेल पुरस्कार…खासकर साहित्य और शांति को लेकर ज्यादा विवाद रहा है! गांधी बाबा को नोबेल नहीं मिला। जिसको लेकर नोबेल फॉउण्डेशन गाहे-बगाहे अफ़सोस व्यक्त करता रहा है !

भारत में साहित्य अकादमी, फ़िल्म फेयर, दादा साहब फाल्के और नागरिक सम्मानों की जो दशा-दिशा है…वह इस कारण है कि भारत में संस्कृति नहीं, संस्कृतियां हैं। जाति, समुदाय, धर्म, वाद, क्षेत्र, भाषा .... की विविधताएं हैं। जाहिर सी बात है....महानों की लाइन लगी है। वोट के फसल ने महानों को भी बाँट दिया है। वैचारिक दृष्टि से एक 'पंथ' के लिए जो बुर्जुआ है, दूसरे के लिए वह 'सर्वहारा' है ! कोई राष्ट्रवादी है तो कोई राष्ट्र निरपेक्ष है ! एक के लिए अंधविश्वास है तो दूसरे के लिए आस्था । ऐसे भी भारत महान में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और स्त्रियों के प्रति जिस तरह का झोल-झाल है, अन्याय है, पॉलिटिकली करेक्ट होने की चाल है, उसमे कर्पूरी ठाकुर, कांशी राम, जगजीवन राम .... कहां के रत्न हैं ? बाबा साहेब को अर्से बाद '' रत्न '' माना गया !

आज मीडिया और बाजार के दबाव में कोई पार्टी, पत्रकार, नेता .... सचिन को लेकर सवाल नहीं उठा सकता ! सवाल उठाने वाला शिवानंद तिवारी की तरह अलग-थलग पड़ जाता है। नूतन ठाकुर और अमिताभ हो जाता है ! यह ध्यान रखिये भले ही गावस्कर, कपिल, धनराज सहित सभी लोग सचिन को लेकर 'गौरवान्वित' हो रहे हों .... कोई उपाय नहीं है उनके पास गौरवान्वित होने के

अलावे ! लेकिन इस अतिवादी माहौल से एक टीस भी होगी,
कसक भी होगी ! अपने क्षेत्र में धनराज पिल्लै ने भी हाकी का स्तर ऊंचा उठाया। जिस दौर में सुनील गावस्कर और कपिल ने क्रिकेट खेला वह भी चरम क्षण था ! 10,000 रन और 432 विकेट कठिन चरम था। कपिल ने वेस्ट इंडीज के पताका दौर में विश्व कप साकार किया। अगर रिकार्ड्स, लोकप्रियता पैसा ही भारत रत्न का पैमाना हो तो अनेक दावेदार हैं । आखिर , पी गोपीचंद, अभिनव बिंद्रा ने क्या बिगाड़ा है किसी का ?

तो मेरी गुजारिश है कि रत्नों के असंख्यक दौर में 10-20  फील्ड से रत्न चुनिए , थोक के भाव से  दीजिये या इसे खत्म कर दीजिये ! नहीं तो मनमानी बंद कीजिये। मानक और पारदर्शिता अपनाएं।


यह लेख 2013 में लिखा गया था

Wednesday 10 December 2014

देश की राजधानी दिल्ली के सड़को पर एक बार फिर निर्भया कांड दोहराया जा चुका है। निर्भया गैंगरेप कांड में जो गुस्सा बलात्कार के आरोपियों के खिलाफ दिखा था। कुछ वैसा ही गुस्सा अब आरोपी कैब ड्राइवर और कैब सर्विस प्रोवाइडर कंपनी ऊबर के खिलाफ भी दिख रहा है। निर्भया के मौत के वक्त इसी शहर ने बता दिया था कि अब सारी हदें पार की जा चुकी हैं। वो रात दिन सड़कों पर जम गए। राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक दिल्ली के युवाओं से मिलने लगे। लेकिन टैक्सी में हुए कथित बलात्कार कांड ने यह दिखा दिया है कि महिलाओं की सुरक्षा के मामले में स्थिति अब भी जस की तस है। भारत में सार्वजनिक यातायात हमेंशा से उपेक्षा का शिकार रहा है। और यह क्षेत्र ट्रांसपोर्ट माफिया, स्थानीय असामाजिक तत्वों, भ्रष्ट परिवहन अधिकारियों और पुलिस वालों के अधिकार क्षेत्र में रहा है।

कैब सेवा के संचालन के लिए परिवहन विभाग ने कई तरह के नियम तय किए थे, पर इस 'इंटरनैशनल' कैब सर्विस का तो सब कुछ खस्ताहाल था। कैब में जीपीएस नहीं लगा था, जो कि जरूरी कर दिया गया है। आरोपी ड्राइवर ने मोबाइल सिम किसी और के नाम पर ले रखा था और पता भी गलत दिया था। सबसे बड़ी बात यह कि आरोपी पहले भी रेप के मामले में सजा भुगत चुका था, लेकिन कंपनी को इसका पता ही नहीं था। आश्चर्य है कि एक बार सजा भुगतने के बाद भी ड्राइवर ने फिर वही दरिंदगी की। साफ है कि उस पर सिस्टम का जरा भी खौफ नहीं था। होता भी कैसे? इस व्यवस्था ने उसे न सिर्फ बेखौफ होकर घूमने की सहूलियतें दीं बल्कि अच्छे चरित्र का प्रमाणपत्र भी दे डाला।

जहां निर्भया कांड ने यह दिखाया था कि दिल्ली में बस सुविधाओं की क्या स्थिति है और इस ताजा घटना से उन वेब आधारित टैक्सी सुविधाओं का खतरा दिख गया, जिनके बारे में यह नहीं पता है कि वे रेडिया टैक्सी सर्विस हैं या सिर्फ ग्राहकों और टैक्सी चालकों का संपर्क जोड़ने वाली वेब आधारित सुविधाएं हैं। 'निर्भया' कांड के बाद पैट्रोलिंग से लेकर एफआईआर के तौर-तरीकों और ट्रैफिक व्यवस्था तक में फेरबदल किए गए थे। पुलिस की सोच बदलने पर भी खासा जोर दिया गया था। लेकिन यह सब सिर्फ कहने के लिए था। इस पूरे घटनाक्रम में यदि किसी बात को ध्यान में लाने की जरूरत है तो वह है उस युवा महिला की बहादुरी है, जो उन सारे नेताओं की तुलना में महिलाओं की सुरक्षा की सबसे बड़ी पैरोकार बनकर उभरी हैं। जिसने दिल्ली की गलियों से एक दुष्कर्मी को बाहर निकालकर कठघरे तक पहुंचाया है।



Wednesday 3 December 2014

भोपाल गैस हादसे की आज 30वीं बरसी है। 2 और 3 दिसंबर की रात ही झीलों का ये शहर 'यूनियन कार्बाइड' कंपनी से निकली जहरीली गैस से दहल उठा था। हजारों लोग मारे गए थे, लेकिन 30 साल बीत जाने के बाद भी उस का दर्द आज भी कायम है। आज भी भोपाल में ऐसे कई परिवार हैं, जिनकी सासें तो चल रही हैं, लेकिन उनका जिन्दगी से कोई सरोकार नहीं है। 1984 की वो आधी रात जब भोपाल में लाख मौतें मरा था। देखते ही देखते पूरे शहर को एक विशाल गैस चैंबर में बदल दिया। लोग सड़कों पर बदहवास भाग रहे थे, उल्टियां कर रहे थे और तड़प-तड़पकर अपनी जान दे रहे थे। अंतिम संस्कार के लिए शहर में लकड़ियां और श्मशान घाट कम पड़ गए थे। हर जगह लाशें ही लाशें थीं। कैसे कोई भूल सकता है उस काली रात को। उस विभीषिका को। वह दिन, वह महीना, वह साल। इसके बाद ही तो भोपाल विश्व के मानचित्र पर आया था। लोग पहली दफा भोपाल को जानने लगे थे कि यह एक झीलों का शहर है।

गैस हादसे से पहले भोपाल केवल तीन चाजों के लिए जाने जाते थे। जर्दा, पर्दा और नामर्दा। लेकिन उस काली रात के बाद भोपाल 'यूनियन कार्बाइड' के लिये जानने लगे। दिसंबर का महीना बस शुरू ही हुआ था। महीने की दूसरी रात थी। जब 40 टन से ज्यादा जहरीली मिथाइल आइसो साइनेट गैस रिस कर शहर के एक बड़े हिस्सें में फैल गई। हजारों लोग उस काली रात मारे गए और न जाने कितने तिल-तिल कर आज भी जान गवां रहे है। कई इस हाल में हैं जिसकी सांसे तो चल रही हैं लेकिन वे जीवित नहीं है। यू तो इस हादसे को तीस बरस बीत गए, लेकिन तीस साल बीत जाने के बाद भी जान गंवाने वालों की संख्या न तब सही से पता चला था और न आज ही।

