Tuesday 13 January 2015

विद्यानिवास मिश्र भारतीय मनीषा के प्रतिनिधि चिंतको में से हैं। भारतीय परंपरा, सनातन जीवन मूल्यों को लेकर आग्रह अंत तक बना रहा। क्योंकि वह ऋग्वैदिक ऋषियों से लेकर कबीर, तुलसी, रैदास और भक्तिकाल के संतों-कवियों के चिंतन से प्रेरणा लेकर परंपरा और भारतीयता को बांचाते थे। हिन्दू धर्म को लेकर वह न तो सुरक्षात्मक बुद्धिजीवी थे और न ही उनका सनातन की खोज पर भरोसा कम हुआ ! '' प्रभुजी, तुम चंदन हम पानी '' जैसी थी उनकी विनम्रता। विद्यानिवास मिश्र हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार, सफल सम्पादक, संस्कृत-हिंदी के प्रकांड विद्वान और जाने-माने भाषाविद थे। उनका कहना था कि भारतीय परंपरा जड़ नहीं है कि उस पर बाते ही न की जाय। हिन्दी साहित्य को अपने ललित और व्यक्तिव्यंजक निबंधों और लोक जीवन की सुगंध से सुवासित करने वाले विद्यानिवास मिश्र ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने आधुनिक विचारों को पारंपरिक सोच में खपाया था। बर्तोल्त ब्रेष्ट उनके प्रिय कवियों में से थे। उत्तर आधुनिकता जैसी चिंतन पद्धति ''चोटी के पंडित'' विद्यानिवास जी लिए सहज थी। वह ऐसे संस्कृत विद्वान थे जो एक साथ हिंदी, अंग्रेजी, भाषा विज्ञान, दर्शन, कविता, विचार, वेद-पुराण में भी सिद्धहस्त थे।\

वह ऐसे बुजुर्ग थे जिन्हें अपनी परम्परा, विश्वासों और आस्थाओं के प्रति अटूट निष्ठा थी, जिसे वह आजीवन निभाते रहे। धोती-कुर्ता और माथे पर चन्दन उनकी पहचान थी, जो देश हो या विदेश कभी नहीं मिटी। विद्यानिवास मिश्र संपूर्ण विश्व को जीवन को जोड़कर देखने वाले भारतीय विचारक थे। पंडित जी के लिए 'मानुष सत्य' ही सर्वोपरि रहा, इसीलिये उनकी मूल चिंता 'विश्व मन की बेचैनी' को लेकर थी। उन्होंने कहना था मनुष्य ही सबकुछ है। मनुष्य की चिंता करनी चाहिए। मनुष्य है तो सब-कुछ है। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद हिन्दी साहित्य के सर्जक विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य की ललित निबंध की विधा को नए आयाम दिए। विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंधों में जीवन दर्शन संस्कृत और प्रकृति के अनुपम सौंदर्य का तालमेल मिलता है। इस सबके बीच वसंत ऋतु का वर्णन उनके ललित निबंधों को और अधिक रसमय बना देता है। ललित निबंधों के माध्यम से साहित्य को अपना योगदान देने वाले विद्यानिवास मिश्र हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार थे। जो हिन्दी की प्रतिष्ठा हेतु सदैव संघर्षरत रहे।

विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्धों की शुरुआत सन 1956 से होती है। परन्तु उनका पहला निबंध संग्रह 1976 में चितवन की छांह प्रकाश में आया। उन्होंने हिन्‍दी जगत को ललित निबन्‍ध परम्‍परा से अवगत कराया। 'तुम चन्‍दन हम पानी' शीर्षक से जो निबन्‍ध प्रकाशित हुए, उनमें संस्‍कृत साहित्‍य के सन्‍दर्भ का प्रयोग अधिक हो गया और पाण्‍डित्‍य प्रदर्शन की प्रवृत्ति के कारण लालित्‍य दब गया, जो उनकी पहली दो रचनाओं में मिलता था। तीसरे निबन्‍ध संग्रह आंगन का पंछी और बनजार मन' में परिवर्तन आया। लोक संस्कृकि और लोक मानस उनके ललित  निबंधों के अभिन्न अंग थे, उस पर भी पौराणिक कथाओं और उपदेशों की फुहार उनके ललित निबंधों को और अधिक प्रवाहमय बना देते थे। उनके प्रमुख ललित निबंध संग्रह हैं- 'राधा माधव रंग रंगी', 'मेरे राम का मुकुट भीग रहा है', 'शैफाली झर रही है', 'छितवन की छांह', 'बंजारा मन', 'तुम चंदन हम पानी', 'महाभारत का काव्यार्थ', 'भ्रमरानंद के पत्र', 'वसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं' और 'साहित्य का खुला आकाश' आदि उनकी प्रसिद्ध कृतियां है। एक स्पेनिश दार्शनिक के साथ उनके संवाद की पुस्तक स्पेनिश में प्रकाशित है जिसमें उन्होंने भारतीयता , परंपरा, सौंदर्यबोध को लेकर विचार हैं।


उन्होंने अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय में भी अध्यापन किया तथा वर्ष 1967-68 में वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अध्येता रहे थे। मध्यप्रदेश में सूचना विभाग में कार्यरत रहने के बाद वे अध्यापन के क्षेत्र में आ गए। वे 1968 से 1977 तक वाराणसी के संस्कृत विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे। कुछ वर्ष बाद वे इसी विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। काशी विद्यापीठ के भी वह कुलपति रहे। नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक पद पर भी आसीन रहे। उनकी उपलब्धियों की लंबी श्रृंखला है। भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से भी विभूषित किया। इसके अतिरिक्त देश-विदेश के अनेक पुरस्कार-सम्मान उन्हें मिले। पर, पंडितजी के लिए इन उपलब्धियों से कहीं अधिक उनकी भारत, सनातन जीवन मूल्यके प्रति घोर विश्वास से सिक्त चिंतन है।उनका चिंतन और ज्ञान -परंपरा हमारे लिए आलोक स्तम्भ है। 
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