Saturday 12 September 2015

मैं हिंदी हूं। स्तब्ध हूं। इसी देश की हूं। बहुत दुखी हूं। समझ नहीं आ रहा क्या करूं? क्योंकि समय आ चला है रस्मी सरकारी याद करने का वह दिन, एक और हिन्दी दिवस मनाने का सितंबर महीने शुरू होते ही लोग अक्सर यह पूछते मिल जाते है कि हिंदी आगे कैसे बढ़े, और आज ही के दिन हिंदी के नाम पर कई सारे पाखंड होंगे। कई पुरस्कारों का ऐलान भी होंगा। अलग-अलग जगहों पर हिन्दी की दुर्दशा पर विभिन्न प्रकार के सम्मेलन भी किए जाएंगे।

पर समझ नहीं आता कहां से शुरू करू? कैसे शुरू करूं मैं हिंदी हूं जिसकी पहचान इस देश के कण-कण से है।इसकी माटी से है। इसकी सुगंध से है। पर आज अपने ही आंगन में बेज्जत कर दी जाती हूं। मन दुखता है कि मैं इसी देश की हूं। फिर मुझे क्यों ऐसे उखाड़ फेक दिया जा रहा है। मैं अपनों में ही क्यों बेज्जत हो रही हूं। मुझे आज क्यों बताना पड़ रहा है कि मैं भारत के संविधान के अनुच्छेद-343 में लिखित हूं जहां मुझे राजभाषा का दर्जा प्राप्ता है। मैं भारत के 70 फीसदी गांवों के गलियों में महकती हूं। भारतीय सिनेमा से लेकर टीवी सीरियल तक मैं ही तो हूं फिर भी मुझे डर लगता है अपनों से अपने बच्चों से जो मुझे ही भुलने लगे है। मुझे नहीं पता की मैं अपने ही घर में कब से इतना बेज्जत हो रही हूं। लोग मुझे गवार समझनें लगे है।


लोगों को लगता है कि मुझसे दोस्ती गवारों की पहचान है, जो लोग कल तक मुझसे दोस्ती कर के फुले नहीं समाते थे वह लोग आज मुझसे ही कन्नी काट रहे है। उन्हें लगता है कि मुझसे बात करने पर उनका समाज में रूतबे में कमी आ जीती है। आज मैं अपनों की बेवाफाई से ही तरस्त हूं। दम घुटने लगा है मेरा अपने ही देश में, कल तक जो मुझे गवार समझते थे। वह मुझे अब अपना रहें हैं। उन्हें अब मुझ में बहुत खुबियां नजर आती है। कल तक वो अपने चौखट पर आने नहीं देते थे, आज वह मुझे सीने से लगा रहे है, और अपने ही बच्चे मुझे घर से निकाल रहे है। विश्वास करो मेरा कि मैं दिखावे की भाषा नहीं हूं, मैं झगड़ों की भाषा भी नहीं हूं। मैंने अपने अस्तित्व से लेकर आज तक कितनी ही सखी भाषाओं को अपने आंचल से बांध कर हर दिन एक नया रूप धारण किया है। फिर भी क्यों तुम लोग मुझे उखाड़ फेकने पर तुले हो, यकीन मानो मेरे साथ तुम लोग महफूज हो मैं किसी को छती नहीं पहुंचाती मूझे भी जीनों दो क्यों मुझे उजाड़ने पर तुले हो। हमारे संविधान के अनुच्छेद-351 के अनुसार संघ का यह कर्तव्य है कि वह मुझे बढ़ाएं, लेकिन यह कैसी विडंबना है कि मेरे ही देश के बडे-बडे विश्वविद्यालय में मुझे नहीं पढ़ाया जाता है मैं अपने ही देश के विश्वविद्यालयों में मैं नोकरानी बन गई हूं और वह पटरानी यह सिलसिला पिछले सात दशकों से लगातार जारी है और न जाने कब तक जारी रहे। मेरा मन मथने लगा है अब एक तरफ जहां मैं दुनिया में सबसे ज्यादा चाहने वालों में दूसरे नंबर पर हूं, लेकिन अपने ही घर में बेगानों की तरह बर्ताव किया जा रहा है। आज लोग अपने बच्चों को मेरे पास भटकने भी नहीं देते है। मुझे कितना दुख होता है मैं किसे कहूं कोई मेरा सुनने वाला नहीं है।

अब आलम यह है कि मैं जहां सबसे ज्यादा पसंद की जाती थी वही के लोग मुझे देख मुह मोड़ने लगे है। लोग मुझसे ऐसे दुरी बनाने लगे है जैसे मैं कोई संक्रमक बीमारी हूं। लोग मुझे देख कर भागते है मैं चिखती हूं चिल्लती हूं, लेकिन मेरा यह चीख मेरा यह दर्द किसी के अंदर रहम का चिराग नहीं जलाता। मैं अपने जगह पर रेंगती हूं सिसकते रहती हूं पर कोई मेरा सुद लेने नहीं आता। मेरे अपने ही बच्चे मुझसे नफरत करने लगे है कभी साउथ के तो कभी महराष्ट्र के मुझसे इतना नफरत क्यो? मैं किसी को मारती नहीं, डराती नहीं, मैं किसी पर चिखती नहीं, चिल्लती नहीं फिर मुझे ही उखाडने पर क्यों लगे हो मैनें तो कईयों को अपने अंदर बसाया है चाहे वह फारसी, अरबी, उर्दू से लेकर 'आधुनिक बाला' अंग्रेजी तक को आत्मीयता से अपनाया है। बरसों से तुम लोगों का मनोरंजन कर रही हूं तुम्हें जिला रही हूं यकिन न आए तो फिल्म इंडस्ट्री वालों से पूछ कर देख लो क्या मेरे बिना उसका अस्तित्व रह सकेगा? यकीन मानों मुझे अपने घर में रहने दो मैं तुम लोगों को छती नहीं बल्की सीने से लगाउंगी और दुनिया में मैं भी अपना चमक दिखाउंगी। 

Friday 28 August 2015



सावन के रिमझिम मौसम के साथ ही भारत में त्योहारों की रंग-बिरंगी श्रृंखला आरंभ हो जाती है। श्रावण मास की पूर्णिमा को भाई-बहन के खूबसूरत रिश्ते की झलक देने वाला रक्षाबंधन का त्यौहार, हिन्दू धर्म के मुख्य पर्वों में से एक है। यह त्योहार रिश्तों की खूबसूरती को बनाए रखने का बहाना होता हैं। यू तो हर रिश्ते की महकती पहचान होती है, लेकिन भाई-बहन का रिश्ता भावभीना अहसास जगाता है। यह सुरक्षा और विश्वास के वादे का पर्व है। यह रेशमी रिश्ते की पवित्रता का प्रतीक है।

भाई और बहन का रिश्ता मिश्री की तरह मीठा और मखमल की तरह मुलायम होता है। इस रिश्ते में विविध उतार-चढ़ांव बहुत गहरे अहसास के साथ हमेशा ताजातरीन और जीवंत बना होता है मन की किसी कच्चे कोने में बचपन से लेकर जवानी तक की, स्कूल से लेकर बहन के विदा होने तक की, और एक दूजे से लड़ने से लेकर एक दूजे के लिए लड़ने तक की यादे परत दर परत रखी होती है। बीते हुए बचपन की झूमती हुई यादे भाई-बहन की आंखों के सामने नाचने लगती है। सचमुच रक्षाबंधन का त्योहार हर भाई को बहन के प्रति अपने कर्तव्य की याद दिलात है। रक्षाबंधन भाई बहन के प्यार का त्यौहार है भारत में यदि आज भी संवेदना, अनुभूति, अत्मीयता, आस्था और अनुराग बरकरार है तो इसकी पृष्ठभूमि में इन त्योहारों का बहुत बड़ा योगदान है। यह भाई बहन को स्नेह की डोर से बांधने वाला त्योहार है। रक्षाबंधन पर्व बहन द्वारा भाई की कलाई में राखी बांधने का त्यौहार भर नहीं है, यह एक कोख से उत्पन्न होने वाले भाई की मंगलकामना करते हुए बहन द्वारा रक्षा सूत्र बांधकर उसके सतत् स्नेह और प्यार की निर्बाध आकांक्षा भी है।

