Tuesday 28 August 2018

Posted by Gautam singh Posted on 07:21 | No comments

एक कसक

मैं अपने नानी के घर कब गया था। कुछ सही से याद नहीं वक्त गुजरते गया और सबकुछ बदलते चला गया। ना मुझे नानी के घर का गेट का पता है और न ही उनके घर का नक्सा मेरे जहन में है। जब भी अपने करीबियों से नाना-नानी की बाते सुनता हूं तो मैं अंदर ही अंदर घुटने लगता था। मेरी मां का नानी से कभी बना नहीं जिसके कारण हमलोगों का भी नानी-नाना से दूरीयां बढ़ती गई। हमलोगों को बस इतना पता है कि इसमें हम भाई-बहनों की कोई गलती नहीं, इसमें किसकी गलती है, इस बात को न हम तब जानते थे और ना ही आज जान रहे है, जब मैं इस बारे में लिख रहा हूं। सच तो ये है कि हम भाई-बहनों में से किसी को इस बात का पता ही नहीं है नाना-नानी का प्यार क्या होता है? दरअसल बढ़ते उम्र के साथ हमलोग अपने-अपने जिन्दगी में इस तरह खो गये की इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया। 

लेकिन अब इस बात की कमी खलती है जब अपने भांजा-भांजी को देखता हूं तो लगता है हमसब भाई-बहन कितने अभागे रहे है जिन्हें ना तो दादा-दादी का प्यार नसीब हो सका और न ही नाना-नानी का... दादा-दादी हमारे बीच थे नहीं और नाना-नानी रहते हुए भी न हम उनके लिए कोई थे और न ही वह हमारे लिए कोई। वक्त बीतते गया देखते-देखते बचपन कब जवानी में तबदील हो गया कुछ पता ही नहीं चला। पहले भी जब अपने दोस्तों या परिवार वालों से नाना-नानी या दादा-दादी से मिले प्यार के बारे में सुनना तो मन में एक ख़लिश सी होती और सोचता मैं इन सबसे इतना अगल कैसे हो गया, मुझे एक भी बच्चे ऐसे नहीं मिलते जो अपने नाना-नानी या दादा-दादी से मिले प्यार के बारे में न बताता हो, कई बार मेरे दोस्तों ने मुझसे सवाल भी किया की तुम नाना-नानी या दादा-दादी के बारे में कुछ क्यों कुछ नहीं बताते।

मैं बड़े ही अदब से कहता दादा-दादी इस दुनिया में है नहीं और इतना वक्त नहीं मिलात की मैं नाना-नानी के पास जा सकूं मैं यह बात तो बोल देता पर मेरे अंदर कई सवाल हिलोरे मार रहे होते सोचता सच-सच क्यों नहीं बता देता की हमलोग अपने नाना-नानी से बहुत दूर है। न तो नाना-नानी हमलोगों का कभी खैरियत लेते है और न ही हम लोग कभी नाना-नानी का लेकिन चुप हो जाता, सोचता दोस्त मजाक उड़ायेंगे। इस डर से कभी उनलोगों के सामने हकीकत बयां ही नहीं कर पाया। झूठ पर झूठ इतना बोलते गया की उस झूठ के भवंर में ही फर कर रह गया। सच कभी सामने आ ही नहीं पया। भागते वक्त के साथ ये सारी बाते पीछे छूटती चली गई। समय के साथ-साथ पढ़ाई के लिए शहर दर शहर बदलते गये और ये बाते जहन से निकलते गया पर हकीकत तो ये था कि हमलोग अपने-आप से समझौता करना सिख गये थे। फिर बदलते वक्त के साथ हमलोग भी अपने-अपने जिन्दगी में उलझते जा रहे थे पहले पढ़ाई फिर नौकरी इन सारे चीजों में ऐसे फंस गये थे की कभी नाना-नानी या दादा-दादी की याद ही नहीं आई... 