पहले भी सांसे लेने के लिए अस्पतालों में तांता लगा रहता था और आज भी। भोपालवासियों के लिए कुछ नहीं बदला। लोग उस बच्ची का चेहरा नहीं भूले जिसकी आंखें गैस ने छीन लीं और कब्र में वह आंखें खोले हमेशा के लिए सो गई। लेकिन इस साल प्रतीकात्मक बदलाव जरूर हुआ। हादसे से जुड़ा सबसे अधन चेहरा 'यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन' के चेयरमैन व सीईओ वारेन एंडरसन की मौत हो गई। लेकिन मुद्दे नहीं बदले जद्दोजहद जारी है। पीडि़तों की सरकार से। यूनियन कार्बाइड से। देश से लेकर अमेरिका तक। हताश कर देने वाली इस लड़ाई का एक दूसरा चेहरा भी है। चेहरा, अन्याय के खिलाफ लडऩे के साथ आगे बढऩे वालों का।

Saturday 29 November 2014

भारत में ही नहीं पूरे दुनिया में लगभग हर जगह पर शादी को धर्म से जोड़कर देखने का रिवाज रहा है, और हर जगह के लोग अपने बच्चों की शादी अपने ही धर्म में कराना चाहते है। पर क्या किसी के साथ जीवन व्यतीत करने के लिए एक ही धर्म का होना जरूरी है ? भले ही दोनों में आपसी ताल-मेल ना हो पर शादी अपने ही धर्म में होना चाहियें। लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से लव-जिहाद सामने आया है उस से हम यह भी नहीं कह सकते है कि लव से किया गया शादी सफल ही हो। क्योंकि लव-जिहाद जैसे मामले सांप्रदायिक माहौल भी बिगाड़ते है, और ज्यादातर सांप्रदायिक झड़पों की वजह भी लव ही होता है।


लव जिहाद जैसे मामले सिर्फ भारत में ही नहीं विश्व के और देशों में भी हो रहा है। अभी-अभी ऐसे ही कुछ मिस्र में हो रहा है। परंपराओं के दीवार टूट रही है तो विरोध के स्वर भी उठ रहे है। विरोध में उठी आवाजें हिंसक भी हो रही हैं। और इन्हीं सब चीजों के बीच नई पीढ़ी के लोगों में एक तरह का डर तो है, लेकिन उम्मीद की किरण भी दिखाई देती है। भारत या मिस्र ही नहीं पूरे दुनीयां में मजहब एक संवेदनशील मुद्दा रहा है। धार्मिक नेताएं अंतरधार्मिक विवाहों को दूसरे धर्म के लोगों की भर्ती के तौर पर देखते है। ऐसे में लव से किया गया शादी कितना सही है ? 

Friday 14 November 2014

जिनका बाल दिवस होता, कैसे बच्चे होते हैं ? खाने के ढाबे पर अब भी, बरतन बच्चे धोते हैं। भूख, गरीबी, लाचारी में, जीवन इनका बीत रहा। जाने कितने नौनिहाल बस पेट पकड़कर सोते हैं। खेलकूद, शैतानी, जिद रकना तो भूल गया। इनको पता चलेगा कैसे, अक्षर कैसे होते हैं ? महाशक्ति बनकर उभरेगा, कैसे  कोई देश भला। भूख, अशिक्षा, बीमारी में जिसके बच्चे होते हैं।

अजय कुमार की ये लाइने आज के बाल दिवस को दर्शाता है। उच्चकोटी के विचारक तथा लोकतांत्रिक समाजवाद के समर्थक जवाहरलाल नेहरु महान मानवतावादी थे। बच्चों के प्रिय चाचा नेहरु अपने देश में ही नही वरन सम्पूर्ण विश्व में सम्मानित और प्रशंशनीय राजनेता थे। लेकिन आज देश के बच्चों के  लिए जो भी किया जाय कम है, क्योंकि असली बाल वह है, जो अपने अनिश्चित भविष्य से जूझ रहा है। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन यानी 14 नवम्बर को पूरा देश बाल दिवस के रूप में मनाते है। बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू को बच्चों से बेहद प्यार था। इसलिए आज के दिन को बाल दिबस के रूप में मनाया जाता है। पं. नेहरू ने बच्चों को देश का भविष्य कहा था और उनके लिए एक सपना देखा था, लेकिन आज का वो सपना अधुरा ही है। आजीविका चलाने के नाम पर आज देश में न जाने कितने बच्चे बाल मजदूरी करने पर विवश है।
अगर माँ बाप भीख मांग रहे हैं तो बच्चे भी मांग रहे हैं। क्या ये बाल दिवस का अर्थ जानते हैं या कभी ये कोशिश की गयी कि इन भीख माँगने वाले बच्चों के लिए सरकार कुछ करेगी। कोई कूड़ा इल लिए बीन रहा हैं क्योंकि घर को चलने के लिए उनको पैसे की जरूरत है। कहीं बाप का साया नहीं है, कहीं बाप है तो शराबी जुआरी है, माँ बीमार है, छोटे। छोटे भाई बहन भूख से बिलख रहे हैं। कभी उनकी मजबूरी को जाने बिना हम कैसे कह सकते हैं कि माँ बाप बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते हैं। अगर सरकार उनके पेट भरने की व्यवस्था करे तो वे पढ़ें लेकिन ये तो कभी हो नहीं सकता है। फिर इन बाल दिवस से अनभिज्ञ बच्चों का बचपन क्या इसी तरह चलता रहेगा?

आज भी चाचा नेहरू के इस देश में लगभग 1.01 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। जो चाय की दुकानों पर नौकरों के रूप में, फैक्ट्रियों में मजदूरों के रूप में या फिर सड़कों पर भटकते भिखारी के रूप में नज़र आ ही जाते हैं। इनमें से कुछेक ही बच्चे ऐसे हैं, जिनका उदाहरण देकर हमारी सरकार सीना ठोककर देश की प्रगति के दावे को सच होता बताती है। तो वहीं दूसरी और तस्वीर कुछ और ही बयान करती है। सरकार को जरुरत है की वो जमीनी हकीकत से जुडे और आंकडों को छोडकर वस्तुनिष्ठता पर जोर दे और उन बच्चों के भविष्य के बारे में विचार करे ताकी एक सुभारत का निर्माण किया जा सके और हमारे समाज से बाल मजदूरी नामक दंश का विनास हो।







Monday 27 October 2014

Posted by Gautam singh Posted on 05:55 | No comments

बचपन का सावन

बचपन इंसान के जिंदगी का सबसे हसीन और खूबशूरत पल होता है न कोई चिंता न कोई फिकर मां की गोद और पापा के कंधे न पैसे की चिंता न फियूचर की सोच। बस हर पल अपनी मस्तीयों में खोए रहना, खेलना कुदना और पढ़ना। बगैर किसी तनाव के, नन्हे होंठों पर फूलों सी खिलखीलाती हँसी, और मुस्कुराहट, वो शरारत, रूठना, मनाना, जिद पर अड़ जाना यही तो बचपन की पहचान है। सच कहें तो बचपन ही वह वक्त होता है, जब हम दुनियादारी के झमेलों से दूर अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं

'ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो, बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी' मशहुर गजल गायक जगजीत सिंह की ये पंक्तियां उम्र की एक दहलीज पर किसी को भी भावुकता के समंदर में डूबोने या उतारने के लिए काफी है। लेकिन आज कल के बच्चों के जिंदगी में वो बचपन आता कहां है। नानी और दादी की गोद, पापा और दादा के कंधों की सवारी करने के उम्र में इन बच्चों के कंधों पर भारी बस्ता का बोझ टाँग दिया जाता है और बच्चों से खचाखच भरी स्कूल बस में डाल दिया जाता है। चकाचौंध संस्कृति व चमकदार सपनें बचपन की मासूमियत को जाने अनजाने में डसने लगे हैं। इन नन्हें-नन्हें मासूम चेहरों पर मुस्कान के बजाय उदासी गणित के पहाड़ों में खोने लगी और हम इसे बदले परिवेश के एक हिस्से के रूप में स्वीकार भी करने लगे हैं। बेखौफ तरीके से जीने वाला वो बचपन कहीं खोता जा रहा है।

चमचमाते अंग्रेजी स्कूलों ने बच्चों को अंग्रेजी बोलना तो सीखा दिया, मगर बुजुर्गों के प्रति संवेदनाएं और जीवन के प्रति आशाएं यह स्कूल नहीं सीखा पायें। जब वे माता-पिता की अपेक्षाओं में खरे नहीं उतर पाते तब वे हीन-भावना से ग्रस्त हो जाते हैं। परिणामस्वरूप बच्चे गलत राह की ओर अभिमुख हो जाते हैं। वे असंवदेनशील हो जाते हैं।  किशोरों में दिनोंदिन आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, जो वर्तमान समाज के लिए बहुत बड़ी चिंता का विषय है। इसीलिए वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए समाज को अपनी सोच में बदलाव की जरूरत है। ऐसे संक्रमणकाल में पल रहे बचपन को खोने से कैसे बचाएं, इस पर आज विचार करने की आवश्यकता है। चिंतन की प्रक्रियाओं में बदलाव की जरूरत है। बचपन को बचाने के लिए मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास करने की जरूरत है।  