इतिहास के पन्नों को देखें तो इस त्योहार की शुरुआत 6 हजार साल पहले माना जाता है। इसके कई साक्ष्य भी इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। कहा जाता है कि कृष्ण भगवान ने जब राजा शिशुपाल को मारा था। युद्ध के दौरान कृष्ण के बाएं हाथ की उंगली से खून बह रहा था, इसे देखकर द्रोपदी बेहद दुखी हुईं और उन्होंने अपनी साड़ी का टुकड़ा चीरकर कृष्ण की उंगली में बांध दी, जिससे उनका खून बहना बंद हो गया। उस दिन सावन पूर्णिमा की तिथि थी। कहा जाता है तभी से कृष्ण ने द्रोपदी को अपनी बहन स्वीकार कर लिया था। वर्षों बाद जब पांडव द्रोपदी को जुए में हार गए थे और भरी सभा में उनका चीरहरण हो रहा था, तब कृष्ण ने द्रोपदी की लाज बचाई थी। भारतीय परम्परा में विश्वास का बन्धन ही मूल है और रक्षाबन्धन इसी विश्वास का बन्धन है। यह पर्व मात्र रक्षा-सूत्र के रूप में राखी बाँधकर रक्षा का वचन ही नहीं देता वरन् प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के जरिए हृदयों को बाँधने का भी वचन देता है।

Sunday 9 August 2015

आज से ठीक 70 साल पहले उस दिन कैलेण्डर पर तारिख थी छह अगस्त 1945 जापान के हिरोशिमा का आसमान साफ था। वहां के लोगों के लिए उस दिन की सुबह भी वैसे ही थी। जैसे रोज हुआ करता था। लोग अपने रोजमर्रा के कामों को निपटाने में लगे हुए थे किसी को इस बात की भनक तक न थी कि वो बस चंद पलों के ही मेहमान हैं, यह उनकी आखरी सुबह है। पर अभी इतिहास लिखा जाना बाकी था। ऐसा इतिहास जिसकी विभीषिका सुन कर लोगों के सालों-साल तक रोंगटे खड़े कर देने वाली हो। इसकी इबारत तो तैयार थी पर किसी को कानो-कान पता न था। अभी लोखों जान जानी बाकी थी अभी बाकी थी आग की लपटे, धुआं का बादल, गिरते-पड़ते बच्चे, बुड़े, अभी बाकी था मौत का भीशन तांडव, चिखते-चिल्लाते लोग, लाशों का ढ़ेर, खुन की नदीयां और शरीर के चित्थड़े जिसे देख कर उस भगवान की भी रुह कांप जाए जिसने हमें बनाया। जिसकी तैयारी अमेरिका के राष्ट्रपति ने बहुत ही गोपनिय अभियान के तहत किया। जापान पर परमाणु बम गिराए जाने की।

कैसे कोई भुल सकता है उस काले दिन को। उस विभीषिका को। वह दिन, वो महीना, वह साल इसके बाद ही तो हीरोशिमा विश्व के मान चित्र पर आया था। अगस्त का महिना अभी शुरू ही तो हुआ था। महीने की छटी रात कहलें या सुबह 2 बजकर 45 मिनट जब अमेरीकी वायुसेना के बमवर्षक बी-29 'एनोला गे' ने उड़ान भरी और दिशा थी पश्चिम की ओर, लक्ष्य था जापान के हिरोशिमा... बम का नाम था 'लिटिल बॉय' ठीक सुबह के सवा आठ बजे थे। जब 20 हज़ार टन टीएनटी क्षमता का 'एनोल गे' ने लिटिल बॉय को आसमान से गिराया बस चंद मिनटों में ही धुएं के बादल और फैलती हुई आग ने पुरे शहर को अपने चपेट में लिया, और हिरोशिमा में सब कुछ निर्जन और उजाड़-वीरान बना दिया। लोखों लोग उस दिन मारे गए और न जाने कितने उसके बाद भी कैंसर जैसे बिमारी के कारण तिल-तिल जान गवांते रहे। कई इस हाल में रहे जिसकी सांसे तो चल रही हैं लेकिन वे जीवित नहीं थे।

कैलेण्डर मैं एक बार फिर तारीख और लक्ष्य बदल महीना और साल वही था। इस बार तारीख थी 9 अगस्त लक्ष्य था नागासाकी आठ अगस्त की रात बीत चुकी थी, अमीरका के बमवर्षक बी-29 सुपरफोर्ट्रेस बॉक्स पर बम लद चुका था। भीमकाय बम का वजन था 4050 किलो। बम का नाम विंस्टन चर्चिल के संदर्भ में 'फैट मैन' रखा गया। घड़ी में समय था 11 बजकर 2 मिनट जब फैट मैन को नागासाकी पर गिराया गया। बम के गिरते ही आग की भीमकाय गोला तेजी से सारे शहर को निगल गया। आस पास के दायरे में मौजूद कोई भी व्यक्ति यह जान ही नहीं पाया कि आखिर हुआ क्या है क्योंकि वो इसका आभास होने से पहले ही मर चुके थे। देखते ही देखते जापान का दूसरा शहर भी तबाह हो चुका था। लाशों के ढ़ेर लग चुके थे जो लोग बच गए थे वो जान बचाने के लिए बदहवास लोशों के ऊपर से भाग रहे थे। यू तो इस हादसे को 70 बरस बीत गए, लेकिन 70 साल बीत जाने के बाद भी उस परमाणु हमले की विभीषिका आज भी रोंगटे खड़े कर देने वाली है।

Wednesday 5 August 2015

याकूब मेमन को फांसी मिल चुकी है। उसके फांसी के समर्थक और विरोधी दोनों खेमों को पता है कि याकूब मर चुका है और अब वह कभी लौट कर नहीं आएगा, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या फांसी से अपराध खत्म हो जाएगा? एक की फांसी आनेवाले किसी इंसान में अपराधी मानसिकता को पनपने से रोक देगी? इस बात का कोई सबूत नहीं है हमारे पास। तो ऐसे में क्यों न फांसी की नृशंसता और अमानवीतया के कारण पूरी तरह फांसी की प्रथा को ही फांसी दे दी जाए। क्योंकि फांसी अस्वाभाविक मौत है। इंसान के अंदर पूरे का पूरा जीवन और उस जीवन की भरी पूरी संभावनाएं होने के बावजूद फांसी एक मिनट में किसी की जिंदगी को बीती चीज बना देती है। तो ऐसे में फांसी को फांसी दे देने में क्या हर्ज है। जिस न्याय के तकाजे पर याकूब को फांसी पर लटकाया गया उस न्याय पर ही सवाल खड़े हो गए।


मुझे नहीं पता याकूब दोषी था या नहीं लेकिन अगर उसे देश के उच्चतम न्यायालय ने फांसी दिया तो सबूत कही न कही उसके खिलाफ रहा होगा। लेकिन  जिस तरीके से याकूब के फांसी के समर्थकों ने फांसी के विरोध में आए लोगों पर हमला किया उस से आहत होकर याकूब के वकिल आनंद ग्रोवर ने बेहद भावुकता में कहा कि अगर लोग यह उम्मीद करते हैं कि किसी वकील को किसी अपराधी या आतंकी ठहरा दिए गए व्यक्ति की पैरवी नहीं करनी चाहिए, तो फिर इसके लिए देश में तानाशाही चाहिए। उन्होंने कहा कि वह उम्मीद करते हैं कि जल्द ही या फिर भविष्य में कभी कोर्ट को अपनी भूल का एहसास होगा और वह उसे सुधारने की कोशिश करेगी। ऐसे में सवाल यह है कि कोर्ट कैसे अपने भूल को सुधार सकता है, क्योंकि मरा हुआ आदमी कभी जिंदा नहीं हो सकता अगर फांसी देना भुल है तो उस भुल को फिर कभी नहीं सुधारा जा सकता यह बात खुद ग्रोवर भी जानते है। कुछ तबकों का आरोप है कि याकूब के अपराध को भूलकर उसका समर्थन करने वाले मुसलमान नागरिक नहीं, मज़हबी है। ऐसे आरोप लगाते हुए वो भूल गए कि जो लोग याकूब का फांसी रुकवाने के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखे थे। या 29 जुलाई की आधी रात सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के घर गए थे वो भी हिंदु ही थे। इसमें कोई मुस्लिम नहीं था।


