वर्षो से हम लोग किताबों में पढ़ते आ रहे है भारत एक कृषि प्रधान देश है ! यह किसानों का देश है ! इस देश के किसान भारत की जान हैं, और किसानों से ही भारत महान है। यह सिर्फ कहने को रह गया है। यहां पर ही किसान मरता रहा तालियां बजती रही, किसान रोता रहा नेताएं चिल्लाते रहे, किसान कहता रहा नेता भाषण देते रहें, पुलिस देखता रहा, जनता हंसते रहे, मीडिया टीआरपी बटोरती रही, पार्टियों लड़ती रही आखिर इल लोगों ने क्या खोया ? आम आदमी पार्टी ने क्या खोया ?, बीजेपी ने क्या खोया कांग्रेस ने क्या खोया ? मीडिया ने क्या खोया ?, खोया तो राजस्थान के दौसा में गजेंद्र के परिवार ने मां-बाप ने बेटा खोया, पत्नी ने पति खोया बहन ने भाई खोया, बच्चों ने पिता खोया।
पर इस भारत महान में राजनेता इस तरह के मुद्दों पर भी सियासी रोटी सेकना नहीं भूलते किसान गजेंद्र अब इस दुनियां में नहीं है। लेकिन पिछले तीन दिनों से जिस प्रकार से राजनीति और मीडिया में हाय-तोबा हो रहीं है। उससे क्या किसान गजेंद्र वापस आ जायेंगे या किसान आत्महत्या करना बंद कर देगें। अथवा उनका माली हालात बदल जाएगें ? कहते है किसान वह व्यक्ति है जो खेती का काम करता है। अपनी मेहनत के बीज डाल कर अपने पसीने से सीच कर फसल पैदा करता है तब जाकर आम जनता को भोजन मिल पाता है। शायद इस लिए उसे देश का अन्नदाता भी कहा जाता है। लेकिन पिछले दो दशक से इसी देश में लगभग तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके है। इन 68 वर्षो में न जाने कितने सरकारें बदली, पार्टिंयां बदली पर देश के किसान के हालात नहीं बदले। आए दिन किसानों के आत्महत्या की खबरें आ रही है। यह सिलसिला कब रूकेगा ? कहां रूकेगा ? या यूं ही हमारे देश का किसान मरता रहेगा ? किसी को नहीं पता।
आज भी हमारे देश के किसान अन्य विकसित देशों की अपेक्षा बहुत पिछड़े हैं, चाहे आर्थिक स्थिति के मामले में हो या तकनीक के मामले में। इस पिछड़ापन का क्या कारण है? आखिर इसमें देश की सरकार की क्या भूमिका हो सकती है? कृषि कार्य में आज भी भारतीय ग्रामीण जनता का सर्वाधिक बड़ा हिस्सा कार्यरत है, फिर भी सरकार उस वर्ग की उपेक्षा क्यों नहीं कर रही है? क्या देश के विकास में सिर्फ वही क्षेत्र आते हैं जो आर्थिक रूप से अधिक सहयोगी हैं। ऐसे अनेक सवाल हैं जो किसानों की समस्याओं से जुड़े हैं। आज ज़माना बदल गया है ! स्वार्थ सबके सर चढ़ कर बोल रहा है ! सब चीज़ें पैसे के तराज़ू पर तोली जाती हैं ! राजनीति ने इसे चर्म पर पंहुचा दिया है ! शायद यही कारण है कि पिछले 68 सालों में कृषि के लिए न जाने कितने स्किम आये पर वो किसानों तक पहुंचने से पहले ही निजी स्वार्थ के हिस्से जड़ गए, और हमारें किसान 21वीं शदीं में रहते हुए भी आत्महत्या करने पर आज भी विवश है।
पर इस भारत महान में राजनेता इस तरह के मुद्दों पर भी सियासी रोटी सेकना नहीं भूलते किसान गजेंद्र अब इस दुनियां में नहीं है। लेकिन पिछले तीन दिनों से जिस प्रकार से राजनीति और मीडिया में हाय-तोबा हो रहीं है। उससे क्या किसान गजेंद्र वापस आ जायेंगे या किसान आत्महत्या करना बंद कर देगें। अथवा उनका माली हालात बदल जाएगें ? कहते है किसान वह व्यक्ति है जो खेती का काम करता है। अपनी मेहनत के बीज डाल कर अपने पसीने से सीच कर फसल पैदा करता है तब जाकर आम जनता को भोजन मिल पाता है। शायद इस लिए उसे देश का अन्नदाता भी कहा जाता है। लेकिन पिछले दो दशक से इसी देश में लगभग तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके है। इन 68 वर्षो में न जाने कितने सरकारें बदली, पार्टिंयां बदली पर देश के किसान के हालात नहीं बदले। आए दिन किसानों के आत्महत्या की खबरें आ रही है। यह सिलसिला कब रूकेगा ? कहां रूकेगा ? या यूं ही हमारे देश का किसान मरता रहेगा ? किसी को नहीं पता।
आज भी हमारे देश के किसान अन्य विकसित देशों की अपेक्षा बहुत पिछड़े हैं, चाहे आर्थिक स्थिति के मामले में हो या तकनीक के मामले में। इस पिछड़ापन का क्या कारण है? आखिर इसमें देश की सरकार की क्या भूमिका हो सकती है? कृषि कार्य में आज भी भारतीय ग्रामीण जनता का सर्वाधिक बड़ा हिस्सा कार्यरत है, फिर भी सरकार उस वर्ग की उपेक्षा क्यों नहीं कर रही है? क्या देश के विकास में सिर्फ वही क्षेत्र आते हैं जो आर्थिक रूप से अधिक सहयोगी हैं। ऐसे अनेक सवाल हैं जो किसानों की समस्याओं से जुड़े हैं। आज ज़माना बदल गया है ! स्वार्थ सबके सर चढ़ कर बोल रहा है ! सब चीज़ें पैसे के तराज़ू पर तोली जाती हैं ! राजनीति ने इसे चर्म पर पंहुचा दिया है ! शायद यही कारण है कि पिछले 68 सालों में कृषि के लिए न जाने कितने स्किम आये पर वो किसानों तक पहुंचने से पहले ही निजी स्वार्थ के हिस्से जड़ गए, और हमारें किसान 21वीं शदीं में रहते हुए भी आत्महत्या करने पर आज भी विवश है।