Monday 10 April 2017

यादें रोई, सपने रोये, या दिल रोया पता नही!! कल रात सिसकीयां सुनाई दे रही थी सीने में, धडकन की तरह....अब सोचता हूं यादों पर भी कोई शरहद होती तो कितना अच्छा होता कम से कम खबर तो होती कि सफ़र कितना तय करना है। तुम जानते हो सारा दिन गुजर रहा था खुद को समेटने में....फिर तेरी यादों की हवा चली और हर दिन के तरह हम फिर से बिखर गये.... जब भी मैं इस शहर से निकलना चाहता हूं कोई न कोई रास्ता लौटा लाता है। मैं तुम्हें हर लैंप पोस्ट पर खड़ा पाता हूं। हर बस से लेकर मेट्रो की सीट पर तुम्हीं बैठे लगती हो। तुम जानती हो वक्त मेरी तबाही पर हंसता है। अब मैं वक़्त की दहलीज़ पे ठहरा हुआ पल सा हो गया हूं। लोग कहते है वक़्त और हालात दोनो ही बदल जाते हैं मंज़िलें रह जाती हैं, और लोग बिछड़ जाते हैं....बड़ा ही मिठा नशा है तेरी यादों का.... वक़्त गुजरता जा रहा है और हम आदी होते जा रहे है।


कभी चांद को देखा है तुमने? कभी चांद को पूजा है? चांद अपने चाहने वालों को कितना परेशान करता है... कितना सताता है... ठीक तुम भी वैसे ही हो गई हो। जब चकोर चांद को हसरत भरी नज़रों से देखता है, तो चांद बादलों के पीछे छुप जाता है। जब चांद को देखकर व्रत खोलना होता है... तो चांद देर से निकलता है। जब चांद को देखकर ईद मनानी होती है... तो चांद जानबूझ कर इतराता है। चांद को पाना किसी के बस की बात नहीं.. फिर भी चांद को चाहने वालों की चाहत कम नहीं होती.... तुम भी उसी चांद की तरह हो.. और मैं उसी चांद को पूजता हूं... लाख चाह कर भी मैं उस चांद को छू नहीं सकता... बस चांद की चांदनी को देख सकता हूं... महसूस कर सकता हूं, पर अपना नहीं बना सकता... क्योंकि सुबह होते ही यह चांद मेरा साथ छोड़ देता है तुम्हारे तरह। तुम नदी के पानी में चांद की परछाई सी हो जिसे मैं देख तो सकता हूं, पर छू नहीं सकता। अगर मैं पानी में चांद को छूने भी गया तो चांद की जो अक्स अभी दिख रहा है... वह भी नहीं दिखेगा... लहरो के साथ वह भी घूल जाएगा और मेरे डूबने के आसार बढ़ जाएंगे। इसलिए मैं चांद को सपने में भी छूने की कोशिश नहीं करता।


तुम जानती हो उस चांद को बस तकना ही मेरी फितरत हो गई है। कोई रास्ता भी नहीं है, दुआओं के अलावे और कोई सुनता भी तो नहीं यहां... खुदा के सिवा... अब मुझे उल्फत की जंजीरों से डर लगता हैं, जो जुदा करते हैं, किसी को किसी से, उस हाथ की लकीरों से भी डर लगने लगा है। कभी-कभी जी चाहता है कि हाथ के सारे लकीरों को मैं मिटा दूं पर नहीं मिटाता मैं सोचता हूं कि इसी लकीरों के बीच कही वह लकीर भी छुपी हो जिसमें लिखा हो तुम वापस लौट आओंगी...पर मैं यह जानता हूं कि यह मात्र एक भ्रम भर है पर मैं इस भ्रम में जीना चाहता हूं जो कम से कम मुझे झुठा दिलासा तो दिलाता है तुम्हारे वापस आने का.... जिससे मैं बेवफाई की तपिश से बच कर इश्क की घटाओं में बैठ तो जाता हूं, मैं जब भी उदासी से घबराने लगता हूं तेरे ख़याल की छांव में बैठ जाता हूं। मैं तुम्हारे लिए अजनबी हो सकता हूं। मैं तुम्हारे लिए अब खुशियों से ज्यादा गम की परछाई हो सकता हूं। मुझे नहीं पता बुरा मैं हो गया हूं या बुरा वक्त हो गया है।


तुम जानती हो अब हर आहट पर तेरी ही तलाश रहती है मुझे... मुस्कान तो आती है होटो पर तुम्हें याद करते वक्त...लब तक थरथरा जाते हैं। तुम्हारे जाने के बाद छोड़ दिया है मैंने अपने दिल का साथ और थाम लिया है तन्हाई का हाथ तुम ही बताओं इस तन्हाई से हाथ न मिलाता तो क्या करता। कोई मिलता भी तो नहीं हमसे यहां हमारा बनकर.... मैं तुम्हारी यादों को किसी कोने में छुपा नहीं सकता, तुम्हारे चेहरे की चहक चाहकर भी भुला नहीं पाता हूं। नसीब की खेल भी कितना अजीब होता है न, जो नहीं होता है नसीब में लोग उसी को टूट कर चाहते है। अब तूम जो नहीं हो तो बिन तेरे शामें उदास रहती है मेरे, ढूंढें तुझे कहां-कहां आंखें....तुम जानती हो अब बस इक चांद ही नहीं है जो पूछे तेरा पता, जी चाहता है तुम्हारी हर यादों को सिमेट लू जो भी मिलता है उसे किनारा बनकर इन आखों में छिपा लू हर ख्वाब टूट के बिखरा कांच की तरह, बस एक इंतज़ार है तुम्हारा साथ सहारा बनकर चलने का......

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