ऐसे में यहां सवाल विश्वास और अविश्वास का है। यहां सवाल मन के अंदर बैठी असुरक्षा का है। यहां सवाल लोकतंत्र के कानून व्यवस्था से एक विशेष वर्ग का भरोसा उठ जाने का है। अदालत को इसलिए भी सोचना चाहिए था कि विरोध की आवाजों में उसके अपने लोगों की आवाजें भी शामिल थी। सुप्रीम के रिटायर्ड जज जस्टिस बेदी ने लिखा था कि कोर्ट को रॉ अधिकारी बी. रमन की चिट्ठी को देखते हुए नए सीरे से फैसले को फिर से गढ़ना चाहिए। उस चिट्ठी के अनुसार भारत सरकार ने याकूब के साथ नरमी बरतने का वादा किया था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ जिस तरीके से फांसी को लेकर लगातर विरोध के स्वर उठ रहे है, ऐसे में क्यों न फांसी की सजा को ही खत्म कर दिया जाए। दुनिया के 130 देशों में फांसी की सजा तो खत्म हो ही चुका है तो क्यों न भारत में खत्म कर दे। पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने भी कहा ये कहां का न्याय है कि मौत के बदले मौत, भाजपा के युवा नेता वरुण गांधी ने फांसी के विरोध में तो यहां तक कह दिया की किसी सभ्य देश में जल्लाद का होना लज्जा की बात है। जब इतना सवाल फांसी को लेकर उठ रहे हैं तो फांसी को फांसी दे देने में क्या दिक्कत है। याकूब ने जांच पक्रिया में न केवल सहयोग किया बल्कि अपनी जान जोखिम में डालकर आईएसआई, टाइगर मेमन और दाऊद के खिलाफ कई अहम सबूत एजेंसियों को मुहैया कराए जो याकूब के पक्ष में जाता है। उसने अपने जिंदगी के 21 साल जेल के अंदर बिताए, कितना यकीन रहा होगा उसे देश के न्याय प्रक्रिया में देश के कानून पर? क्या सिर्फ उसका भरोसा टुटा? नहीं उसके साथ कइयों का भरोसा टूटा। भारत के कानून ने बताया कि एक इंसान की तरह वह भी यकीन रखता है। आंख के बदले आंख में...

Wednesday 8 July 2015

जित तरीके से व्यापमं घोटाले में एक के बाद एक 47 मौतें हुई है। जिसमें कुछ मौतें ज़हरीली शराब पी लेने से, कुछ मौतें दवा के रिएक्शन से, कुछ मौतें बीमारी से और कुछ मौतों की वजह का पता नहीं ये सब ऐसे लग रहा है जैसे कोई पढ़ने वाला जासूसी नावेल हो जिसमें कुछ पता नहीं चलता की आगे क्या होगा ? वैसे ही व्यापमं घोटाले में हो रहा है। व्यापमं अपने व्यापक रूप में आ कर खूनी तांडव मचा रहा है, और यह दिनों दिन आदमखोर होते जा रहा है। यह देखते ही देखते इससे जुड़े व्यक्तियों की सांसे रोक देता है। इसमें में जो भी हाथ डालता है वह वापस नहीं आता है। वह व्यापमं का शिकार हो जाता है।

आखिर कितना व्यापक है यह व्यापमं जिसने इतने लोगों को मौत के घाट उतार दिए। ऐसे में लोगों के सामने सवाल उठनी लाजमी है कि क्या केवल संयोगवश यह संभव है कि एक ही घोटाले से जुड़े इतने लोग असमय कुदरती मौत के शिकार हो जाएं ? चूंकि अभी तक किसी की हत्या होने का कोई प्रमाण नहीं है, ऐसे में इन मौतों को लेकर किसी पर अंगुली उठाना अनुचित होगा, लेकिन मध्यप्रदेश सरकार और भाजपा को इसके प्रति आगाह रहना होगा कि लोग धारणा बनाने के लिए ठोस सबूत का इंतजार नहीं करते। खासतौर पर जब व्यापक रूप से फैले घपले की पृष्ठभूमि में लोगों के मरने की सनसनीखेज घटनाएं सामने आने लगे, तो ज़ुबानी चर्चाएं जनमानस में सच की तरह बैठने लगती हैं। अब जितना इस मामले को दबाने की कोशिश होगी, उतना ही यह उभर कर आएगा। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों इसे राजनीतिक समस्या मानकर चल रही हैं, जबकि यह केस देश की सड़ती प्रशासनिक व्यवस्था और भ्रष्ट राजनीति की पोल खोल रहा है।

ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी है लेकिन इन सारे सवालों के बाद भी सरकार कुछ करने की जहमत नहीं उठा रही है। जिस तरह सन 2010 में टू-जी मामले ने यूपीए सरकार की अलोकप्रियता की बुनियाद डाली थी, लगभग उसी तरह मध्य प्रदेश का व्यापम घोटाला भारतीय जनता पार्टी के गले की हड्डी बनते जा रही है। इस घोटाले में व्यक्तिगत रूप से शिवराज सिंह चौहान भी घिरे हैं। सरकार और विपक्षी पार्टियों इस मुद्दे पर कुछ ठोस कदम उठाने के बजाय एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने में लगी है। क्योंकि उनको पता है। व्यापमं की ये लपटे न जाने किस-किस को अपने चपेटे में ले। इसकी लौ मध्यप्रदेश के मंत्रियों से होते हुए अब मुख्यमंत्री तक पहुंच चुकी है।

बेशक घोटाले की आँच भाजपा सरकार पर आएगी, पर इसमें कांग्रेस से जुड़े लोग भी शामिल होगें। व्यापम घोटाले ने शिक्षा, खासकर व्यावसायिक शिक्षा और प्रतियोगिता परीक्षाओं में गहरे तक बैठी बेईमानी का पर्दाफाश किया है। यह राष्ट्रीय प्रतिभा के साथ विश्वासघात है और खुल्लम-खुल्ला अंधेर है। ऐसे मामले केवल मध्य प्रदेश तक सीमित भी नहीं हैं। सत्ताधारियों का यह देश-व्यापी अंधेर है, और इसका जल्द से जल्द निपटारा होना चाहिए। ऐसे में क्या सरकार व्यापमं के व्यापक रूप को रोकने के लिए कोइ व्यापक रूख अपनाएंगी। या व्यापमं यू ही खूनी तांडव मचाते हुए और कितने लोगों को अपने आगोष में सुनाएगी। या इसके पीछे हो रहे तांडव का पर्दा फास करके सच्चाई से आम लोगों को रू-ब-रू करायेंगी ये आने वाले कुछ दिनों में पता चल पाएगा। 

