Monday 2 December 2013

Posted by Gautam singh Posted on 04:55 | No comments

ख्वाहिशें... छोटू की

होठों की ये मासूम मुसकराहट आंखों मे भरे हजारों सपने, दिल में छुपी हजारों ख्वाहिशें, यह बच्चे भी दुसरे बच्चों की तरह जीना चाहते है। यह भी आसमान में उड़ान भरना चाहते है लेकिन हर बच्चा इतना खुशनसीब नहीं होता। पापी पेट की आग और मजबूरीयों के चलते ये बाल मजदूर, मजदूरी करने पर मजबूर है। अपने सपनों को धुमिल होते ये खुद देख रहे है, इनके पैर मजदूरी की दलदल में इतने धंस चुके है, साथ ही छोटे-2 कंधों  पर जिम्मेदारियों का बोझ भी इस कदर बढ़ चुका है की उनकी ये उडान .......... मानों अब कभी संभव ही न हो। गलती इनकी नहीं, गलती तो इनकी किसमत की है जो इन मासूमों से रुठी है अगर भगवान ने थोडी दया दिखाई होती तो शायद आज ये भी औरों की तरह किसी बडे घर में मां बाप से अपनी फरमाइशें पूरी करा रहे होते पर इनकी किस्मत में तो भगवान ने मालिक की फटकार, लोगों की दुत्तकार, और समाज की हिकारत ही लिखी है प्यार और दुलार तो शायद भगवान लिखना ही भूल गए।

शिक्षा, स्वास्थ और बेहतर भविष्य हर बच्चे का मौलिक अधिकार है। लेकिन हमारे देश के ज्यादातर बच्चे बाल मजदूरी करने पर विवश है। बच्चे भगवान का रुप होते है। देश का भविष्य भी यही है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री प. नेहरु जी को बच्चे बहुत ही प्यारे थे और पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब भी अच्चों में देश का उन्नती देखते हैं, पर ऐसे भविष्य की हम उज्जवल कामना कैसे कर सकते हैं, जिसका वर्तमान ही निश्चित नहीं है। हमारे देश का भविष्य कहीं ईंटें ढोते नजर आता है तो कहीं कूडे के ठेर में अपनी किस्मत तलासता...... कुछ का बचपन भट्टी की ताप में झुलसकर खुद का वजूद खो रहा है। चाह तो इनके दिल में भी होगी की अपने बचपन को खुल कर जियें दूसरे बच्चों की तरह स्कूल जांए। पर इन नाजुक कंधो पर जिम्मेदारीयां इतनी हैं की किसी के सामने अपनी इच्छा तक जाहिर नहीं करते ।

बाल मजदूरी किसी से छुपी नहीं है, ये कुकृत्य हमारे समाज में खुले आम हो रहा है। हालात तो ये है कि प्राईवेट के साथ-साथ सरकारी जगहों पर पर भी बच्चों से काम कराया जा रहा है। बच्चों की इस बदतर हालत का ज्ञान सभी को है, लेकिन करता कोई कुछ भी नहीं, वैसे आज कल की भागती दौड़ती जिन्दगी में किसी के पास इतना वक्त ही कहां है की वो किसी खुशी से महरुम बच्चे पर ध्यान दे। कुछ लोग होते है। जिन्हें इन बदनसीब बच्चों से  हमदर्दी होती है जब किसी बच्चे को चाय की दुकान पर काम करते देखते है। तो बुरा लगता है, जब किसी बच्चे को ढ़ाबे पर बर्तन साफ करते देखते है तो खुद को देश का जिम्मेदार नागरिक कहते हुए भी शर्म आती है, और जब खुद की जिम्मेदारी का अहसास होता है तो हमदर्दी केवल खयालों में ही सिमटी कर रह जाती है, और हम अपना मन मसोस कर ही रह जातें हैं।

ये नन्हें बच्चे खेलकूद और मौजमस्ती की इस उम्र में किस्मत की मार के साथ जिल्लत भरी जिंदगी गुजारते हैं। इनहें हर तरह के जुलमों का सामना करना पडता है, खाली हाथ और भूखे पेट जब ये अपने घर से निकलते हैं तो हर तरह के लोगों की नजर इन पर पडती है। कुछ तो ऐसे माफिया होते हैं जो  इन बच्चों का अपहरण करके इनसे भीख तक मंगावते हैं, हालात इससे भी बत्तर है विशेष तौर पर छोटी-छोटी लडकियों को जबरन वैश्यावृती के दलदल में धकेल दिया जाता है।

