Monday 27 April 2015

Posted by Gautam singh Posted on 01:16 | No comments

किसने क्या खोया ?

वर्षो से हम लोग किताबों में पढ़ते आ रहे है भारत एक कृषि प्रधान देश है ! यह किसानों का देश है ! इस देश के किसान भारत की जान हैं, और किसानों से ही भारत महान है। यह सिर्फ कहने को रह गया है। यहां पर ही किसान मरता रहा तालियां बजती रही, किसान रोता रहा नेताएं चिल्लाते रहे, किसान कहता रहा नेता भाषण देते रहें, पुलिस देखता रहा, जनता हंसते रहे, मीडिया टीआरपी बटोरती रही, पार्टियों लड़ती रही आखिर इल लोगों ने क्या खोया ? आम आदमी पार्टी ने क्या खोया ?, बीजेपी ने क्या खोया कांग्रेस ने क्या खोया ? मीडिया ने क्या खोया ?, खोया तो राजस्थान के दौसा में गजेंद्र के परिवार ने मां-बाप ने बेटा खोया, पत्नी ने पति खोया बहन ने भाई खोया, बच्चों ने पिता खोया।
पर इस भारत महान में राजनेता इस तरह के मुद्दों पर भी सियासी रोटी सेकना नहीं भूलते किसान गजेंद्र अब इस दुनियां में नहीं है। लेकिन पिछले तीन दिनों से जिस प्रकार से राजनीति और मीडिया में हाय-तोबा हो रहीं है। उससे क्या किसान गजेंद्र वापस आ जायेंगे या किसान आत्महत्या करना बंद कर देगें। अथवा उनका माली हालात बदल जाएगें ? कहते है किसान वह व्यक्ति है जो खेती का काम करता है। अपनी मेहनत के बीज डाल कर अपने पसीने से सीच कर फसल पैदा करता है तब जाकर आम जनता को भोजन मिल पाता है। शायद इस लिए उसे देश का अन्नदाता भी कहा जाता है। लेकिन पिछले दो दशक से इसी देश में लगभग तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके है। इन 68 वर्षो में न जाने कितने सरकारें बदली, पार्टिंयां बदली पर देश के किसान के हालात नहीं बदले। आए दिन किसानों के आत्महत्या की खबरें आ रही है। यह सिलसिला कब रूकेगा ? कहां रूकेगा ? या यूं ही हमारे देश का किसान मरता रहेगा ? किसी को नहीं पता।


आज भी हमारे देश के किसान अन्य विकसित देशों की अपेक्षा बहुत पिछड़े हैं, चाहे आर्थिक स्थिति के मामले में हो या तकनीक के मामले में। इस पिछड़ापन का क्या कारण है? आखिर इसमें देश की सरकार की क्या भूमिका हो सकती है? कृषि कार्य में आज भी भारतीय ग्रामीण जनता का सर्वाधिक बड़ा हिस्सा कार्यरत है, फिर भी सरकार उस वर्ग की उपेक्षा क्यों नहीं कर रही है? क्या देश के विकास में सिर्फ वही क्षेत्र आते हैं जो आर्थिक रूप से अधिक सहयोगी हैं। ऐसे अनेक सवाल हैं जो किसानों की समस्याओं से जुड़े हैं। आज ज़माना बदल गया है ! स्वार्थ सबके सर चढ़ कर बोल रहा है ! सब चीज़ें पैसे के तराज़ू पर तोली जाती हैं ! राजनीति ने इसे चर्म पर पंहुचा दिया है ! शायद यही कारण है कि पिछले 68 सालों में कृषि के लिए न जाने कितने स्किम आये पर वो किसानों तक पहुंचने से पहले ही निजी स्वार्थ के हिस्से जड़ गए, और हमारें किसान 21वीं शदीं में रहते हुए भी आत्महत्या करने पर आज भी विवश है। 