Saturday 4 July 2015



आज ही के दिन 113 वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानंद जी का महा प्रयाण हुआ था। स्वामी जी भारतीय मनीषा के ऐसे प्रतिनिधी महा व्यक्तित्व है जो हम सभी के लिए ही नहीं पूरी मानवता के लिए प्रेरणा के स्त्रोत हैं। याद किजीए की 39 साल के जीवन में उन्होंने जो भारत वर्ष को दिया वह यूगों-यूगों तक धरोहर बना रहेगा। स्वामी जी ने कहा था ''यदि हम भगवान को हर इंसान और खुद में नहीं देख सकते तो हम उसे ढूंढ़ने कहां जा सकते हैं?'' स्वामी जी के ये विचार आज प्रसंभिक है। उनके बताए मार्ग पर चल कर विश्व अपाधापी और अशांती से मुक्ति पा सकती है। स्वामी विवेकानंद जी के विचारों का आज पहले से भी अधिक महत्व बढ़ चूका है। उनके द्वारा स्थापित सिद्धांतों और दर्शन का अनुकरण करके हम अपना और अपने राष्ट्र का परचम पूरी दुनिया पर फहरा सकते हैं।

वे केवल सन्त ही नहीं, एक महान देशभक्त, वक्ता, विचारक, लेखक और मानव-प्रेमी भी थे। उन्हें अपनी राष्ट्रीयता पर गर्व था। भारतीय संस्कृति एवं भारतीय धर्म के प्रति उनका गर्व एवं आदर शिकागों के धर्म संसद में उनके द्वारा दिए गए संभाषण से ज्ञात होता है जब उन्होंने कहा था "मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति दोनों की शिक्षा दी है... मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीडि़तों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है।" स्वामी विवेकानंद ने कहा था देश राष्ट्रीय जीवन रूपी जहाज है, अत: तुम्हारा यह कर्तव्य बनता है कि यदि इस जहाज में छेद हो गया हो तो उन्हें बंद करो। चूंकि तुम इसकी संतान हो, अत: इन छेदों को बंद करने में अपनी सारी शक्ति लगा दो। वह कहते हैं- आओ चलें, उन छेदों को बंद कर दें।

 उसके लिए हंसते-हंसते अपने ह्रदय का रक्त बहा दो और यदि हम ऐसा न कर सके तो हमारा मर जाना ही उचित है। राष्ट्र और संसार के कल्याण के लिए स्वामीजी ने ज्ञान की महत्ता पर भी बल दिया। उन्होंने युवकों को यह संदेश दिया कि संसार में ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करो, प्रकाश सिर्फ, प्रकाश लाओ। प्रत्येक व्यक्ति ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करे। जब तक सब लोग भगवान के निकट नहीं पहुंच जाएं तब तक तुम्हारा कार्य शेष नहीं हुआ है। मात्र 39 वर्ष के जीवनकाल में स्वामी जी ने अपने विचारों से युवाओं के मन मस्तिष्क पर ऐसी अमिट छाप छोड़ी कि उनके गुजरने के सौ वर्ष से अधिक समय बाद भी युवा पीढ़ी उनसे प्रेरणा लेती है। दुनिया में हिंदू धर्म और भारत की प्रतिष्ठा स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद एक आध्यात्मिक हस्ती होने के बावजूद अपने नवीन एवं जीवंत विचारों के कारण आज भी युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं, और आने वाले यूगों-यूगों तक प्रेरणास्रोत रहेगें।


Thursday 18 June 2015

राजनीति जिसका अर्थ है राज की नीति। नीति भी ऐसी जो सबका साथ, सबके विकास की न्याय राह पर चले। यानी न्याय के साथ विकास। यह कोई नरेंद्र मोदी या नीतीश कुमार के राजनीतिक नारों का प्रचार नहीं है। बल्कि "न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है।" राजधर्म भीष्म पितामह से अटल विहारी वाजपेई तक अपना असल अर्थ खोज रहा है। पितामह ने राजधर्म में निरंतर पूरुषार्थ और उसके जरिए जनकल्याण को राजा का पहला और महत्वपूर्ण कर्तव्य माना, और कहा कि राजा ऐसा हो जो प्रजा के हित में सोचे समझे। उनके लिए काम करे और समाज के हर वर्ग को प्रत्येक कार्यक्षेत्र में समान अवसर प्रदान करें, लेकिन आज राजनीति का स्वरूप बदलता जा रहा है। राजा से नेता बने सामाजिक कार्यकर्ता की नीति बदल गई है। और उनकी कार्यशैली बदल गई है। सब नेता अर्जुन बन गए हैं। जिनका एक ही लक्ष्य है मछली की आंख की जगह, सत्ता की कुर्सी हथियाना। किसी भी कीमत पर। साध्य को साधने के लिए साधन चाहे जो हो।

हम जो आज राजनीति देख रहे हैं। वह कायदे से राजनीति भी नहीं है, बल्कि "कुनीति" है! जिसमें ना देश का हित होता है, और ना ही जनहित। यहां बस लुट की प्रतिस्पर्धा होती है। यह पुरे भारत के संदर्भ में देखने को मिल जाता है। पर, सामाजिक और राजनीतिक रूप से सबसे संवेदनशील और जागरूक राज्य बिहार की बात करें तो चुनावी राजनीति की जनप्रयोग-शाला में आवाम पर आम और लीची भारी पड़ रहा है। जो कभी एक दूसरे को सुहाते नहीं थे आज गलबहियां डाले हुए हैं। राजनीति के इसी रूप को बिहार में देखा जा सकता है। जहां सुशासन बाबू को आवाम की चींता से ज्यादा आम की चिंता सता रही है। कभी बिहार का इतिहास ही भारत का इतिहास हुआ करता था। गौरवमयी इतिहास-परंपरा को देखे तो बिहार, जहां विश्व का सबसे पहला गणतंत्र ''लिच्छवी'' गंगा की इसी पवित्र ज़मीन पर सांस ले रहा था। तब शायद किसी ने गणतंत्र की कल्पना भी नहीं की होगी। वहीं अगर हम बात करें वैदिक काल की तो गंगा के उत्तरी किनारे पर बसा विदेह राज्य, जहां सीता का जन्म हुआ। महर्षि वाल्मिकि ने बिहार में रहकर ही रमायण की रचना की। महात्मा बुद्ध को बिहार में ही महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई, और वोद्ध धर्म का केंन्द्र भी बिहार को ही माना गया।

जैन धर्म के 24वें तीर्थकर भगवान महावीर का जन्म बिहार में ही हुआ। सिक्खों के 10वें गुरु, गुरु गोविंद सिंह भी पटना में ही पैदा हुए। भारतीय इतिहास के महानतम शासक सम्राट अशोक, सर्जरी के जन्मदाता महर्षि सुश्रुत, गणित का विशव को ज्ञान देने वाले आर्यभट्ट, राजनीति और कुटनीति का पाठ पढ़ाने वाले चाणक्य इसी बिहार की धरती पर उपजे, और जब देश गुलामी की जंजीरों से जकड़ा हुआ था। तो महात्मा गांधी ने देश को आजाद कराने के लिए चम्पारन सत्यग्रह और भारत छोड़ अंदोलन की शुरुआत इसी पवित्र धरती से की। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो स्वतंत्रता के बाद भी देश की राजनीति में बिहार की बहुत ही अहम भूमिका रही। इंदिरा गांधी की तानाशाही का सबसे पहला विरोध बिहार में ही हुआ। जय प्रकाश के नेतृत्व में, इंदिरा सरकार की कुनीतियों के खिलाफ एक बड़ा मोर्चा था, और यही कारण रहा की 1977 में इंदिरा विरोधी जनता पार्टी सत्ता में आई जो जेपी आंदोलन का ही सीधा असर था।