हमलोग तेच रफ्तार से बड़े हो रहे थे और इस भवंर से कबके निकल चुके थे।  जिन्दगी में इन बातों का अब कोई पछतावा नहीं रह गया था।  अब बस आगे बढ़ने की होड़ थी और इस दुनिया में एक अजीब दौड़ थी इस दौड़ हमलोग भी में शामिल हो चुके थे। जहां पिछे मुड़ कर देखने की रिवायत नहीं है। समय के साथ-साथ सारे दोस्त प्रोफेशनल हो चुके थे। अब जो भी बाते होती वह ऑफिस की या फिर अपने पर्सनल लाइफ की... जिन्दगी से उन सारी कमी की कसक धीरे-धीरे मिलों दूर निकल चुकी थी... अब ऐसे सवाल भी नहीं होने थे जिसका जवाब देने में मैं असहज हो जाऊ... जिन्दगी अच्छे से गुजर रहा था, लेकिन वक्त ने फिर से करवट ली अब जब अपने दीदी के बच्चों को अपने नाना-नानी से किसी चीज को लेकर जिद करते या उनका उनके साथ खट्टे-मीठे रिश्ते को देखता हूं। तो वह टीस फिर से चुभने लगता है। सोचता हूं की हमलोग कितने अभागे रहे है जो इस खट्टे-मीठे रिश्ते को नहीं जी पाये। अब बस यही आश है कि किसी न किसी जन्म में इस रिश्ते को जरूर जियेंगे।  

Wednesday 15 August 2018

 
खुले में शौच की परंपरा सृष्टिचक्र के आविर्भाव से ही शुरु हुई। जिसे आज पशुवत शौच का प्रारूप दे दिया गया। खुले में शौच की संस्कृति पहले पूरे विश्व में समाई थी। भले ही आज पूरे भारत के रग-रग में समाई हो। हम सभी ने अबोध अवस्था में ही त्रिकोणा मुह बना कर बड़े हर्ष से उनमुक्त होकर उदर को भार वीहिन किया। चटोली की आड़ में शुरु हुई यह सभ्यता बस एक साल में ही... मां के पैरों द्वारा बनाए गए चूल्हों पर स्थापित की गई। जो हल्का करने के लिए छी... छी... छी... नामक स्वर की ताल ध्वनी से खुद के लिए सजाई गई लोरी गीत थी। तो हमें यह न सिखाया जाय कि हमें शौच घर के कमौड पर बैठने का तरीका नहीं है। हमने बचपन में ही कमौड पर बैठने का अभ्यास किया है। बखूबी याद होगा।
 
 हल्का होने के दौरान जब मां पैरों के चूल्हें पर बिठा कर दाये हाथ से पूरा बदन थामते हुए बायें हाथ से बह रही नाक को पोछ देती थी और हम चिल्लाते हुए शकून का अनुभव करते थे। 'क्या यह गलत है' "मित्रों क्या मैं झूट बोल रहा हूं" हम में से किसने खुले में शौच नहीं किया है। आज भले ही त्रिकोनी लंगोटी का इतिहास बदलकर हगीज युग के नवीन परिवर्तन में बदल गया है। हगीज का भाव बड़-चड़ कर दुनिया की प्रचारमय संस्कृत का अहम हिस्सा है। मित्रों क्या आप सभी को वह त्रिकोणी लंगोटी याद है। खुले में शौच का ग्रामीण इतिहास बहुत पुराना एवं बेहद अनूठा है। नित्य सामुहिक शौच का आयोजन सुबह-शाम गांव की गलियों से खेतों की पगडंडियों तक होते आ रहे हैं। इन राहों पर गांवों की औरतों की लोटा-यात्रा में समाई उनकी वाद-विवाद प्रतियोगिता एवं हंसी की खनक व एक दूसरे की ठीठोंली और कभी-कभी लोक गीतों की गूंज से पूरा परिवेश गुंजार उठता है। नदी किनारे बसे गांवों में शौच काल में लोटे का प्रयोग सर्वदा निंदनीय ही रहा।
 