Friday 17 October 2014

कहा जाता है कि खुबसूरती ऊपरवाले की दी हुई सबसे अनमोल नेमत होती है जो हर किसी को नसीब नहीं होती। अपनी बेमिसाल खूबसूरती के लिए बॉलीवुड में अपनी एक अलग पहचान रखने वाली बॉलीवुड की ड्रीम गर्ल हेमामालनी भी एक ऐसी ही अदाकारा हैं जिनकी खूबसूरती पर आज भी लाखों जवां लोगों के दिल मर मिटते है। बेहतरीन अभिनय, शास्त्रीय नृत्य के अलावा भरतनाट्मय नृत्य शैली में महारत रखने वाली हेमामालनी शोहरत, सफलता और कामयाबी के शिखर पर पहुंची जिंदगी पर्दे से शुरू होकर लोकतंत्र की मंदीर संसद तक जा पहुची हैं।

सालों दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली बॉलीवुड की स्वप्न सुंदरी नृत्यांगना हेमा मालिनी बॉलीवुड की उन गिनी-चुनी अभिनेत्रियों में शामिल हैं, जिनमें सौंदर्य और अभिनय का अनूठा संगम देखने को मिलता है। इसी अभिनय के दम पर हेमामालिनी हिन्दी फिल्म की पहली महिला सुपर स्टार बनी। लगभग चार दशक के कैरियर में उन्होंने कई सुपरहिट फिल्मों में काम किया। इनकी सुंदरता और अदाओं के कारण इन्हें बॉलीवुड की ड्रीम गर्ल्स कहा जाने लगा। आगे चलकर निर्माता प्रमोद चक्रवर्ती ने इस नाम से भी फिल्म बनायी। बालीवुड के लीजेंड कहे जाने वाले राज कपूर की फिल्म (सपनों का सौदागर) में पहली बार नायिका के रूप में काम करने का मौका मिला। फिल्म के प्रचार के दौरान हेमा मालिनी को। ड्रीम गर्ल. के रूप में प्रचारित किया गया। बदकिस्मती से फिल्म टिकट खिडकी पर असफल साबित हुई लेकिन अभिनेत्री के रूप में हेमा मालिनी को दर्शकों ने पसंद कर लिया।

हेमा मालिनी बालीवुड के उन गिनी-चुनी अभिनेत्रियों में शामिल हैं जिनमें सौंदर्य तथा अभिनय का अनूठा संगम देखने को मिला. हेमा मालिनी अभिनय के अलावा शास्त्रीय नृत्य में भी पारंगत है। जिस किसी भी फिल्म में हेमा मालिनी को नृत्य करने का मौका मिला उन्होंने दर्शकों पर अपने नृत्य कला की छाप छोड़ दी. इसके अलावा हेमा मालिनी का डॉयलाग कहने का अपना दिलकश अंदाज था जिसकी नकल आज की अभिनेत्रियां करती नजर आती हैं। हेमा का जन्म 16 अक्तूबर 1948 को तमिलनाडु के तंजावुर जिले के अम्माकुडी गांव में हुआ था। हेमा मालिनी को पहली सफलता वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म (जॉनी मेरा नाम) से हासिल हुई। इसमें उनके साथ अभिनेता देवानंद मुख्य भूमिका में थे। फिल्म में हेमा और देवानंद की जोडी को दर्शकों ने सिर आंखों पर लिया और फिल्म सुपरहिट रही। उसके बाद हेमा रातोंरात स्‍टार बन गईं। अपने फिल्मी करियर में करीब 150 फिल्मों में काम करने वाली हेमा ने बहुत सारे सुपरहिट फिल्में बनाई जिसमें ‘सीता और गीता’ 1972, ‘प्रेम नगर’ ,’अमीर गरीब’ 1974, ‘शोले’ 1975, ‘महबूबा’, ‘चरस’ 1976, ड्रीम गर्ल’, ‘किनारा’ 1977, ‘त्रिशूल’ 1978, ‘मीरा’ 1979, ‘कुदरत’, ‘नसीब’, ‘क्रांति’ 1980, ‘अंधा कानून’, ‘रजिया सुल्तान’ 1983, ‘रिहाई’ 1988, ‘जमाई राजा’ 1990, ‘बागबान’ 2003, ‘वीर जारा’ 2004, आदि शामिल है।

मेरे नसीब में तू हैं के नहीं, तेरे नसीब में मैं हूं के नहीं हेमा पर फिल्माया गया यह गाना उनके जीवन पर सटीक बैठता है। एक समय ऐसा भी था जब उनको चाहने वालों की कतार लगा करता था। जिसमें बालीवुड के ही मेन कहे जाने वाले धर्मेंद्र सुपरस्टार जीतेंद्र और संजीव कुमार भी शामिल थे। लेकिन हेमा के नसीब में तो शादीशुदा धर्मेंद्र लिखा था। इस लिए उनका दिल धर्मेंद्र पर आया और रील लाइफ की ड्रीम गर्ल हेमामालिनी 1980 में उनके रीयल लाइफ की ड्रीम गर्ल बन गईं।

Sunday 12 October 2014

आम जनमानस के दिमाग में अक्सर यह सवाल उठता है। जब वह सरकारी प्रणाली की मार खाते है। तब बुदबुदाते है, अकेला चना क्या भाड़ फोड सकता है। देश में संपूर्ण क्रांती की अखल जगाने वाले लोकनायक जयप्रकाश नरायण ऐसे ही एक चना है जिन्होंने अकेले ही शिक्षा में क्रान्ति, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी, को दूर करने के लिए घडे रूपी सरकार को तोड़ दिया। लोकनायक एक ऐसे शख्स थे जिन्होंने अपनी जिन्दगी देश के नाम कर दी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दिन में तारे दिखला दिए।

देश को आजाद कराने की लड़ाई से लेकर 1977 तक तमाम आंदोलनों की मसाल थामने वाले लोकनायक जयप्रकाश नरायण का नाम देश के ऐसे शख्स के रूप में उभरता है जिन्होंन अपने विचारों, दर्शन तथा अपने व्यक्तित्व से देश की दिशा तय करने वाले महान गांधीवादी नेता जयप्रकाश नरायण का जन्म 11 अक्तूबर 1902 को बिहार के महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र में आने वाले 'लाला का टोला' में हुआ था। पटना से शुरुआती पढ़ाई करने के बाद वह शिक्षा के लिए अमेरिका भी गए हालांकि उनके मन में भारत को आजाद देखने की लौ जल रही थी। यही वजह रही कि वह स्वदेश लौटे और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय हुए। जब वह अमेरिका से स्वदेश लौटे तो उस वक्त वह मार्क्सवादी हुआ करते थे। वह सशस्त्र क्रांति के जरिए अंग्रेजी सत्ता को भारत से बेदखल करना चाहते थे, लेकिन बाद में बापू और नेहरू से मिलने एवं आजादी की लड़ाई में भाग लेने पर उनके इस दृष्टिकोण में बदलाव आया। नेहरू के कहने पर जेपी कांग्रेस के साथ जुड़े हालांकि आजादी के बाद वह आचार्य विनोभा भावे से प्रभावित हुए और उनके सर्वोदय आंदोलन से जुड़े। उन्होंने लंबे वक्त के लिए ग्रामीण भारत में इस आंदोलन को आगे बढ़ाया। उन्होंने आचार्य भावे के भूदान के आह्वान का पूरा समर्थन किया।

वे इंदिरा गांधी की प्रशासनिक नीतियों के विरुद्ध थे। 5 जून 1975 को अपने भाषण में कहा था "भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रान्ति लाना आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं; क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रान्ति- 'सम्पूर्ण क्रान्ति आवश्यक' है।" 5 जून, 1975 की विशाल सभा में जे. पी. ने पहली बार 'सम्पूर्ण क्रान्ति' के दो शब्दों का उच्चारण किया। उनका साफ कहना था कि इंदिरा सरकार को गिरना ही होगा। यह क्रान्ति बिहार और भारत में फैले भ्रष्टाचार की वजह से शुरू की। बिहार में लगी चिंगारी कब पूरे देश में फैल गई पता ही नहीं चला।

गिरते स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन किया। उनके नेतृत्व में पीपुल्स फ्रंट ने गुजरात राज्य का चुनाव जीता। 1975 में इंदिरा गांधी ने आपात्काल की घोषणा की जिसके अंतर्गत जेपी सहित 600 से भी अधिक विरोधी नेताओं को बंदी बनाया गया और प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। जेल मे जेपी की तबीयत और भी खराब हुई। 7 महिने बाद उनको मुक्त कर दिया गया। 1977 जेपी के प्रयासों से एकजुट विरोध पक्ष ने इंदिरा गांधी को चुनाव में हरा दिया।

  