Monday 6 April 2015

मैदान सज चुकी है खिलाड़ी दिखने और बिकने को तैयार है। ठीक उसी तरह जैसे सोनपुर के मेले में घोड़े बिकते हों लाल घोड़ा, काला घोड़ा, सफेद घोड़ा सब एक से बड़कर एक ! व्यपारी बोली लगाने को तैयार ठीक वैसे ही आईपीएल का रन सज चुका है यहां भी घोड़े की तरह देशी और विदेशी खिलाड़ी बिक चुके है। महेंद्र सिंह धोना, विराट कोहली, मैक्सवेल, युवराज सिंह, दिनेश कार्तिक और न जाने कौन कौन सब अपना खेल दिखाने को तैयार है। ठीक वैसे ही जैसे कोई मदारी अपने बंदर को बोलते ही वह अपना करतब दिखाना शुरू कर देता। वैसे ही यहां भी सभी खिलाड़ी अपने-अपने खेल की नुमाईस के लिए तैयार है।
आईपीएल आठ यानी 'इंडियन पैसा लीग' की आगाज आठ अप्रेल से हो रहा है। इसके जादू से एक बार फिर क्रिकेट प्रेमी काम-काज नौकरी-धंधा पढ़ाई-लिखाई यहाँ तक कि खाना-पीना और शरीर की दूसरी अति महत्वपूर्ण जैविक क्रियाओं पर भी जबरिया रोक लगा कर बस 'इंडियन पैसा लीग' के झंपिंग झपांग झंपक-झंपक, ढंपिंग-ढपांग में मशगूल हो जाएंगे। मनोरंजन के नाम पर बड़े-बड़े डीजे और हर चैके-छक्के पर छोटे छोटे कपड़ों में नाचते तथा अपनी टीमों का हौसलाफ्जाई करती चीयरलीडर्स और पागलों के तरह हल्ला करते क्रिकेट प्रेमी अजीब पागलपंथी देखने को मिलेगा।

वैसे तो आईपीएल (इंडियन पैसा लीग) के साथ विवादों का सुरू से ही चोलि दामन का नाता रहा है। आईपीएल के सीजन 6 में स्पॉट फिक्सिंग में तीन खिलाडि़यों की गिरफ्तारी के बाद ये मांग उठने लगा था कि क्या आईपीएल को बंद कर दिया जाना चाहिए ? इससे पहले के संस्करण में भी अनेक विवाद आईपीएल की झोली में आए, जिसमें खिलाड़ियों द्वारा स्टेडियम में नशीले पदार्थ का उपयोग करने से लेकर चियर्स गर्ल का अशलील नांच और मैच के बाद होने वाली रेव पार्टी काफी जयादा सुर्खीयों में रही है। देश के एक अरब लोगों का मनोरंजन करने वाले क्रिकेटर इस तरह मुंह काला कर घूमेने के बावजूद भी आईपीएल के प्रति लोगों का जुनून साल दर साल कमने के वजाय और बढ़ता ही जा रहा है।

एक जमाना था क्रिकेट जेंटलमेन गेम हुआ करता था, खिलाड़ी एक दूसरे का सम्मान किया करते थे। मैदान में सिर्फ हाउजदैट की आवाज भर सुनाई देतीं थी, और दर्शक चिन्तनकारों की तरह गैलरियों में बैठकर चैके-छक्के पड़ने पर इस तरह होले-होले तालियाँ बजा दिया करते थे। जैसे खिलाड़ियों पर एहसान कर रहे हों। खिलाड़ी घूमते-फिरते, खाते-पीते, टहलते हुए पाँच दिन का टेस्ट मैच निबटा लिया करते थे। मगर अब खेल के मायने बदल गये है। खेल के नाम पर झंपिंग झपांग ढंपिंग ढपांग का जमाना है। आजकल सीख दी जा रही है कि शराफत छोड़ो, कपड़े फाड़ कर पागलपन पर उतर आओ। घर-बार, नौकरी-चाकरी, स्कूल-कॉलेज, पढ़ाई-लिखाई छोड़कर मेंटलमैन बन जाओ। लिहाजा मैच में आठ-दस पागल किस्म की चीयरगर्ल्‍स का झुंड बिना थके नाच-नाचकर खिलाड़ियों व दर्शकों का मनोबल बढ़ाएगा, और उधर घर में बैठकर टी.वी में घुसे पड़े तमाम लोग अपनी झंपक-झंपक से अड़ौसियों-पड़ौसियों के जीना हराम करेंगे। 