विकास काल के दौरान रेल मंत्रालय ने शौच के इतिहास में अद्भुत क्रांति कर दी, देश को सबसे बड़ा छत-द्वार विमुक्त शौचालय रेल मंत्रालय ने ही उपलब्ध करा कर अपना नया इतिहास रचा। कालांतर में यही शौचालय रेल लेन के नाम से बुहत प्रसिद्ध हुआ। जिसके समर्थन में पूर्व रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने बुलेट ट्रेन के विरोध में कहा... यह देश के लिए बहुत बड़ा खतरा है। क्योंकि देश की ग्रामीण आवादी सुबह रेल की पटरी पर हल्का होने के लिए जाता है। बड़े-बड़े खेतों में सामूहिक शौच की परंपरा ने भाई-चारे को भी मजबूती प्रदान की।
 
 इतिहास साक्षी है कि इस खुली शौच की परंपरा ने ही कई प्रेमी युगलों को आपस में मिलाया और उनके मिलन का साक्षी, दोनों के हाथों में सधा वो लोटा ही रहा। दूसरी तरफ लंबे घूंघट में गमन करता बहुओं का समूह सासु-निंदा की किलोल में अद्भुत सुख की अनुभूति का परम आनंद था। गोल घेरे में बैठ कर फारिग होना और सास-ननद का रोना-धोना सामूहिक शौच के उत्सवी किस्से थे। कभी-कभी ज्यादा हड़बड़ी में भागे लोग अपने किये पर ही धर देते थे। जिस पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था। इतिहास के कुछ पन्नों में नाड़े दार कच्छे और पाजामे भी दर्ज है। ऐसे पजामे, जिनके नकचढ़े नाड़ों ने ऐन मौके पर खुलने से इंकार करते हुए अपनी कुर्बानियां देना ही स्वीकार किया। खुले में शौच एक परंपरा ही नहीं बल्कि एक संस्कार रहा। कभी-कभी हल्का होने के दौरान लोटे के पानी का आंसुओं की तरह बह जाना।
 
पत्ते, डिल्ले की सरन में जाने के लिए मजबूर करता था। कलांतर में जिसके हजारों रोचक किस्से हैं। सावन की बारिश में हरी-भरी घास जब खेतों में आपकी बैठक का विरोध करती है और तब आप प्रतिकार के रुप में उस पर खेप डाल कर आप लम्बी सांस छोड़ कर अलौकिक सुख का अनुभव करते हैं। संक्षेप में कहें तो जिस व्यक्ति ने खुले में शौच का आनंद नहीं लिया उसका मानव जीवन में जीना ही व्यर्थ है। 200 आदमियों की बारात के बीच दस-बारह लोटे बार-बार खेत से सगुन की तरह जनवासे तक दौड़ कर कन्या दान के प्रति अपना दायित्व निभाते हैं।  इस समकालिन युग में प्लास्टिक की बोतलों और डिब्बों ने लोटे के साथ सिर्फ कंधा मिलाकर ही साथ नहीं दिया बल्कि अपने पित्र पुरुष लोटा महाराज को चैन ओर शुकून के साथ घर के अंदर आराम भी दिया। आज गाड़ी-ड्रायवरों और हाइवे के ढाबा-संचालकों की ये बोतलें बड़ी सेवा कर रही है। आपातकालीन खुल्लम-खुल्ला शौच में अखबारी कागज, पत्ते, मिट्टी के ढ़ेलो या पत्थरों का भी अविस्मरणीय योगदान रहा है।
 