Friday 10 October 2014

यह बॉलिवुड है, यहां हर वयक्ति के आखों में सपने हजारों है। यहां हर किरदार खुद में अनगिनत कहानियां लिए घूमता है। एक स्ट्रगलर के अंदर कामयाब सितारे बनने की चाह तो एक कामयाब सितारे के पीछे उस कामयाबी तक पहुंचने की कई अनछुई कहानी। खुद में लाखों कहानियां लिए रंगमंच की ऐसी ही किरदार हैं रेखा। हिन्दी सिनेमा जगत में रेखा एक ऐसी अभिनेत्री हैं जिन्होंने अभिनेत्रियों को फिल्मों में परंपरागत रूप से पेश किए जाने के तरीके को बदलकर अपने बिंदास अभिनय से दर्शकों के बीच अपनी खास पहचान बनाई। आज रेखा का जन्मदिन है। शोहरत, सफलता और कामयाबी के शिखर पर पहुंची रेखा की जिंदगी पर्दे से शुरू होकर संसद तक जा चुकी है। 
इन आखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं, इन आंखों के बाबस्ता अफसाने हजारों हैं। रेखा पर फिल्माया गया यह गाना आज भी उनके जीवन पर सटीक बैठता है। रेखा की आंखों की मस्ती के आशिक हजारों थे और शायद आज भी हैं। रेखा का पूरा नाम भानुरेखा गणेशन कम ही लोग जानते हैं। 10 अक्टूबर 1954 को तमिल परिवार में जन्मीं भानुप्रिया के मां बाप दोनों ही अभिनय जगत से जुड़े हुए थे। उनके पिता जैमिनी गणेशन अभिनेता और मां पुष्पावली जानी मानी फिल्म अभिनेत्री थीं। घर में फिल्मी माहौल से रेखा का रूझान फिल्मों की ओर हो गया और वह भी अभिनेत्री बनने के ख्वाब देखने लगीं।

12 साल की उम्र में आई 'रंगुला रत्नम' उनकी पहली फिल्म थी जिसे बाद में 1976 में 'रंगीला रतन' के नाम से दोबारा हिन्दी में भी बनाया गया. मुंबई आने और हिन्दी फिल्मों में कदम रखने से पहले उन्होंने एक तेलुगू और एक कन्नड़ फिल्म की। बॉलिवुड में रेखा ने 'अनजाना सफर' से फिल्मी करियर की शुरू आत की इस फिल्म में अभिनेता विश्वजीत के साथ चुंबन सीन होने के कारण विवाद में पड़ गया। जिसके कारण सेंसरबोर्ड से स्वीकृती नहीं मिला। अरसे बाद यह फिल्म 'दो शिकारी' के नाम से रिलीज हुआ और टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई।

इस कारण 1970 में आई 'सावन भादो' को उनकी पहली हिन्दी फिल्म माना जाता है। शुरुआत में सांवली रंगत, भारी शरीर और हिन्दी बोलने में सहज ना होने की वजह से बात बहुत जमीं नहीं। बाद में उन्होंने वजन कम किया और हिन्दी पर भी पकड बना कर दर्शकों के दिल पर राज किया। हिन्दी सिनेमा में उन्होंने कला और व्यावसायिक दोनों ही तरह की फिल्में कीं और शोहरत पाई। 'खूबसूरत', 'खून भरी मांग' और 'उमराव जान' उनकी बेहद कामयाब रही फिल्मों में से हैं। फिल्मी दुनिया के कई बड़े पुरस्कारों जीत चुकीं रेखा को भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा है।



Sunday 5 October 2014

गंगा के किनारे खड़ी नाव में सभी यात्री बैठ चुके थे। बगल में ही युवक खड़ा था। नाविक ने उसे बुलाया, पर वह लड़का नहीं आया चूंकि उसके पास नाविक को उतराई देने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए वह नाव में नहीं बैठा और तैरकर घर पहुंचा। सच, सादगी, स्नेह, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा एवं निर्भीकता की मिसाल छः साल का एक लड़का अपने दोस्तों के साथ एक बगीचे में फूल तोड़ने के लिए घुस गया। उसके दोस्तों ने बहुत सारे फूल तोड़कर अपनी झोलियाँ भर लीं। वह लड़का सबसे छोटा और कमज़ोर होने के कारण सबसे पिछड़ गया। उसने पहला फूल तोड़ा ही था कि बगीचे का माली आ पहुँचा। दूसरे लड़के भागने में सफल हो गए लेकिन छोटा लड़का माली के हत्थे चढ़ गया। बहुत सारे फूलों के टूट जाने और दूसरे लड़कों के भाग जाने के कारण माली बहुत गुस्से में था। उसने अपना सारा क्रोध उस छः साल के बालक पर निकाला और उसे बहुत पीट। नन्हें बच्चे ने माली से कहा “आप मुझे इसलिए पीट रहे हैं क्योकि मेरे पिता नहीं हैं!”यह सुनकर माली का क्रोध खत्म हो गया, और वह बोला “बेटे, पिता के न होने पर तो तुम्हारी जिम्मेदारी और अधिक हो जाती है।”माली की मार खाने पर तो उस बच्चे ने एक आंसू भी नहीं बहाया था लेकिन यह सुनकर बच्चा बिलखकर रो पड़ा। यह बात उसके दिल में घर कर गई और उसने इसे जीवन भर नहीं भुलाया।

एक साधारण परिवार में जन्मे और विपदाओं से जूझते हुए सच, सादगी, और ईमानदारी के दम पर विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र देश के प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की अपने आपमें एक अनोखी मिसाल हैं- लाल बहादुर शास्त्री ‘जय जवान जय किसान’ जैसा जोशीला नारा देने वाले छोटे कद के शास्त्रीजी जनमानस के प्रेरणास्त्रोत रहे है। छोटी कद काठी में विशाल हृदय रखने वाले श्री शास्त्री के पास जहां अनसुलझी समस्याओं को आसानी से सुलझाने की विलक्षण क्षमता थी, वहीं अपनी खामियों को स्वीकारने का अदम्य साहस भी उनमें विद्यमान था। 64 में नेहरू के स्वर्गवास के बाद नेहरू के बिना भारत कैसा होगा के बीच देश के बहादुर लाल – लाल बहादुर शास्त्री ने कमान संभाली। उस समय देश का मनोबल टूटा हुआ था अकाल था भुकमरी थी। लेकिन शास्त्री जी की अदम्य इच्छा शक्ति भारत सम्हलने लगा। 17 साल का युवा भारत नए सपनें सजोने लगें। तभी 1965 में पाकिस्तान ने हमला कर दिया भारत को कब्जाने के लिए। तभी एक आवाज गूंजी ईट का जबाब पत्थर से देंगे और जय जवानो ने पाकिस्तान को हरा दिया। हम आजादी के बाद पहली लड़ाई जीते फिर ताशकंद में शान्ति वार्ता हुई। क्या हुआ क्या नहीं लेकिन हमने युद्ध तो जीत लिया लेकिन देश का बहादुर लाल अपना लाल बहादुर खो दिया।


      जीत गया अयूब, शास्त्री की अर्थी को कंधे पर ढोकर।
                                   मारा गया शिवाजी, अफजल की चोटों से घायल होकर।
                                   वह सब क्षेत्र ले लिया केवल जोर शोर से मेज बजाकर।
                                   पाकिस्तानी सेनायें थी नहीं ले सकी शस्त्र सजाकर।
                                   स्वाहा करे उपासक का घर हमें न ऐसा हवन चाहिए।
                                   तासकंद में प्राण खींच ले, हमें न ऐसी संधि चाहिए।



Friday 3 October 2014


ना कोई उमंग है, ना कोई पतंग है, मेरी जिंदगी है क्या, एक कटी पतंग है, आकाश से गिरी मैं एक बार कट के ऐसे दुनियाँ ने फिर ना पूछो, लूटा हैं मुझ को कैसे ना किसी का साथ है, ना किसी का संग है। आशा पारेख पर फिल्माया गया यह गाना उनके जीवन  शैली पर  बिल्कुल सटीक  है। हिन्दी सिनेमा की नायिकाओं में आशा पारेख की इमेज टॉम-बॉय की रही है। हमेशा चुलबुला, शरारती और नटखट अंदाज। के कारन ही शम्मी कपूर जैसे दिल हथेली पर लेकर चलने वाले नायक को वह शुरू से चाचा कहकर पुकारती थीं और उनके आखिरी समय तक यही सम्बोधन जारी रहा। फिल्मों के सेट पर शरारतों में व्यस्त रहने वाली आशा पारेख ऐसी टॉम बॉय थीं, जिनसे कोई सह-अभिनेता कभी अफेयर करने की सोच भी न सका। आशा पारेख ने कभी विवाह नहीं किया। इसके बावजूद आशा को अभिनय के क्षेत्र में वह मान्यता तथा प्रतिष्ठा नहीं मिली जो नूतन, वहीदा रहमान, शर्मिला टैगौर अथवा वैजयंती माला को नसीब हुई थी। यह अफसोस आशा के मन में आज तक कायम है।