जब श्रीकृष्ण बाबू बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने तो उनके नेतृत्व में बिहार देश का सबसे व्यवस्थित राज्य बना, लेकिन धीरे-धीरे जाति आधारित राजनीति ने बिहार में अपनी जड़े जमानी शुरू कर दी। जिससे राज्य के हालात बिगड़ते गए। उसी का असर आज बिहार में देखने को मिल रहा है। जिस पुलिस बल को जनता की सेवा में तैनात किया जाता है। उन्हीं पुलिसवालों को आम और लीची के पेड़ों की सुरक्षा मे तैनात किया जा रहा है। वहीं 2012 के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि बिहार में 1492 लोगों की सुरक्षा एक पुलिसवाले के जिम्मे है। यानी 1 लाख लोगों की सुरक्षा में 67 पुलिस वाले तैनात है। जो देश में सबसे कम है। तो वही सुशासन बाबू ने 4 पेड़ों की रखवाली के लिए 1 पुलिसवाले की तैनाती की हुई है। इस पर सूबे के मुखिया नीतीश कुमार कहते हैं कि उनकी सरकार को आवाम की चींता है न की आम की। दरअसल बदले समीकरणों के बीच बिहार जंगल राज बनाम सांप्रदायिकता की युद्ध भुमि बन रहा है। देखना है कि राजनीति के कितने रंग बन-बिगड़ रहे हैं। सभी नेता बिहार की मजबूत एतिहासिक विरासत की बात तो करते हैं, लेकिन पता नही उसे मान क्यों नहीं देते ? जाति-उपजाति की लड़ाई आखिर बिहार का भविष्य कैसे उज्जवल बना सकती है।  

Thursday 14 May 2015

कहा जाता है कि मनुष्य की कहानी आज से दस लाख वर्ष पूर्व शुरू हुआ था। लोग जंगलों में रहा करते थे। जानवरों का शिकार करके अपना भरण-पोषण किया करते थे। धीरे-धीरे लोगों में जागृति आई और वे जंगल छोड़ शहरों और गांवो में रहने लगे, विज्ञान ने प्रगृति की और विकास की धारा बहने गली। जिसने जीने के नए ढ़ंग दिए बड़ी-बड़ी इमारते भागती दोड़ती गाड़ियां। मस्ती करने के लिए पब-डिस्को खाने के लिए पिज्जा-बर्गर, नुडल्स और न जाने क्या-क्या ? हम आदिकाल से निकल कर तकनीकि काल में पहुंच गए ! विश्व के मानचित्र पर विकसित देशों की होड़ में शामिल हो गये। हम चांद पर पहुंच गये। विकास के बड़े-बड़े दावे भी किये गये है और किये जा रहे है, लेकिन इस तकनीकि काल में भी एक तबका ऐसा है जो आदिकाल में ही जीवन जीने को विवश है।

कहने को तो हम तकनीकिल काल में है, लेकिन हमारे देश में बहुत बड़ा तबका ऐसा भी है जो अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करने के लिए दिन-दिन भर जंगलों और खेतों में घुम-घुम कर कर पापी पेट की आग को बुझाने के लिए मिलो-मिल पागलों की तरह भटकते रहते है, तब जा कर वह अपने और अपने परिवार के लिए कुछ शिकार कर पाते है फिर जा कर घर रोशन होता है और चुल्हा जलता है। हम 21वीं शदीं में है पर सही मायने में उस परिवार के लिए ये 21वी शदीं या तकनीकि काल किस काम की जिसे खाने को लाले पड़े हो। ये विकास किस काम का जिस देश में अभी भी लोग ऐसे जीवन जीने को मजबूर हो। आज हमारे पास बड़ी-बड़ी सड़के भागती दैड़ती गाड़ियां मैट्रो, मोनो रेल, हवाई जहाज और न जाने क्या-क्या हैं ? लेकिन इस वर्ग को इन सारी चीजों से क्या मतलब ! वे तो अब भी दिन-दिन भर जद्दोजहद कर पापी पेट की आग को ही बूझा पाते है, और किल्लत भरी जिंदगी जिने को मजबूर है। इनके लिए न तो सरकार कुछ कर रही है और न ही कोई गैरसरकारी संस्था ही।


उन्हें अब भी ये सीरी बाते सपने जैसा ही लगता है, और लगे भी क्यों नहीं जो इंसान दिन-रात जद्दोजहद कर बस दो वक्त की खाने का ही बंदोबस्त कर पाता हो। उसमें भी जंगली जानवर या चुहा उसके खाने के मुख्य आहर हो उनके लिये ये सपना नहीं तो और क्या है। उनके लिये स्कूल-कॉलेज पब-डिस्को, पिज्जा-बर्गर सब सपना ही तो है। उन्हें तो इसका नाम तक नहीं पता। उनके जीवन में अब भी अंधेरा ही अंधेरा है। यह तबका अब भी आधुनिक सुविधाओं से मिलों दूर है। उन्हें इन सीरी चीजों से कोई मतलब नहीं है। उन्हें तो जिंदा रहने के लिये शिकार करना है और जिंदगी जिना है। ऐसे की तबका के कुछ लोगों से जब मैं मिला तो उनको मैंने बाहर की दुनियां के बारे में बताया तो उनके लियें ये सारी बाते एक कहानी की तरह लग रहा था जैसे हमें बचपन में दादी-नानी परियों की कहानी सुनाया करती थी और हम कल्पना कर उस परियों में खो जाते ठीक वैसे ही ये लोग भी उसी तरह कल्पना कर उसमें खो जाते है। कुछ पल का सुख पा कर फिर हकीकत में आ जाते हैं, और शायद यह सोचते है कि उनका यह सपना कब पूरा होगा या यू ही मर-मर कर जिंदगी का गुजारा होगा।

Thursday 7 May 2015

बॉलीवुड के दबंग अभिनेता सलमान खान को 13 साल पुराने हिट एंड रन मामले में मुंबई के सत्र न्यायालय के फैसले से एक बार फिर न्याय पर लोगों का भरोसा मजबूत हुआ है। लोगों ने ऐसा भी होते देख लिया जब कोई हिरो रोता हो भारतीय न्याय प्रणाली ने एक बात का सबूत तो जरूर दे दिया है कि चाहे कोई कितना भी दबंग क्यों न हो लेकिन जब कठघरे में खड़ा होतो है तो, अंग दब-सा जाता है। मजबूत दिल कमजोर पड़ने लगता है सिक्स पैक भी ढीले पढ़ने लगते है। सारा हिरोगीरी हवा होनें लगता है। वो कहते है कि मैं किसी की नहीं सुनता, अपने आप की भी नहीं सुनता। किसी की न सुनने वाले को एक दिन कीमत तो चुकानी ही पड़ती है, क्योंकि जब वह किसी की नहीं सुनता तो गलती कर बैठता है, और हर गलती कीमत मांगती है, शायद इस गलती का किमत पांच साल की सजा हो। 

सलमान को मिले सजा से मैं दुखी हूं पर सलमान के ऊपर जैसे आरोप लगे है या जिसमें वो दोषी पाये गये है। उन पर सलमान को खुद ही अमल करना होगा वो दोषी है या नहीं मुझे नहीं पाता ? पर मैं जिस सलमान को पसंद करता हूं वो 'मैंने प्यार किया, हम आप के है कौन साजन' के थे। जो थोड़ा शर्मिला थोड़ा चुलबुला अपने बदमासियों से लोगों के दिलों पर राज करने वाला अपने धून का पक्का सलमान जो उनके चेहरे पर झलकता भी था। आपने धिरे-धिरे बॉलीवुड में पांव जमाया और आपकी फिल्में सौ करोड़ के आकड़ों को पार करने लगा सारे सुपर स्टार आपके सामने फूस होने लगे। लोगों ने आप को चाहा है। आप उनकी चाहत का ख्याल रखे। हम सब किसी न किसी छोटे बड़े गुणाह की सजा भुकते रहते है। कभी अंदर से तो कभी बाहर से लेकिन आप उन लोगों के बारे में भी सोचे जिसने आपके कार के नीचे आ कर, जान गवाया है। आप उनके परिवार के बारे में सोचे वो पिछले 13 सोलों से कैसे जी रहे है।शायद वो भी आपको चाहने वाला ही रहा हो। आप उन्हें मदद करे इस में दो राय नहीं की आप ने बहुत असहाय लोगों की मदद की है आप दोस्तो के दोस्त और तलबगारो के मददगार है।