जिसे इतनी आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। इस संस्कारिक परंपरा को बंद कर शौच काल के इतिहास को दफन करने का प्रयास किया जा रहा है। जबकि सरकारों को समझना चाहिए की इस परंपरा से वे ही नहीं बल्कि उनके पूर्वज भी गुजरे है ये सदियों की परंपरा जो हमें विरासत में मिली इसे छीन्न करना समस्त मानव जाती के जन्मसिद्ध अधिकारों की हत्या करना है। भाईयों बहनों इस परंपरा को जारी रखें। वरना आने वाली पीढ़ी इस परम सुख से वंचित रहेगी और हमरी परंपरागत सभ्यता नष्ट हो जायेंगी।
 
आभार
गुमनाम लोग
 

Sunday 5 August 2018

... कुल जमा 300 लोग एनडीटीवी से निकाले गए, मल्लिकार्जुन खड़गे नहीं 'खड़के'...; 300 लोग दैनिक जागरण से निकाले गए, खड़गे नहीं खड़के; 250 लोग टाइम्स ऑफ इंडिया से निकाले गए, खड़गे नहीं खड़के...; करीब इतने ही लोग हिंदुस्तान टाइम्स से निकाले गए, खड़गे नहीं खड़के; 700 लोग सहारा इंडिया और अन्य मीडिया संस्थानों से निकाले गए, खड़गे नहीं खड़के...; नरेंद्र मोदी शासन में 5000 से ज्यादा छोटे और मझोले अखबार बंद हो गए और हजारों मीडियाकर्मी बेरोजगार हुए, खड़गे तब भी नहीं खड़के...। अब ऐसा क्या हुआ कि तीन 'खास' मीडियाकर्मियों को जब 'उनके' संस्थानों ने निकाला तो खड़गे न सिर्फ 'खड़के' बल्कि खूब जोर से 'भड़के' भी...???!!!
 
मजीठिया वेज बोर्ड को लागू करने में कभी भी, किसी भी नेता ने ऐसी 'फुर्ती' नहीं दिखाई। बीते 10-15 सालों में कांग्रेस की भी सरकार रही और अब मोदी सरकार को भी पूरे चार साल हो गए हैं। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना 'डंडा' चला दिया लेकिन राज्य सरकारों को 'निर्देश' देने के अलावा इन सरकारों ने क्या किया? यह कितना सुनिश्चित किया कि कोई भी मीडिया संस्थान इसे लागू करने से बचने न पाए।

सरकारों को छोड़िए, इन 'महान' पत्रकारों ने क्या किया?? उल्टे प्रबंधनों को 'निकल' भागने के रास्ते ही सुझाए। पत्रकारों को 'कॉन्ट्रेक्ट' पर रखकर 'पालतू' बना लेने का 'आइडिया' इन्हीं लोगों ने दिया। किसी ने सुझाया कि वीडियोग्राफरों की कोई 'जरूरत' ही नहीं है मोबाइल से वीडियो बन जाएंगे तो किसी ने कहा कि रिपोर्टर - स्ट्रिंगर की कोई जरूरत नहीं है, वह 'खुद' ही प्राइमटाइम 'निकाल' देगा। न केवल प्राइम टाइम 'चमका' देगा बल्कि मालिक को बढ़िया 'डील' भी दिला देगा। 
  