2 अक्तूबर 1942 को जन्मी आशा पारेख को बचपन से ही डांस का शौक था। पड़ोस के घर में संगीत बजता, तो घर में उसके पैर थिरकने लगते थे। बचपन में बेबी आशा पारेख के नाम से फिल्मों में अभिनय शुरू किया, जिसका आगाज 1952 की फिल्म "आसमान" से हुआ। एक डांस शो में स्टेज पर देख कर बिमल रॉय ने 12 वर्ष की छोटी उम्र में उन्हें अपनी फिल्म "बाप-बेटी" में कास्ट किया। 16 साल में आशा पारेख ने फिर इंडस्ट्री में कदम रखा, मगर 1959 में फिल्म "गूंज उठी शहनाई" के लिए विजय भट्ट ने उनके स्थान पर अमीता को यह कहते हुए कास्ट कर लिया कि आशा स्टार मैटीरियल नहीं हैं। जैसे बॉलीवुड की बड़ी स्टार बनना आशा पारेख की नियति थी, अगले ही दिन फिल्म निर्माता सुबोध मुखर्जी और लेखक-निर्देशक नासिर हुसैन ने उन्हें शम्मी कपूर के अपोजिट "दिल दे के देखो" में कास्ट कर लिया। इस फिल्म ने आशा पारेख को बॉलीवुड की बड़ी हीरोइनों में शुमार कर दिया। 1960 में आशा पारेख को एक बार फिर से निर्माता-निर्देशक नासिर हुसैन की फिल्म जब प्यार किसी से होता है में काम करने का मौका मिला। फिल्म की सफलता ने आशा पारेख को स्टार के रूप में स्थापित कर दिया। इसके बाद आशा पारेख ने फिल्म उद्योग में कटी पतंग, बहारों के सपने, मैं तुलसी तेरे आंगन की, मेरे सनम, लव इन टोकियो, दो बदन, आये दिन बहार के, उपकार, शिकार, कन्यादान, साजन, और चिराग सहित कई सुपरहिट फिल्में दी हैं।

1966 में प्रदर्शित फिल्म तीसरी मंजिल आशा पारेख के सिने कैरियर की बड़ी सुपरहिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म के बाद आशा पारेख के कैरियर में ऐसा सुनहरा दौर भी आया जब उनकी हर फिल्म सिल्वर जुबली मनाने लगी। यह सिलसिला काफी लंबे समय तक चलता रहा। इन फिल्मों की कामयाबी को देखते हुए वे फिल्म इंडस्ट्री में जुबली गर्ल के नाम से प्रसिद्ध हो गईं। आशा पारेख ने लगभग 85 फिल्मों में अभिनय किया है।वर्ष 1992 में कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए पद्मश्री से नवाजा गया। 1995 में उन्होंने फिल्मों से संन्यास ले लिया, और उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी 'आकृति' की स्थापना की जिसके बैनर तले उन्होंने 'पलाश के फूल', 'बाजे पायल', 'कोरा कागज' और 'दाल में काला' जैसे लोकप्रिय धारावाहिकों का निर्माण किया। सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टीफिकेशन यानी सैंसर बोर्ड की पहली महिला चेयरपर्सन होने का गौरव भी उन्हीं को हासिल है। इस पद पर 1994 से 2000 तक कार्यरत रहते हुए उन्होंने अपने सख्त निर्णयों से काफी आलोचना भी झेली, जिनमें शेखर कपूर की फिल्म "एलिजाबेथ" को क्लीयरैंस न देना भी शामिल रहा।














Friday 26 September 2014

मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया। हिंदी सिनेमा के सदाबहार अभिनेता देवानंद की जीवन शैली पर ये लाइनें बिल्कुल सटीक थीं। जिन्दगी के साथ रोमांस करने वाले और हर फिक्र को धुएं में उड़ाने वाले सदाबहार, ज़िन्दादिल और भले मानस के रूप में प्रसिद्धी पाने वाले देवानंद भारतीय सिनेमा जगत के ऐसे अभिनेता जिन्होंने दर्शकों को मोहब्बत की संजीदगी और रूमानियत सिखायी। रूपहले पर्दे को उलते पुलटते हुए रोमांस की एक अलग परिभाषा लिखे जिसे कोई छु न सके। पर्दे पर जिस तरह का रोमांस देव साहब अपनी नायिकाओं के साथ करते थे। आज भी बॉलिवुड में अभिनेता उसे समझने की कोशिश करते हैं।

शोखियों में घोला जाये फूलों का शबाब उसमें फिर मिलायी जाये, थोड़ी सी शराब, होगा फिर नशा जो तैयार वो प्यार है, जी हां जीवन को कुछ इसी अंदाज में जीने वाले देव आनंद का जन्म 26 सितंबर 1923 को हुआ था। इस मशहूर अभिनेता को 2001 में पद्मा भूषण और 2002 में दादासाहेब फाल्के अवार्ड से नवाजा गया। 65 साल के लंबे कैरियर में उन्होंने 114 फिल्मों में काम किया। इसमें 104 फिल्मों में उन्होंने मुख्य किरदार निभाया। इसके अलावा उन्होंने 2 अंग्रेजी फिल्में भी की । देवानंद उस दौर के अभिनेता रहे हैं, जब फिल्में समाज शिक्षण का माध्यम मानी जाती थी। विशुद्ध मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता, संस्कृतिक पतन का निराला प्रदर्शन और नैतिकता, मर्यादा को ताक पर रखना स्वीकार्य नहीं था।

बॉलीवुड सितारों की प्रेम की चर्चा आए दिन सुर्खियों बनी रहती है,लेकिन किसी भी सितारे की इतनी हिम्मत नहीं होती कि वह अपने रिशते को सभी के सामने कबूले। लेकिन इससे उलट देवआनंद ने अपनी प्रेमिका सुरैया के इश्क को सभी के सामने कबूला। देव साहब के लिए प्रेम करना एक धागे की तरह रहा। जिसके दोनों सिरे हमेशा उनके पास रहे जब चाहा प्यार किया और जब प्यार में दर्द मिला तो कमंडल उठाया और एक वैरागी की तरह सब कुछ छोड़ कर आगे बढ़ लिए।

भारतीय सिनेमा में देवानंद की छवि एक जबर्दस्त रोमांटिक हीरो की रही। जिंदगी से भरपूर, जवां दिल देवानंद की उम्र कभी उनके आड़े नहीं आई। भारतीय सिनेमा के इस सदाबहार अभिनेता ने बतौर अभिनेता, निर्माता और निर्देशक बेहतरीन फिल्में दीं। आज बेशक देवानंद हमारे बीच नही हैं  लेकिन उनकी जिंदादिली, जीवन को जीने की इच्छा और हमेशा कुछ नया करने की इच्छाशक्ति बॉलीवुड के नये लोगों के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत रहेगी।

Thursday 18 September 2014


कहा जाता है कि बॅालिवुड में सौंदर्य और हुस्न का होना बहुत जरूरी है। जो इन सब साचे में फिट है वहीं हीट है। पर शबाना आजमी बॅालिवुड के उन अभिनेत्रियों में शुमार हैं। जिनके पास न तो हुस्न है और न ही सौंदर्य लेकिन अपनी दिलकश अदाओं से रूपहले पर्दे को उलते पुलटते हुए सौंदर्य का एक नया परिभाषा लिखी एक नया रंग एक नया रूप जिसे कोई छु न सके।  बॅालिवुड में शबाना का आगमन एक नई परंपरा की शुरूआत थी जो आज चार दशक बाद भी उस परंपरा की इकलौती हकदार है।  


18 सितंबर 1950 को मशहूर शायर और गीतकार कैफी आजमी के घर जन्मी शबाना भारतीय सिनेमा की एक अनूठी उपलब्धि हैं।  शबाना शुरू से ही प्रोग्रेसिव विचारों की थी.... लेकिन परम्परों और मर्यादाओं में उनकी गहरी आस्था थी... यही वजह है कि अभिनय उनकी प्राथमिकता में नहीं था लेकिन फिल्म 'सुमन' में जया बच्चन की अभिनय को देख कर शबाना आजमी इतनी प्रभावित हुई की पूने में टेलिविज़न इंस्टीट्युट ऑफ़ इंडिया में दाखिला ले लिया और 1973 में जब वह लौटी तो सिनेमा-सृजन और सरोकारों को समर्पित  बन कर। एक गंभीर अभिनेत्री के रूप में उन्होंने हिन्दी सिनेमा को एक नया आयाम प्रदान की अपनी कुशल अभिनय से समानांतर सिनेमा हो या फिर कमर्शियल फिल्में उन्होंने हमेशा अपने को साबित किया।   

Thursday 11 September 2014

समय आ गया एक और हिन्दी दिवस मनाने का, आज के दिन हिन्दी के नाम पर कई दावे किए जाएगें। कई पुरस्कारों का ऐलान भी किया जाएगा। कई सारे पाखंड भी होंगे, अलग-अलग जगहो पर हिन्दी की दुर्दशा पर विभिन्न प्रकार के सम्मेलन भी किए जाएंगे। इस दिन सब हिन्दी में ही काम करने की प्रण भी लेंगे और न जाने क्या- क्या लेकिन अगले ही दिन सब भूल कर अपने-अपने काम में लग जाएंगे और हिन्दी फिर वही अपने जगह पर रेंगती और सिसकती रह जाती है। यह सिलसिला 14 सितंबर 1949 से लगातार जारी है और न जाने कब तक जारी रहे। हम लगभग पिछले छह दशकों से हिन्दी दिवस का आयोजन करते आ रहे हैं। 


आधुनिकरण के इस दौर में या वैश्वीकरण के नाम पर जितनी अनदेखी और दुर्गति हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं की हुई है उतनी शायद हीं कहीं भी किसी और देश में हुई हो। लेकिन वैश्वीकरण के इस युग में क्या हिन्दी वाकई आगे बढ़ पा रही है। क्या यही है हिन्दी दिवस की सार्थकता? एक दिन मना कर हम सब राजभाषा हिन्दी को भूला दें। कुछ लोगों का कहना है कि शुद्ध हिन्दी बोलना कठिन है, सरल तो केवल अंग्रेजी बोली जा सकती है। क्यों हमारे यहां सिर्फ अंग्रेज़ी को ही महत्व दिया जाता है। जिस देश में पचास करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते हो उस देश में हिन्दी साहित्य को मात्र पांच सौ से हजार पाठक ही मिल पाते हैं, ऐसा क्यों होता है? 