आप अकेले नहीं है बॉलीवुड में जिसे सजा हुआ है। इस लिस्ट में संजय दत्त, मोनीका बेदी जैसे कई और स्टार भी शामील है। मोनीका बेदी जहां सजा काट कर बाहर आ चुकी है तो वहीं संजय दत्त सजा काट रहे है। आपको अभी सत्र न्यायालय में सजा मिला है। आप के पास अभी उच्च न्यायालय है जिसके दरवाजे आपने खटखटाया भी है। इसके बाद भी आप उच्चतम न्यायालय जा सकते है। लेकिन सब जगहों पर जाने से पहले आप एक बार सोच ले अगर आपको लगे की आप बेगुनाह है तो आप बेशक जाये अगर आप को जरा भी लगता है कि आप इस गुणाह में शामिल है तो मैं यही चाहुंगा कि आप इस का गुणाह का पराश्तिच करें, और फिर से वो सलमान बन कर आऐं। जो आप 'साजन, हम साथ साथ में' हुआ करते थे। तब जाकर आप सही में प्रेम रतनधन पायेंगे। नहीं तो आप किक ही कहलायेंगे।

Monday 27 April 2015

Posted by Gautam singh Posted on 01:16 | No comments

किसने क्या खोया ?

वर्षो से हम लोग किताबों में पढ़ते आ रहे है भारत एक कृषि प्रधान देश है ! यह किसानों का देश है ! इस देश के किसान भारत की जान हैं, और किसानों से ही भारत महान है। यह सिर्फ कहने को रह गया है। यहां पर ही किसान मरता रहा तालियां बजती रही, किसान रोता रहा नेताएं चिल्लाते रहे, किसान कहता रहा नेता भाषण देते रहें, पुलिस देखता रहा, जनता हंसते रहे, मीडिया टीआरपी बटोरती रही, पार्टियों लड़ती रही आखिर इल लोगों ने क्या खोया ? आम आदमी पार्टी ने क्या खोया ?, बीजेपी ने क्या खोया कांग्रेस ने क्या खोया ? मीडिया ने क्या खोया ?, खोया तो राजस्थान के दौसा में गजेंद्र के परिवार ने मां-बाप ने बेटा खोया, पत्नी ने पति खोया बहन ने भाई खोया, बच्चों ने पिता खोया।
पर इस भारत महान में राजनेता इस तरह के मुद्दों पर भी सियासी रोटी सेकना नहीं भूलते किसान गजेंद्र अब इस दुनियां में नहीं है। लेकिन पिछले तीन दिनों से जिस प्रकार से राजनीति और मीडिया में हाय-तोबा हो रहीं है। उससे क्या किसान गजेंद्र वापस आ जायेंगे या किसान आत्महत्या करना बंद कर देगें। अथवा उनका माली हालात बदल जाएगें ? कहते है किसान वह व्यक्ति है जो खेती का काम करता है। अपनी मेहनत के बीज डाल कर अपने पसीने से सीच कर फसल पैदा करता है तब जाकर आम जनता को भोजन मिल पाता है। शायद इस लिए उसे देश का अन्नदाता भी कहा जाता है। लेकिन पिछले दो दशक से इसी देश में लगभग तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके है। इन 68 वर्षो में न जाने कितने सरकारें बदली, पार्टिंयां बदली पर देश के किसान के हालात नहीं बदले। आए दिन किसानों के आत्महत्या की खबरें आ रही है। यह सिलसिला कब रूकेगा ? कहां रूकेगा ? या यूं ही हमारे देश का किसान मरता रहेगा ? किसी को नहीं पता।


आज भी हमारे देश के किसान अन्य विकसित देशों की अपेक्षा बहुत पिछड़े हैं, चाहे आर्थिक स्थिति के मामले में हो या तकनीक के मामले में। इस पिछड़ापन का क्या कारण है? आखिर इसमें देश की सरकार की क्या भूमिका हो सकती है? कृषि कार्य में आज भी भारतीय ग्रामीण जनता का सर्वाधिक बड़ा हिस्सा कार्यरत है, फिर भी सरकार उस वर्ग की उपेक्षा क्यों नहीं कर रही है? क्या देश के विकास में सिर्फ वही क्षेत्र आते हैं जो आर्थिक रूप से अधिक सहयोगी हैं। ऐसे अनेक सवाल हैं जो किसानों की समस्याओं से जुड़े हैं। आज ज़माना बदल गया है ! स्वार्थ सबके सर चढ़ कर बोल रहा है ! सब चीज़ें पैसे के तराज़ू पर तोली जाती हैं ! राजनीति ने इसे चर्म पर पंहुचा दिया है ! शायद यही कारण है कि पिछले 68 सालों में कृषि के लिए न जाने कितने स्किम आये पर वो किसानों तक पहुंचने से पहले ही निजी स्वार्थ के हिस्से जड़ गए, और हमारें किसान 21वीं शदीं में रहते हुए भी आत्महत्या करने पर आज भी विवश है। 

Monday 6 April 2015

मैदान सज चुकी है खिलाड़ी दिखने और बिकने को तैयार है। ठीक उसी तरह जैसे सोनपुर के मेले में घोड़े बिकते हों लाल घोड़ा, काला घोड़ा, सफेद घोड़ा सब एक से बड़कर एक ! व्यपारी बोली लगाने को तैयार ठीक वैसे ही आईपीएल का रन सज चुका है यहां भी घोड़े की तरह देशी और विदेशी खिलाड़ी बिक चुके है। महेंद्र सिंह धोना, विराट कोहली, मैक्सवेल, युवराज सिंह, दिनेश कार्तिक और न जाने कौन कौन सब अपना खेल दिखाने को तैयार है। ठीक वैसे ही जैसे कोई मदारी अपने बंदर को बोलते ही वह अपना करतब दिखाना शुरू कर देता। वैसे ही यहां भी सभी खिलाड़ी अपने-अपने खेल की नुमाईस के लिए तैयार है।
आईपीएल आठ यानी 'इंडियन पैसा लीग' की आगाज आठ अप्रेल से हो रहा है। इसके जादू से एक बार फिर क्रिकेट प्रेमी काम-काज नौकरी-धंधा पढ़ाई-लिखाई यहाँ तक कि खाना-पीना और शरीर की दूसरी अति महत्वपूर्ण जैविक क्रियाओं पर भी जबरिया रोक लगा कर बस 'इंडियन पैसा लीग' के झंपिंग झपांग झंपक-झंपक, ढंपिंग-ढपांग में मशगूल हो जाएंगे। मनोरंजन के नाम पर बड़े-बड़े डीजे और हर चैके-छक्के पर छोटे छोटे कपड़ों में नाचते तथा अपनी टीमों का हौसलाफ्जाई करती चीयरलीडर्स और पागलों के तरह हल्ला करते क्रिकेट प्रेमी अजीब पागलपंथी देखने को मिलेगा।

वैसे तो आईपीएल (इंडियन पैसा लीग) के साथ विवादों का सुरू से ही चोलि दामन का नाता रहा है। आईपीएल के सीजन 6 में स्पॉट फिक्सिंग में तीन खिलाडि़यों की गिरफ्तारी के बाद ये मांग उठने लगा था कि क्या आईपीएल को बंद कर दिया जाना चाहिए ? इससे पहले के संस्करण में भी अनेक विवाद आईपीएल की झोली में आए, जिसमें खिलाड़ियों द्वारा स्टेडियम में नशीले पदार्थ का उपयोग करने से लेकर चियर्स गर्ल का अशलील नांच और मैच के बाद होने वाली रेव पार्टी काफी जयादा सुर्खीयों में रही है। देश के एक अरब लोगों का मनोरंजन करने वाले क्रिकेटर इस तरह मुंह काला कर घूमेने के बावजूद भी आईपीएल के प्रति लोगों का जुनून साल दर साल कमने के वजाय और बढ़ता ही जा रहा है।