हमें खड़गे या मोदी जैसे नेता-नतेड़ों से कोई फर्क नहीं पड़ता...। 'फर्क' पड़ता है उनसे, जिन पर पत्रकारिता के 'मिशन' को आगे बढ़ाने की 'जिम्मेदारी' थी या उन्होंने 'खुद' यह जिम्मेदारी ले ली थी...। उन लोगों ने क्या किया...? उन लोगों ने पत्रकारिता को नीचे से काटा। ग्रास रूट पर बिना किसी मोह-माया के काम करने वालों को काटा। 100-200 रुपये के मेहनताने को यह कहकर बंद कर दिया कि कंपनी इतना 'खर्चा' नहीं झेल सकती है। यह अलग बात है कि कंपनी इनकी 3-4 लाख प्रति माह की तनख्वाह को बिल्कुल आराम से झेल सकती है। परिणाम यह हुआ कि 'अंतिम आदमी' की खबरें आना बंद हो गईं। अब जब खबरें आना बंद हुईं तो ये पत्रकारिता के 'पहरेदार' क्या करते...? एसी कमरे में बैठकर दो मुल्लाओं, दो पाकिस्तानी पत्रकारों और दो विहिप के आताताइयों को पकड़कर मुर्गों की तरह लड़वाना शुरू कर दिया। एक बच्चा बोरवैल में गिर गया तो 24 घंटे उसी में 'खींच' दिए। यह नहीं देखा कि उसी दिन देशभर में 50 और बच्चे भी ऐसे ही किसी बोरवैल में गिरे हैं जिनकी खबर देने के लिए हमारे पास कोई स्ट्रिंगर ही नहीं बचा है। बचे समय में मुलायम सिंह, अखिलेश यादव, मायावती और नरेंद्र मोदी को अपनी सुविधानुसार गालियां देने का काम शुरू कर दिया और दिनभर की नौकरी हो गई 'पक्की'। कोई मौका मिल गया तो गोटी फिट कर के 'नेता' बन बैठे।

करीब 15-20 पहले जब हमने अपना करियर शुरू किया तब न तो हम पर पैसे होते थे और न हमारे वरिष्ठ पत्रकारों के पास...। दिन-रात सिर्फ काम करते रहने का 'ज्ञान' मिलता रहा। इन लोगों ने 'गंदगी' फैलाई कि सारे 'पैसे' इन्हें दो और ये 'ठेके' पर काम कराएंगे। परिणाम पत्रकारिता के इतने बड़े नुकसान के रूप में आया कि अब इन्हीं लोगों के सामने 'विश्वसनीयता' का ही संकट खड़ा हो गया।

पत्रकारिता का इन 'स्वयंभू' पत्रकारों ने इतना नाश कर दिया कि अब हमारे ऑफिस में कोई भी 'पत्रकार' बनने नहीं आता, आता है तो केवल 'एंकर' या 'एंकरनी' बनने.., क्योंकि पत्रकारिता तो 'नए' बच्चे जानते ही नहीं कि क्या 'चीज' होती है। अभी पिछले दिनों पत्रकारिता का एक 'छात्र' तो हमारे यहां सिर्फ 'इंटरव्यूअर' बनने आया। उसे 'पत्रकार' नहीं, केवल 'साक्षात्कारकर्ता' बनकर लोगों पर 'हावी' होना था।

इसलिए, ‘तथाकथित’ बड़े नाम का ‘बुरा’ हश्र देखकर दुखी होने की जरूरत नहीं है। जो बोया जाता है, वही काटना भी पड़ता है। अपनी बर्बादी के लिए नेताओं या किसी और को दोष दोने के बजाय अपने गिरेबां में झांकने की जरूरत है...। बाकी तो फिर..., जो है, सो है...।



धर्मेंद्र कुमार
Posted by Gautam singh Posted on 03:43 | No comments

हैप्पी फ्रेंडशिप डे

वो दीपीका पर मरती था, मैं प्रियंका का दिवाना था। दीपीका उसकी हो चुकी थी। पर अभी भी प्रियंका मेरी तलाश थी। उसे फुर्सत से तैयार होना पसंद था। मैं किसी जोकर की तरह तुरंत तैयार हो जाता था। मैं अच्छे कपड़े भी लंगूर की तरह पहनता था। वो सज-धजकर मानो किसी परी का मूर्त रूप ले लेती थी। इसके बावजूद भी मैं कितना भी सज-धजकर लिपा-पुता छछूंदर ही नजर आता था। उसे दर्जनों तरह के हेयरस्टाइल्ट बनाने आते थे। मुझे अपनी ही आंखों में डॉप भी डालना नहीं आता था। वो 5.5 फीट, मैं बहुत मुश्किल से 5.7 फीट वह बड़े आसानी से मेरे कानों के उपरी हिस्से की सीमा रेखा को पार कर जाती थी। उसे हील बहुत पसंद थे। जो की मैं उसे कभी नहीं पहनने देता।
 