आज भारत में कहा जाता है, अच्छे स्कूलों में दाखिला लेने और बेहतर नौकरी पाने के लिए अंग्रेज़ी जानना ही होगा, आज के युग में अंग्रेज़ी का ज्ञान ज़रूरी है, कई सारे देश अपनी युवा पीढ़ी को अंग्रेज़ी सिखा रहे हैं पर इसका मतलब ये नहीं है कि उन देशों में वहाँ की भाषाओं को ताक पर रख दिया गया है और ऐसा भी नहीं है कि अंग्रेज़ी का ज्ञान हमको दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में ले आया है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कहते थे- 'हिंदी न जानने से गूँगा रहना ज्यादा बेहतर है। आज पूरे देश में हिन्दी की क्या दशा है किसी से छुपी नहीं है। अगर हम विश्व पर नजर डाले तो केवल दस देश ही ऐसे हैं, जहां पर अंग्रेजी भाषा में पढ़ाई होती है, और बाकी के देश अपनी भाषा में पढ़ाई करते है। आज विश्व के बडे-बडे विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई जाती है पर अपने ही देश के विश्वविद्यालय में हिन्दी की जगह अंग्रेजी ने ले ली है। दिल्ली के विश्वविद्यालय में सिर्फ अँग्रेजी भाषा में व्याख्यान और अंग्रेजी पुस्तकों का राज चल रहा है। अंग्रेजी ने यहां ऐसा वर्चस्व जमाया है कि वह पटरानी और हिंदी नौकरानी बन गई है। 



जहां तक अंग्रेजी की बात है तो ये पूरे विश्व में सिर्फ अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और आधे कनाडा में बोली जाती है। वैसे अगर हम दिवस मनाए जाने की बात करें तो आज दुनिया भर में न जाने कितने डे मनाए जाते हैं, मदर्स डे, फादर्स डे, और न जाने क्या-क्या ? लेकिन हमारे देश में हर मां-बाप अपने बच्चे को जबरदस्ती अंग्रेजी पढ़ाने-सिखाने के लिये उसे मारते-पिटते हैं। लेकिन क्या हमलोगों ने कभी किसी अंग्रेजों को अपने बच्चे को हिंदी पढ़ाने या सीखाने के लिये मारते-डाठते हुए सुना है। आज “हिन्दी दिवस” जैसा दिन मात्र एक औपचारिकता बन कर रह गया है। हम हर साल 14 सितम्बर के दिन ऊब और अवसाद में डूब कर हिंदी की बरसी ही तो मनकते है। वरना क्या कभी आपने चीनी दिवस या फ्रेंच दिवस या अंग्रेजी दिवस के बारे में सुना है। हिन्दी दिवस मनाने का अर्थ ही है हिन्दी के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करना। 

Friday 5 September 2014

"गुरु ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मैः श्री गुरुवेः नमः।"

जिसे देता ये जहाँ सम्मान, जो करता है देशों का निर्माण, जो बनाता है इंसान को इंसान, जिसे करते है सभी प्रणाम, जिकसी छाया में मिलता ज्ञान, जो कराये सही दिशा की पहचान, वो है हमारे गुरु; मेरे गुरु को शत-शत प्रणाम।

गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पाय
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।
कबीरदास द्वारा लिखी गई उक्त पंक्तियाँ जीवन में गुरु के महत्त्व को वर्णित करने के लिए काफी हैं। भारत में प्राचीन समय से ही गुरु व शिक्षक परंपरा चली आ रही है। गुरु, शिक्षक, आचार्य, अध्यापक या टीचर ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को व्याख्यातित करते हैं, जो सभी को ज्ञान देता है, सिखाता है। शिक्षक उस माली के समान है, जो एक बगीचे को भिन्न-भिन्न रूप-रंग के फूलों से सजाता है। जो छात्रों को कांटों पर भी मुस्कुराकर चलने को प्रोत्साहित करता है। शिक्षक ही वह धुरी होता है, जो विद्यार्थी को सही-गलत व अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए बच्चों की अंतर्निहित शक्तियों का विकसित करने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। वह प्रेरणा की फुहारों से बालक रूपी मन को सींचकर उनकी नींव को मजबूत करता है। उन्हें जीने की वजह समझाता है। संत कबीर के शब्दों से भारतीय संस्कृति में गुरु के उच्च स्थान की झलक मिलती है। भारतीय बच्चे प्राचीन काल से ही आचार्य देवो भवः का बोध-वाक्य सुनकर ही बड़े होते हैं। इन्हीं शिक्षकों को मान-सम्मान, आदर तथा धन्यवाद देने के लिए एक दिन निर्धारित की गई है।

5 सितंबर यानी शिक्षक दिवस। यह दिन हमें उस महान व्यक्तित्व की याद दिलाता है जो एक महान शिक्षक के साथ-साथ राजनीतिज्ञ एवं दार्शनिक भी थे। डॅा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन अपना जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाने के लिए कहा था, लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं सोचा था कि भौतिकता की आंधी में शिक्षक दिवस तब्दील होकर "टीचर्स डे" हो जाएगा। 'शिक्षक दिवस' कहने-सुनने में तो बहुत अच्छा प्रतीत होता है, लेकिन क्या हम इसके महत्त्व को समझते हैं। शिक्षक दिवस का मतलब साल में एक दिन अपने शिक्षक को भेंट में दिया गया एक गुलाब का फूल या कोई भी उपहार नहीं हो सकता। हमें शिक्षक दिवस का सही महत्त्व समझना होगा। 

Monday 25 August 2014

लव जिहाद एक ऐसा नाम जिससे सारे फेसबुकिए घबरा गए है। कि मुस्लिम लडके हिन्दु लडकियों को प्यार में फुसलाकर धर्म परिवर्तन करवा देते है। इसमें कहीं प्यार भी होता है, या फिर सब कुछ सुनियोजित रणनीति का हिस्सा क्योंकि लव और जिहाद दोनों विरोधाभासी हैं। लव कभी जिहाद नहीं हो सकता और जिहाद कभी लव नहीं हो सकता है। इन सवाल को लेकर आज कल पूरे देश में बहस छिड़ी हुई है। लव जिहाद दो बेहद गंभीर शब्द है और इसको कायदे से समझने की जरूरत है। जिसने इसका गूढ़ अर्थ समझ लिया उसके लिए यह अमृत और जिसने नहीं समझा उसके लिए जहर। लव जिहाद दो शब्दों से मिलकर बना है। अंग्रेजी के शब्द 'लव' यानि प्यार, इसके लिए किसी परिभाषा की जरूरत नहीं है। यह एक गहरा और खुशनुमा एहसास है। वहीं, 'जिहाद' शब्द का जन्म इस्लाम के साथ ही हो गया था। यह अरबी भाषा का शब्द है। इस्लाम के जानकारों के मुताबिक़ किसी मकसद को पूरा करने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देना और जी जान से कोशिश करने को अरबी में 'जिहाद' कहते हैं।

लेकिन कट्टरपंथियों और धार्मिक मूलवादियों के अभियान का हिस्सा बनकर जिहाद अपना असली अर्थ खोते जा रहा है। आज यह अपनी आंतरिक बुराइयों पर जीत हासिल करने वाले अर्थ को गंवाते जा रहे है। यहां जिहाद का मतलब है धर्म की रक्षा के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध जो की गैर मुश्लिमो के खिलाफ लड़ा जाता है। उन्हें मुश्लिम धर्म मनवाने के लिए स्वेक्षा से मान गए तो ठीक अन्यथा साम दाम दंड भेद की निति अपना कर इसलिए हिंदुस्तान में इसे अलग रूप दे कर लव जिहाद किया जाता है हमारे यहां पहले भोली भली लडकियो को अपने प्रेम जाल में फसाया जाता है फिर उससे विवाह कर धर्मान्तरित करवया जाता है।