एक जमाना था क्रिकेट जेंटलमेन गेम हुआ करता था, खिलाड़ी एक दूसरे का सम्मान किया करते थे। मैदान में सिर्फ हाउजदैट की आवाज भर सुनाई देतीं थी, और दर्शक चिन्तनकारों की तरह गैलरियों में बैठकर चैके-छक्के पड़ने पर इस तरह होले-होले तालियाँ बजा दिया करते थे। जैसे खिलाड़ियों पर एहसान कर रहे हों। खिलाड़ी घूमते-फिरते, खाते-पीते, टहलते हुए पाँच दिन का टेस्ट मैच निबटा लिया करते थे। मगर अब खेल के मायने बदल गये है। खेल के नाम पर झंपिंग झपांग ढंपिंग ढपांग का जमाना है। आजकल सीख दी जा रही है कि शराफत छोड़ो, कपड़े फाड़ कर पागलपन पर उतर आओ। घर-बार, नौकरी-चाकरी, स्कूल-कॉलेज, पढ़ाई-लिखाई छोड़कर मेंटलमैन बन जाओ। लिहाजा मैच में आठ-दस पागल किस्म की चीयरगर्ल्‍स का झुंड बिना थके नाच-नाचकर खिलाड़ियों व दर्शकों का मनोबल बढ़ाएगा, और उधर घर में बैठकर टी.वी में घुसे पड़े तमाम लोग अपनी झंपक-झंपक से अड़ौसियों-पड़ौसियों के जीना हराम करेंगे। 

Friday 3 April 2015

हरियाणा के बहुचर्चित और विवादास्पद आईएएस अशोक खेमका एक ऐसे अकेले अधिकारी नहीं है, जो अपने ईमानदारी के लिए सुर्खियों में आए हो और जिन्हें अपनी ईमानदारी की कीमत चुकानी पड़ रही हो। इस क्रम में संजीव चतुर्वेदी, प्रदीप कासनी जैसे कई और भी अधिकारी है जिन्हें सरकारे बोझ की तरह मानती है।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण हरियाणा के खट्टर सरकार ने पेस किया कभी सोनिया गांधी के दमाद रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ के जमीन सौदे पर सवाल उठाने की वजह से ही अशोक खेमका को, पिछली हुड्डा सरकार ने पुरातत्व और संग्रालय जैसे कम महत्व वाले विभाग में भेज दिया था। हैरत की बात यह है कि कभी इसी मुद्दे को लेकर हुड्डा सरकार को घेरने वाली बीजेपी आज खुद अशोक खेमका जैसे अधिकारी को फिर से पुरातत्व और संग्रालय जैसे कम महत्व वाले विभाग में भेज रही है। 


पुरातत्व जैसे विषय में नेताओं की भी कोई खास दिलचस्पी नहीं होती, क्योंकि उससे न तो वोट, न ही धन जुड़ा है। वहीं परिवहन विभाग प्रभावशाली विभाग माना जाता है, क्योंकि उससे सीधे जनता प्रभावित होती है। परिवहन विभाग अमूमन सबसे ज्यादा भ्रष्ट विभागों में से एक होता है, क्योंकि व्यावसायिक परिवहन में तमाम लाइसेंस, परमिट का कारोबार होता है। खेमका ने परिवहन विभाग में आयुक्त और सचिव रहते हुए अवैध ट्रको और ट्रेलरो के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी थी और ओवरसाइज वाहनों को फिटनेस सर्टिफिकेट देने से इन्कार कर बड़ी ट्रांसपोर्ट लॉबी को नाराज कर दिया था।

अशोक खेमका को नौकरी में 22 वर्ष हो गए और उनके तबादलों का अर्धशतक करीब ही है। यानी हर साल औसतन उनका दो बार तबादला हुआ। जिससे समझा जा सकता है कि सूबे की सरकारों के साथ उनके रिश्ते कैसे रहे हैं। उल्लेखनीय यह है कि उनके खिलाफ कभी भी किसी तरह की गड़बड़ी नहीं पाई गई है, बल्कि उन्होंने नियमों और कायदों को लेकर रसूखदार लोगों से टकराने में कभी हिचक नहीं दिखाई।

जब हरियाणा में कांग्रेस सरकार थी, तब खेमका भाजपा के प्रिय थे, क्योंकि वह रॉबर्ट वाड्रा के कारोबार की गड़बड़ियों को उजागर कर रहे थे। तब कांग्रेस सरकार ने उन्हें प्रताड़ित करने की भरपूर कोशिश की। मगर पिछले दिनों आई सीएजी की रिपोर्ट से यह जाहिर हुआ कि खेमका ने जो आपत्तियां उठाई थीं, वे जायज थीं। हमारे देश में राजनीति व प्रशासन में नियमों के विरुद्ध लोगों को उपकृत करना ही नियम बन गया है, नियमों का पालन करना अपवाद है।


साफ है, परिवहन जैसे विभाग की सफाई कोई एक अफसर नहीं कर सकता, भले ही वह विभाग का सचिव हो। उसे राजनीतिक समर्थन की भी जरूरत गीयह अच्छा है कि हरियाणा सरकार में ही खेमका को समर्थन भी मिल रहा है। वरिष्ठ मंत्री अनिल विज ने उन्हें हटाए जाने का विरोध किया है। वहीं सीएम खट्टर इसे रुटींग तबादला बता रहें हो लेकिन आम जनता सच्चे और ईमानदार लोगों को चाहती है, यह बार-बार साबित हो चुका है। ऐसे में हमारे सत्ताधीशों और आम जनता के बीच इतना बड़ा फर्क क्यों है कि वे ईमानदार सरकारी कर्मचारी को पुरातत्व के लायक ही समझते हैं। 

Saturday 21 March 2015


गांधी जयंती के मौके पर सूर्य अपने चमक के साथ पूर्व दिशा से संपूर्ण धरती को अपनी किरणों से रोशन कर रहा था। तब हमारा देश एक नई क्रांती के लिए जाग कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महात्वाकांक्षी योजना 'स्वच्छ भारत अभियान' की ज्योत जगा रहा था। उस दिन पूरे देश के लोगों ने शानदार एकता और अखण्डता का परिचय देते हुए भरपुर जोश और उत्साह के साथ प्रतिज्ञा लेकर स्वच्छ भारत के इस महान कार्य, जो गांधी जी के स्वच्छ भारत का अधूरा सपना भी था, के प्रति पूर्ण समर्थन, समर्पण दिखाया वो निश्चित रूप से महान और लाजवाब था।

गाँधीजी का सपना था कि हमारा भारत स्वच्छ हो, पर शायद ऐसे नहीं जैसे कि आज सरकारी मशीनरी ने किया है। कि पहले राजनेताओं की सफाई करने के लिये कचरा फैलाया और बाद में उनसे झाड़ू लगवाई जैसे कि वाकई सभी जगह सफाई की गई है। वैसे प्रधानमंत्री जी तो केवल सांकेतिक रूप से ही अभियान की शुरुआत कर सकते थे, और उन्होंने किया भी और कर भी रहे है, प्रधानमंत्री लगातार 'स्वच्छ भारत अभियान' में नए-नए लोगों को जोड़ भी रहे है। शुरु में लोगों ने इस अभियान में दिलचस्पी भी दिखाई और बहुत लोग अभी भी दिखा रहे है। लेकिन क्या माननीय प्रधानमंत्री जी द्वारा बनाया गया स्वच्छ भारत अभियान काम कर रहा है या सिर्फ एक दिखावा है।