 
क्योंकि वो हील पहनकर मुझसे ज्यादा बड़ी हो जाती थी। वह आईएस बनना चाहती थी लेकिन इंजीनियर बनकर जॉब कर रही है। मुझे जर्नलिस्ट बनना था और मैंने सबकुछ छोड़ कर जर्नलिज़्म चुना। उसके पास सपने थे, मेरे पास उम्मीदें थीं। फिर भी मैंने अपनी इन उम्मिदों को पुरी प्रान चेतना के साथ उसके सपनों को जीतने में सफल रहा, यह मेरे जर्नलिज्म की पहली खास उपलब्धि थी। वह बहुत पैसा कमाना चाहती थी और मैं उसके सपनों को आज़ाद करना चाहता था, जिसमें मेरी भी सबसे बड़ी आजादी थी। हमलोगों को मिलते काफी वक्त हो चुका था। अब भागदौड़ भरी जिन्दगी में महीनों बाद बातें होती है। पर कुछ भी बदला सा नहीं लगता। मैं उसे कहता पढ़ाई पर ध्यान दो गेट हर हाल में क्वालिफाई करना है।
 
 
वह कहती आईएस बनना है। बेशक वह खूब पढ़ती है पर मैं भी आलसी नहीं हूं और न ही कामचोर हूं लेकिन मैं अपने सिलेबस को छोड़कर सबकुछ पढ़ना पसंद करता। वो सिलेबस को चालीसा की तरह पढ़ती। उसने गेट में भी अच्छा किया उसे आईआईटी मिल गया। अब भी हमारी बाते होती हैं कुछ यादे लिये हुए कुछ सपने आंझे हुए। लेकिन जो सोचा था ये अदावत जिस बुलंदी पर जायेगी उसका मुकम्मल होना अधुरा ही रह गया। पर अब पहले जैसा नहीं मैं जब भी फोन करता था। वह हाफती हुई लंबी सांस खिचते हुए लपककर अल्लो बोला करती थी। अब ये जरूर कुछ बदल गया है। फिर भी अपने प्रथम मिलन की तरह अपनी जल भरी आंखों में सजल उत्तेजना लिए हर बार मिलने के लिए आतुर रहती।
 
 
ये उसकी मेरे प्रति उदारता है पर मैं इसे बख्सीस ही समझता हूं। फिर भी कभी-कभी फोन कॉल अटेंड नहीं हो पाती पर मुझमें इतना धैर्य नहीं की मैं इसे बर्दास्त कर सकू। अब हम दोनों बहुत अलग हैं। फिर भी मुझे उसके सपनों के ख्वाब बुनना पसंद है। हमदोनों ने एक दूसरे के जज्बातों को जिंदा ही नहीं रखा बल्कि दिन प्रति दिन उसे बड़े सलीके से सजाया... मैंने एक लर्गफ्रेड़ नहीं बल्कि फ्रेंड बनाया और वह चाहती है कि जब भी उसका कोई ब्वायफ्रेंड बने तो उसके लिए उसके कार्ड पर सबकुझ मैं लिखूं। काफी वक्त हो गया है हम दोनों को मिले लेकिन सबकुछ पहले जैसा ही है। जिन्दगी में दोस्तों का झुंड तो नहीं मिला पर कुछ मुट्टी भर अच्छे दोस्त जरूर मिले है। मैं यही चाहता हूं हर कोई अपने दोस्त के लिए एक कहानी संजोये और वह भावना जब धक से लगे तो कह दे। हैप्पी फ्रेंडशिप डे ....