Friday 3 April 2015

हरियाणा के बहुचर्चित और विवादास्पद आईएएस अशोक खेमका एक ऐसे अकेले अधिकारी नहीं है, जो अपने ईमानदारी के लिए सुर्खियों में आए हो और जिन्हें अपनी ईमानदारी की कीमत चुकानी पड़ रही हो। इस क्रम में संजीव चतुर्वेदी, प्रदीप कासनी जैसे कई और भी अधिकारी है जिन्हें सरकारे बोझ की तरह मानती है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण हरियाणा के खट्टर सरकार ने पेस किया कभी सोनिया गांधी के दमाद रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के जमीन सौदे पर सवाल उठाने की वजह से ही अशोक खेमका को, पिछली हुड्डा सरकार ने पुरातत्व और संग्रालय जैसे कम महत्व वाले विभाग में भेज दिया था। हैरत की बात यह है कि कभी इसी मुद्दे को लेकर हुड्डा सरकार को घेरने वाली बीजेपी आज खुद अशोक खेमका जैसे अधिकारी को फिर से पुरातत्व और संग्रालय जैसे कम महत्व वाले विभाग में भेज रही है। 


पुरातत्व जैसे विषय में नेताओं की भी कोई खास दिलचस्पी नहीं होती, क्योंकि उससे न तो वोट, न ही धन जुड़ा है। वहीं परिवहन विभाग प्रभावशाली विभाग माना जाता है, क्योंकि उससे सीधे जनता प्रभावित होती है। परिवहन विभाग अमूमन सबसे ज्यादा भ्रष्ट विभागों में से एक होता है, क्योंकि व्यावसायिक परिवहन में तमाम लाइसेंस, परमिट का कारोबार होता है। खेमका ने परिवहन विभाग में आयुक्त और सचिव रहते हुए अवैध ट्रको और ट्रेलरो के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी और ओवरसाइज वाहनों को फिटनेस सर्टिफिकेट देने से इन्कार कर बड़ी ट्रांसपोर्ट लॉबी को नाराज कर दिया था।

अशोक खेमका को नौकरी में 22 वर्ष हो गए और उनके तबादलों का अर्धशतक करीब ही है। यानी हर साल औसतन उनका दो बार तबादला हुआ। जिससे समझा जा सकता है कि सूबे की सरकारों के साथ उनके रिश्ते कैसे रहे हैं। उल्लेखनीय यह है कि उनके खिलाफ कभी भी किसी तरह की गड़बड़ी नहीं पाई गई है, बल्कि उन्होंने नियमों और कायदों को लेकर रसूखदार लोगों से टकराने में कभी हिचक नहीं दिखाई।

जब हरियाणा में कांग्रेस सरकार थी, तब खेमका भाजपा के प्रिय थे, क्योंकि वह रॉबर्ट वाड्रा के कारोबार की गड़बड़ियों को उजागर कर रहे थे। तब कांग्रेस सरकार ने उन्हें प्रताड़ित करने की भरपूर कोशिश की। मगर पिछले दिनों आई सीएजी की रिपोर्ट से यह जाहिर हुआ कि खेमका ने जो आपत्तियां उठाई थीं, वे जायज थीं। हमारे देश में राजनीति व प्रशासन में नियमों के विरुद्ध लोगों को उपकृत करना ही नियम बन गया है, नियमों का पालन करना अपवाद है।


साफ है, परिवहन जैसे विभाग की सफाई कोई एक अफसर नहीं कर सकता, भले ही वह विभाग का सचिव हो। उसे राजनीतिक समर्थन की भी जरूरत गीयह अच्छा है कि हरियाणा सरकार में ही खेमका को समर्थन भी मिल रहा है। वरिष्ठ मंत्री अनिल विज ने उन्हें हटाए जाने का विरोध किया है। वहीं सीएम खट्टर इसे रुटींग तबादला बता रहें हो लेकिन आम जनता सच्चे और ईमानदार लोगों को चाहती है, यह बार-बार साबित हो चुका है। ऐसे में हमारे सत्ताधीशों और आम जनता के बीच इतना बड़ा फर्क क्यों है कि वे ईमानदार सरकारी कर्मचारी को पुरातत्व के लायक ही समझते हैं।