हम सभी लोग जानते है की माननीय श्री मोदी जी ने जब यह घोषणा की तो बहुत सारी बातें हुवी पर समय और स्थिति को देख कर सब शान्त हो गए। आपने अपने आस पास कितनी स्वच्छ्ता देखी अब तक और कितनी कोशिस कि भारत को स्वच्छ करने की? स्वछता अभियान चलाना बहुत अच्छी बात है पर उससे ज्यादा अच्छी बात ये होती जब हमलोग इस पर अम्ल करते दिल से सिर्फ दिखावे के लिए नहीं। मेरा अनुरोध है की लोग इसे अपना कर्तव्य समझे। शुरूआत की, लेकिन क्या पीएम मोदी जी द्वारा बनाया गया स्वच्छ भारत अभियान काम कर रहा है या सिर्फ एक दिखावा बन कर रह गया है।

इसका जीता जागता उदाहरण मुझे उस समय मिला जब मैं क्रांती की भूमी मेरठ पहूंचा मैं मेरठ से दिल्ली आने के लिए एक गाड़ी में बैठा उस गाड़ी में मेरे पिछे वाली सीट पर दो महिलाएं अपने बच्चे के साथ बैठी। उस में एक महिला अपने बच्चे को केला खिलाकर छिल्का रोड़ पर गिरा दी। इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है की भारत के 125 करोड़ जनता के दिलों दिमाग पर किड़ा सवार है कहीं पर कुछ भी फैला दो लेकिन क्या हम इस आदत में बदलाव नहीं कर सकते हम जब तक नहीं बदलेंगे तब तक स्वच्छ भारत अभियान का कोई मायने नहीं होगा।

सियासत को मारो गोली, इसने बहुत हैं जहर घोली, छोड़ो अब राजनीति की बात ,सोचे सबके हित की बात, ऐसा मिशन चलाये जिस से सबका हो कल्याण, आओ मिलकर सफल बनाये स्वच्छ भारत अभियान
करें इस ब्याधि का समूल अंतिम-संस्कार, ताकि परम आदरणीय बापू का सपना हो साकार, हम विश्व-पटल पर बनकर उभरे एक नया कृतिमान,आओ मिलकर सफल बनाये स्वच्छ भारत अभियान


Tuesday 13 January 2015

विद्यानिवास मिश्र भारतीय मनीषा के प्रतिनिधि चिंतको में से हैं। भारतीय परंपरा, सनातन जीवन मूल्यों को लेकर आग्रह अंत तक बना रहा। क्योंकि वह ऋग्वैदिक ऋषियों से लेकर कबीर, तुलसी, रैदास और भक्तिकाल के संतों-कवियों के चिंतन से प्रेरणा लेकर परंपरा और भारतीयता को बांचाते थे। हिन्दू धर्म को लेकर वह न तो सुरक्षात्मक बुद्धिजीवी थे और न ही उनका सनातन की खोज पर भरोसा कम हुआ ! '' प्रभुजी, तुम चंदन हम पानी '' जैसी थी उनकी विनम्रता। विद्यानिवास मिश्र हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार, सफल सम्पादक, संस्कृत-हिंदी के प्रकांड विद्वान और जाने-माने भाषाविद थे। उनका कहना था कि भारतीय परंपरा जड़ नहीं है कि उस पर बाते ही न की जाय। हिन्दी साहित्य को अपने ललित और व्यक्तिव्यंजक निबंधों और लोक जीवन की सुगंध से सुवासित करने वाले विद्यानिवास मिश्र ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने आधुनिक विचारों को पारंपरिक सोच में खपाया था। बर्तोल्त ब्रेष्ट उनके प्रिय कवियों में से थे। उत्तर आधुनिकता जैसी चिंतन पद्धति ''चोटी के पंडित'' विद्यानिवास जी लिए सहज थी। वह ऐसे संस्कृत विद्वान थे जो एक साथ हिंदी, अंग्रेजी, भाषा विज्ञान, दर्शन, कविता, विचार, वेद-पुराण में भी सिद्धहस्त थे।\

वह ऐसे बुजुर्ग थे जिन्हें अपनी परम्परा, विश्वासों और आस्थाओं के प्रति अटूट निष्ठा थी, जिसे वह आजीवन निभाते रहे। धोती-कुर्ता और माथे पर चन्दन उनकी पहचान थी, जो देश हो या विदेश कभी नहीं मिटी। विद्यानिवास मिश्र संपूर्ण विश्व को जीवन को जोड़कर देखने वाले भारतीय विचारक थे। पंडित जी के लिए 'मानुष सत्य' ही सर्वोपरि रहा, इसीलिये उनकी मूल चिंता 'विश्व मन की बेचैनी' को लेकर थी। उन्होंने कहना था मनुष्य ही सबकुछ है। मनुष्य की चिंता करनी चाहिए। मनुष्य है तो सब-कुछ है। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद हिन्दी साहित्य के सर्जक विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य की ललित निबंध की विधा को नए आयाम दिए। विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंधों में जीवन दर्शन संस्कृत और प्रकृति के अनुपम सौंदर्य का तालमेल मिलता है। इस सबके बीच वसंत ऋतु का वर्णन उनके ललित निबंधों को और अधिक रसमय बना देता है। ललित निबंधों के माध्यम से साहित्य को अपना योगदान देने वाले विद्यानिवास मिश्र हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकार थे। जो हिन्दी की प्रतिष्ठा हेतु सदैव संघर्षरत रहे।

विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्धों की शुरुआत सन 1956 से होती है। परन्तु उनका पहला निबंध संग्रह 1976 में चितवन की छांह प्रकाश में आया। उन्होंने हिन्‍दी जगत को ललित निबन्‍ध परम्‍परा से अवगत कराया। 'तुम चन्‍दन हम पानी' शीर्षक से जो निबन्‍ध प्रकाशित हुए, उनमें संस्‍कृत साहित्‍य के सन्‍दर्भ का प्रयोग अधिक हो गया और पाण्‍डित्‍य प्रदर्शन की प्रवृत्ति के कारण लालित्‍य दब गया, जो उनकी पहली दो रचनाओं में मिलता था। तीसरे निबन्‍ध संग्रह आंगन का पंछी और बनजार मन' में परिवर्तन आया। लोक संस्कृकि और लोक मानस उनके ललित  निबंधों के अभिन्न अंग थे, उस पर भी पौराणिक कथाओं और उपदेशों की फुहार उनके ललित निबंधों को और अधिक प्रवाहमय बना देते थे। उनके प्रमुख ललित निबंध संग्रह हैं- 'राधा माधव रंग रंगी', 'मेरे राम का मुकुट भीग रहा है', 'शैफाली झर रही है', 'छितवन की छांह', 'बंजारा मन', 'तुम चंदन हम पानी', 'महाभारत का काव्यार्थ', 'भ्रमरानंद के पत्र', 'वसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं' और 'साहित्य का खुला आकाश' आदि उनकी प्रसिद्ध कृतियां है। एक स्पेनिश दार्शनिक के साथ उनके संवाद की पुस्तक स्पेनिश में प्रकाशित है जिसमें उन्होंने भारतीयता , परंपरा, सौंदर्यबोध को लेकर विचार हैं।


उन्होंने अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय में भी अध्यापन किया तथा वर्ष 1967-68 में वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अध्येता रहे थे। मध्यप्रदेश में सूचना विभाग में कार्यरत रहने के बाद वे अध्यापन के क्षेत्र में आ गए। वे 1968 से 1977 तक वाराणसी के संस्कृत विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे। कुछ वर्ष बाद वे इसी विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। काशी विद्यापीठ के भी वह कुलपति रहे। नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक पद पर भी आसीन रहे। उनकी उपलब्धियों की लंबी श्रृंखला है। भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से भी विभूषित किया। इसके अतिरिक्त देश-विदेश के अनेक पुरस्कार-सम्मान उन्हें मिले। पर, पंडितजी के लिए इन उपलब्धियों से कहीं अधिक उनकी भारत, सनातन जीवन मूल्यके प्रति घोर विश्वास से सिक्त चिंतन है।उनका चिंतन और ज्ञान -परंपरा हमारे लिए आलोक स्तम्भ है।