बाल मजदूर की इस स्थिति में सुधार के लिए सरकार ने तो सन्र 1986 में चाइल्ड लेबर एक्ट बनाया। जिसके तहत बाल मजदूरी को एक अपराध माना गया साथ ही रोजगार पाने की न्यूनतम आयु 14 वर्ष कर दी गई। सरकार ने नेशनल चाइल्ड लेबर प्रोजेक्ट में बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने के लिए कदम बढ़ा चुकी है। इस प्रोजेक्ट का उद्धेश्य बच्चों को इस संकट से बचाना है। जनवरी 2005 में नेशनल चाइल्ड लेबर प्रोजेक्ट स्कीम को 21 विभिन्न भारतीय प्रदेशों के 250 जिलों तक बढ़ाया गया। लेकिन इससे कुछ ज्यादा फायदा नहीं हुआ आज भारत में लगभग 158.79 मिलियन बच्चों की संख्या है जिसमें 12.6 मिलियन बच्चा बाल मजदूरी कर रहा है।

सरकार प्रायमरी स्कूल में बच्चों को मिडडे मील देती है, आठवीं तक की शिक्षा को अनिवार्य और निशुल्क भी किया गया है, लेकिन लोगों की गरीबी और बेबसी के आगे यह योजनाऐं भी निष्फल साबित होती दिखाई दे रही है। आज हम छोटे-छोटे मासूम बच्चों को मजदूरी करते देखते है...... जहां एक तरफ सरकार बाल मजदूरी को कम करने का दावा करती है तो वहीं दूसरी और तस्वीर कुछ और ही बयान करती है। सरकार को जरुरत है की वो जमीनी हकीकत से जुडे और आंकडों को छोडकर वस्तुनिष्ठता पर जोर दे और उन बच्चों के भविष्य के बारे में विचार करे ताकी एक सुभारत का निर्माण किया जा सके।


उगते सूरज की किरणें इनकी बेबेस आंखों में कुछ चमक तो लाती है पर इनकी आंखें की वो चमक और आगे बढ़ने की उम्मीदें तो डूबते सूरज के साथ ही अस्त हो जाती हैं, आसमान में उड़ते बेपरवाह पंछी को देखकर मन में  इच्छा तो होती होगी की काश हमारे भी पंख होते तो इस तरह गुलामी की जंजीर में यू बंधे ना होते हम भी बेबाक अंदाज में बेपरवाह उड़ान भरते। शायद इनके ये सपने पूरे हो और हमारे समाज से बाल मजदूरी नामक दंश का विनास हो।
Posted by Gautam singh Posted on 04:48 | No comments

तोमर चाचा

                       

कल शाम को में अपने रुम पर बैठा था। तभी नीचें से जोर-जोर की आवाजे आने लगी। जब मैं नीचें पहुंचा तो देखा की पड़ोस में रहने वाले तोमर चाचा और चाची किसी बात को ले कर आपस में झगड़ रहे है। मैने लड़ाई शांत कराने की तमाम कोशिश की पर सफल हो सका चाचा और चाची की लड़ाई बढ़ती ही जा रही थी। की तभी चाची बोल पडी मैे मायके जा रही हूं।
ये बात सुनते ही मुझे एका-एक बाॅबी फिल्म का वह गाना याद गया जिसमें झुठ बोले कौआ काटे नामक लोकगीत में नायिका करीब-करीब सातों वचनों को निभाने पर जोर देते हुए कहती है। कि वह मायके चली जाएगी और नायक देखता रह जाएगा।
पर मैं आज तक यह समझ नहीं पाया हुं कि भारतीय पत्नियां अपने पति से जरा-जरा सा मतभेद होने पर मायके जाने की क्यों बात करती है। वह हर बात पर धमकी देती है कि वह मायके चली जाएगी। पर मैनें फिल्मों से लेकर समाज में जो देखा और समझा है। उसमें मैने पाया है, की भले ही पति पत्नि के बीच कितनी भी लड़ाई क्यों हो जाए पति उसे कितना भी क्यों पिटे पर वह मायके जाने कि बात नहीं करती। वह पति को उल्टे बोलती है कि पालकी में आई हूं और अर्थी पर ही जाउगीं।

लेकिन आज की पत्नियां ऐसा बिल्कुल नहीं चाहती। उनके सौंपिग के लिए पैसे कम नहीं होना चाहिए। बगल वाले शर्मा जी के घर में कौन सी टीवी कौन सा फ्रीज आया है। इन्हें भी वहीं चाहिए। आप भले ही दिन रात चूले में जल कर काम क्यों करे। उनसे उनको कोई मतलब नहीं, उनका तो बस फरमाईस पूरा होना चाहिए। नहीं तो बात-बात पर मायके जाने को तैयार हो जाती है। दरअसल वह चाहती है। की जब वह मायके जाने की बात अपने पति के सामने करेगी तो उसका पति उसे रोकने का हर तरीब अपनाएगा, और मनाएगा।
पर अफसोस आज के पति अपने पत्नियों से ऐसा कोई हमदर्दी नहीं रखना चाहते अगर पत्नि कहती हैकी मैं मायके चली जाउगी तो पति कहता है। तुम कब जा रही हो अभी रिजर्वेशन करा दूं। ताकि मैं चैन से जी पाऊ।