मगर लव-जिहाद के बाद जो कुछ होगा या हो सकता है उसकी कल्पना तो कीजिए। मुस्लिम लड़के का ससुराल हिन्दू के घर में होगा और पत्नी की तरफ के सारे रिश्तेदार भी हिन्दू होंगे। थोड़ी देर के लिए लड़की को यदि मुसलमान बना भी दिया जाता है तो जो बच्चे पैदा होंगे क्या वे जिहादी मानसिकता के हो सकते हैं? बच्चे के चाचा, ताऊ, दादा-दादी मुस्लिम होंगे और वहीं मामा, मामी, मौसी, नाना-नानी, ममेरे-मौसेरे भाई हिन्दू। क्या ऐसा बच्चा किसी भी समुदाय से नफरत कर सकता है? मुझे तो नहीं लगता इससे हमारे समाज में एक नए अध्याय की शुरूआत होगी।

Tuesday 19 August 2014

किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो लो उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल मेें प्यार, जीना इसी का नाम है। राज कपूर पर फिल्माया गया यह गीत हमलोगों के जीवन पर विल्कुल सटीक बैठता है। राजकपूर भारतीय सिनेमा जगत का एक ऐसा नाम है, जो पिछले आठ दशकों से फिल्मी आकाश पर जगमगाता रहा है। और आने वाले कई दशकों तक जगमगाते रहेगें। राजकपूर सभी प्रकार के अभिनय को बखुबी पर्दे पर अदा करते थे। चाहे वो सीधे साधे गांव वाले का चरित्र हों या फिर मुम्बइया चोल वासी स्मार्ट युवा का। वे सभी चरित्रो को बखुवी निभाते थे। राजकपूर फिल्म की विभिन्न विधाओं से बखुबी परिचित थे। हिन्दी फिल्मों में राजकपूर को ही पहला शोमैन माना जाता है। उनकी फिल्मों में मौज-मस्ती, प्रेम, हिंसा, से लेकर अध्यात्म और समाज सब कुछ मौजूद रहता था। राजकपूर का जन्म 14 दिसंबर 1924 को पेशावर पाकिस्तान में हुआ था। इनके पिता पृथ्वी राज कपूर अपने समय के मशहूर रंगकर्मी और फिल्म अभिनेताओं में से एक थे। जिस कारण अभिनय उन्हें विरासत में मिला था। राजकपूर का बचपन में नाम रणवीर राज कपूर था। राजकपूर की स्कूली शिक्षा कोलकाता में हुई, लेकिन पढ़ाई में उनका मन कभी नही लगा और यही कारण रहा कि 10वीं कक्षा की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। इस मनमौजी ने विद्यार्थी जीवन में किताबें बेचकर खूब केले, पकोडे़ और चाट खाई।

सन् 1929 में जब पृथ्वी राज कपूर मुंबई आए तो उनके साथ मासूम राजकपूर भी आ गए। राज कपूर के पिता ने एक दिन कहा था, कि राजू, नीचे से शरूआत करोगें तो उपर तक जाओगे। राजकपूर ने पिता की यह बात गांठ बांध ली और जब उन्हें 17 वर्ष की उम्र में रणजीत मूवीटोन में साधारण एप्रेंटिस का काम मिला, तो उन्होंने वजन  उठाने से लेकर पोंछा लगाने का भी काम किया। 1930 के दशक में बाॅम्बे टाॅकीज क्लैपर-बाॅय और पृथ्वी थियेटर में बतौर अभिनेता काम किया। राज कपूर बाल कलाकार के रूप में 1935 में ‘इकबाल, हमारी बात, और गौरी 1943 में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने आए। राज कपूर ने 1946 में आई फिल्म बाल्मीकि और अमर प्रेम में कृष्ण की भूमिका निभाई थी। इन सारे फिल्मों में काम  करने के बावजूद भी एक आग थी कि स्वंय निर्माता-निर्देशक बनकर अपने से फिल्म का निर्माण करे, उनकी यह सपना 24 साल के उम्र में फिल्म ‘आग‘के साथ पूरा हुआ। इस फिल्म में राजकपूर खुद मुख्य भूमिका के रूप में आए। उसके बाद 1949-50 में राजकूपर रीवा चले गए और कृष्णा से रीवा में ही शादी कर ली। वहां से आने के बाद राजकपूर के मन में खुद का स्टूडियों बनाने का विचार आया और चेम्बूर में चार एकड़ जमीन लेकर 1950 में आरके स्टूडियों की स्थापना की और फिल्म ‘आवारा‘ बनाई जिसमें रूमानी नायक के रुप में  ख्याति पाई, लेकिन उसके बाद आई फिल्म ‘आवारा‘ में उनके द्वारा निभाया गया चार्ली चैपलिन का किरदार सबरे प्रसिद्ध रहा। उसके बाद उन्होंने ‘श्री 420, जागते रहो, और मेरा नाम जोकर‘ जैसे कई सफल फिल्में बनाई। राजकपूर अपने दोनो भाई शम्मी, शशी के साथ-साथ तीनों बेटे रणधीर, ऋषि और राजीव कपूर को लेकर भी कई सफल फिल्में बनाई।


राजकपूर की सिने कैरियर में उनकी जोड़ी नरगिस के साथ बहुत पसंद की गई। इन दोनो की पहली फिल्म तो ‘आग‘ थी, लेकिन फिल्म ‘आवारा‘ के निमार्ण के दौरान नरगिस का झुकाव राजकपूर की ओर बढ़ गया, जिस वजह से नरगिस ने केवल राजकपूर की फिल्मों में काम करने का फैसला किया। और नरगिस ने महबूब खान की फिल्म ‘आन‘ में काम करने से इन्कार कर दिया। इस जोड़ी ने 9 वर्ष में 17 फिल्में बनाई, 1956 में आई फिल्म चोरी चोरी इन दोनो जोड़ी की आखरी फिल्म थी। उसके बाद राजकपूर ने 60 के दशक में ‘जिस देश में गंगा बहती है और संगम‘ जैसीे सफल फिल्म बनाई। 1960 में राजकपूर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार फिल्म ‘अनाडी के लिये मिला। 1962 में फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है‘ में पुनः सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार तथा 1965 में फिल्म ‘संगम, 1975 में मेरा नाम जोकर‘ और 1983 में प्रेम रोग के लिये सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार मिला, लेकिन राजकपुूर का महत्वाकांक्षी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर‘ जिसे  बनाने में राजकपूर ने बहुत ज्यादा खर्च किया, लेकिन यह फिल्म बाॅक्स आॅफिस पर औंधे मुह गिरी। इसके बाद 80 के दशक में प्रेम रोग जैसी फिल्मों का निमार्ण किया जिसके लिये राजकपूर को एक बार फिर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार मिला, 1985 में आई फिल्म राम तेरी गंगा मैली हो गई उनकी आखरी फिल्म थी। 1987 में राजकपूर को दादा साहब फालके पुरस्कार भी दिया गया।1971 में भारत सरकार ने राजकपूर को कला क्षेत्र में अहम योगदान के लिय उन्हें पद्ा भूषण से सम्मानित किया।



Sunday 17 August 2014

कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना, ज़िंदगी के सफर में गुज़र जाते हैं जो मुक़ाम, चिंगारी कोई भड़के,  पिया तू अब तो आजा, आजा आजा मैं हूं प्यार तेरा.., ओ हसीना जुल्फों वाली, चुरा लिया है तुमने जो दिल को'। और ओ मेरे सोना रे सोना.. जैसे सुपरहिट मधुर संगीत से श्रोताओं का दिल जीतने वाले संगीत के जादूगर पंचम दा के नाम से मशहूर आर डी बर्मन (राहुल देव बर्मन) हिंदी फिल्म संगीत की दुनिया में सर्वाधिक प्रयोगवादी एवं प्रतिभाशाली संगीतकार के रूप में आज  याद किए जाते है। जिन्हें भारतीय फिल्म जगत के हर संगीतकार अपना गुरु मानते है। संगीत के साथ प्रयोग करने में माहिर आरडी बर्मन पूरब और पश्चिम के संगीत का मिश्रण करके नई धुन तैयार करते थे। उनके पिता सचिन देव बर्मन को पूरब और पश्चिम के संगीत का मिश्रण रास नहीं आता था।

आरडी बर्मन का जन्म 27 जून, 1939 को कोलकाता में हुआ था। इनके पिता सचिन देव बर्मन जो जाने माने फिल्मी संगीतकार थे। उन्होंने बचपन से ही आर डी वर्मन को संगीत की दांव-पेंच सिखाना शुरु कर दिया था। महज नौ बरस की उम्र में उन्होंने अपना पहला संगीत ”ऐ मेरी टोपी पलट के" को दिया, जिसे फिल्म “फ़ंटूश” में उनके पिता ने इस्तेमाल किया। छोटी सी उम्र में पंचम दा ने “सर जो तेरा चकराये.. की धुन तैयार कर लिया जिसे गुरुदत्त की फ़िल्म “प्यासा” में ले लिया गया। राहुल देव बर्मन ने शुरुआती दौर की शिक्षा बालीगुंगे सरकारी हाई स्कूल, कोलकाता से प्राप्त की। अपने सिने करियर की शुरूआत आरडी बर्मन ने अपने पिता के साथ बतौर सहायक संगीतकार के रूप में की। फिल्म जगत में पंचम दा के नाम से विखयात आरडी बर्मन ने अपने चार दशक से भी ज्यादा लंबे सिने करियर में लगग ३०० हिंदी फिल्मों के लिए संगीत दिया। इसके अलावा बंगला, तेलूगु, तमिल, उड़िया और मराठी फिल्मों में भी अपने संगीत के जादू से उन्होंने श्रोताओं को मदहोश किया।


बतौर संगीतकार महमूद की फ़िल्म आर डी बर्मन की पहली फिल्म छोटे नवाब 1961 आई लेकिन इस फिल्म के जरिए वह कुछ खास पहचान नहीं बना पाए। इस बीच पिता के साथ बतौर  सहायक संगीतकार उन्होंने बंदिनी 1963, तीन देवियां 1965, और गाइड जैसी फिल्मों के लिए भी संगीत दिया। उनकी पहली सफल फिल्म 1966 में प्रदर्शित निर्माता निर्देशक नासिर हुसैन की फिल्म तीसरी मंजिल के सुपरहिट गाने आजा आजा मैं हूं प्यार तेरा.. और ओ हसीना जुल्फों वाली.. जैसे सदाबहार गानों के जरिए वह बतौर संगीतकार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे।  लेकिन आर डी बर्मन ने इसका श्रेय गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को दिया।


सत्तर के दशक के आरंभ में आर डी बर्मन भारतीय फिल्म जगत के एक लोकप्रिय संगीतकार बन गए. उन्होंने लता मंगेशकर, आशा भोसले , मोहम्मद रफी और किशोर कुमार जैसे बड़े फनकारों से अपने फिल्मों में गाने गवाए। 1972 पंचम दा के सिने करियर के लिए अहम साबित हुआ। इस वर्ष उनकी सीता और गीता, मेरे जीवन साथी, बांबे टू गोवा परिचय और जवानी दीवानी जैसी कई फिल्मों में उनका संगीत छाया रहा। 1975 में सुपरहिट फिल्म शोले के गाने महबूबा महबूबा.. गाकर पंचम दा ने अपना एक अलग समां बांधा। यादों की बारात, हीरा पन्ना, अनामिका आदि जैसे बड़े फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया। आर डी वर्मन की बतौर संगीतकार अंतिम फिल्म 1942 लव स्टोरी रही। बॉलीवुड में अपनी मधुर संगीत लहरियों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाले महान संगीतकार आरडी बर्मन जनवरी, 1994 को इस दुनियां को अलविदा कह गए।


Saturday 16 August 2014

Posted by Gautam singh Posted on 06:19 | No comments

वो एक ख्वाब थी

वो एक ख्वाब थी, एहसास थी, हुस्न का इतिहास थी, जिसकी आंखों में कशिश थी।  होठों पर कंपन था, जुल्फों में हरकत थी। एक नया रंग एक नया रूप जिसे कोई छु न सके। अपनी दिलकश अदाओं से रूपहले पर्दे को रोशन करने वाली महान अदाकारा मधुबाला जिनका जन्म दिल्ली शहर के मध्य वर्गीय मुस्लिम परिवार में 14 फरवरी 1933 को हुआ था। इनका असली नाम मुमताज बेगम देहलवी था। इनके पिता अताउल्ला खान दिल्ली में एक कोचमेंन के रूप में कार्य करते थे। मधुबाला के जन्म के कुछ दिनों बाद उनका पूरा परिवार दिल्ली से मुंम्बई आ गया। मधुबाला बचपन के दिनों से ही अभिनेत्री बनने का सपने देखा करती थी। यही कारण रहा कि, 1942 में मधुबाला को बतौर बाल कलाकार बेबी मुमताज के नाम से फिल्म ‘बसंत‘ में काम करने का मौका मिला।

निर्माता-निर्देशक केदार शर्मा की 1947 में आई फिल्म नीलकमल से मधुबाला ने बतौर अभिनेत्री के रूप में अभिनय शरू किया। लेकिन उनको पहचान 1949 में बाँम्बे टाकीज के बैनर तले बनी फिल्म महल से मिली। इस फिल्म में फिल्माया गया गीत ‘आऐगा आने वाला........‘जिसे सिने दर्शक आज तक नहीं भुल पाये है। 1950 से 1957 तक का वक्त मधुवाला के सिने कैरियर के लिये बुरा साबित हुआ। इस दौरान उनकी कई फिल्में बाँक्स आँफिस पर असफल रही, लेकिन 1958 में उनकी प्रदर्शित फिल्म फागुन, हावडा ब्रिज, कालापानी और चलती का नाम गाड़ी की सफलता ने एक बार फिर मधुबाला को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। जहां एक ओर फिल्म हावड़ाब्रिज में क्लब डांसर की भूमिका अदा कर दर्षकों का मन मौहा। तो वहीं दूसरी ओर फिल्म चलती का नाम गाड़ी में हास्य से भरे अभिनय से दर्शकों को हंसाते-हंसाते लोटपोट कर दिया।

पचास के दशक में ही मधुबाला को यह अहसास हुआ की वह हृदय की बीमारी से ग्रसित हो चुकी है। इस दौरान उनकी कई फिल्में निर्माण के दौर से गुजर रहीं थी। जिसके कारन मधुबाला को लगा यदि उनकी बिमारी के बारे में फिल्म जगत को पता चल जाएगा तो इससे फिल्म निर्माता को नुकसान होगा। इसलिये उन्होंने यह बात किसी से नहीं बताई। के आँसिफ की फिल्म मुगले आजम के निर्माण में लगभग दस साल लगे। इस दौरान मधुबाला की तबीयत भी काफी खराब रहने लगा, इसके वाबजूद भी फिल्म की शूटिंग जारी रखी क्योंकी मधुबाला का मानना था कि अनारकली के किरदार को निभाने का मौका बार बार नहीं मिलता। जब 1960 में मुगले आजम प्रदर्शित हुयी तो फिल्म में मधुबाला के अभिनय को देख दर्शक मन मुग्घ हो गए। लेकिन बदकिस्तमती से इस फिल्म के लिये मधुबाला को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरूस्कार नहीं मिला लेकिन सिने दर्शकों का आज भी मानना है की मधुबाला को उस फिल्म के लिये फिल्म फेयर आवार्ड मिलना चाहिये था।


मधुबाला के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी  अभिनेता दिलीप कुमार के साथ काफी पसंद की गई। बी. आर. चोपडा की फिल्म नया दौर में पहले दिलीप कुमार के साथ नायिका की भूमिका में मधुबाला का चयन किया गया और इस फिल्म की शूटिंग मुंबई में की जानी थी । बाद में निर्माता को लगा फिल्म की शूटिंग भोपाल में भी करनी जरूरी है। लेकिन मधुबाला के पिता ने मधुवाला को मुंबई से बाहर जाने की इजाजत नहीं दी। उन्हें लगा की मुंबई से बाहर जाने पर मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच का प्यार और परवान चढ़ेगा और वे इसके लिये राजी नही थे। बाद में बी. आर. चोपडा को इस फिल्म में मधुबाला की जगह पर वैयजंतीमाला को लेना पड़ा। मधुबाला के पिता अताउल्ला खान बाद में इस मामले को अदालत ले गये और इसके बाद उन्होंने मधुबाला को दिलीप कुमार के साथ काम करने पर रोक लगा दी। और फिर दिलीप कुमार और मधुबाला की जोड़ी अलग हो गई।

चलती का नाम गाड़ी और झुमरू के निर्माण के दौरान ही मधुबाला किशोर कुमार के काफी करीब आ गयी थी। साठ के दशक में मधुबाला की तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी जिसके कारन उन्होंने फिल्मों में काम करना काफी कम कर दिया था। जब मधुबाला लंदन इलाज कराने के लिये जाने वाली थी तो मधुबाला के पिता ने किशोर कुमार को सुचित किया कि शादी लंदन से आने के बाद ही हो पाएगी, लेकिन मधुबाला को यह लग रहा था, कि शायद लंदन में होने वाली आपरेशन के बाद जिंदा न बचे, यह बात उन्होंने किशोर कुमार को बताइ इसके बाद किशोर कुमार ने मधुबाला की इच्छा को पूरा करने के लिये शादी कर लिया। शादी के बाद मधुबाला की तबीयत और ज्यादा खराब रहने लगी हालांकि इस बीच ‘पासपोर्ट, झुमरू, व्बाँय फ्रेंड, हाफ टिकट और शराबी जैसे कुछ फिल्में प्रदर्शित हुई। अपनी दिलकष अदाओं से लगभग दो दषक सिने प्रेमियों को मदहोश करने वाली महान अभिनेत्री मधुबाला 23 फरवरी 1969 को इस दुनियां को अलविदा कह गई।