Wednesday 24 December 2014

ऐसे दौर में जबकि विरोध और सवाल उठाना सम्भव नहीं है, वैसे में यह एक गुजारिश है बाजार की भावुकता और महानता से मुठभेड़ करने की।  तुलसी बाबा के शब्दों में कहें तो 'कहे बिना रहा नहीं जाता' ! और प्रख्यात विद्वान विद्यानिवास मिश्र ने कहने की लाचारी को साहित्य और रचाव की लाचारी कहा है ।
कोई माने या न माने .... सचिन को भारत रत्न… बाजार, मीडिया और मीडिया द्वारा सृजित अनुकूल 'जनमत' के कारण सोची-समझी रणनीति के कारण अचानक दिया गया। क्रिकेट के ज्वार और बाजार ने इसे सम्भव किया है। मुनाफाखोर लालची संस्कृति ने सम्भव किया है। यह असल समस्याओं से ध्यान भटकाने की भी साजिश है। लोग भूख, महंगाई, बीमारी, बेरोजगारी को भूल-भाल लोग सचिन को लेकर गदगद हो जाएं ! मंदिर बनवाकर पूजा करने लगें !  मेहनत, भय-भूख और संघर्ष की धरती बिहार में मंदिर भी बन रहा है। यह मानसिक गुलामी और दिवालियापन की हद है।


यह हमेशा होता है। सत्ता नयी-नयी तरकीब रचती है जिससे लोग उसी में उलझे रहें। फंसे रहें ! भारत रत्न नहीं पटाखा हो गया , जब चाहे फोड़ दो ! नागरिक पुरस्कारों का राजनीतिकरण हो गया है। यह दलगत स्वार्थ बनता जा रहा है। पद्म श्री, पद्म भूषण की लिस्ट उठा के देख लीजिये । ध्यान चंद, जो भारत के असल खेल रत्न हैं, जिन्होंने हिटलर के लुभावने प्रस्ताव को ठुकरा दिया था ! ध्यान चंद न सचिन की तरह टैक्स बचने वाले '' अभिनेता '' थे, न ही पैसे पर खेलने वाले खिलाड़ी। जिनके खेल और गोल की करतल ध्वनि को क्रिकेट के लीजेंड डॉन ब्रेडमैन ने भी देखा था। सराहा था। चूंकि ध्यानचंद अब नहीं हैं। उनके पीछे बाजार नहीं है ! विज्ञापनों की झूठ नहीं है। वे वोट की फसल नहीं हैं, सो सरकार और राजनीति को उनसे मतलब नहीं !

जब ध्यान चंद भारत का मान बढ़ा रहे थे, उस दौरान ब्रेकिंग न्यूज़ वाले न दीपक चौरसिया थे, न रवीश कुमार और न पुण्य प्रसून वाजपेयी, आशुतोष आदि , जो लगातार खबर चलाकर-----खेलकर ---तानकर किसी को हीरो या जीरो बना देते ! 

'हमने भगवान' को खेलते देखा है। भारत में क्रिकेट धर्म है और सचिन भगवान् हैं…। ''
इस तरह की बातें एक अर्से से जान बूझकर मीडिया माध्यमों द्वारा बाजार के दबाव में…कहें तो लालच में फैलाया जा रहा है। सनसनी पैदा की जा रही है। सारे मुद्दे हवा हो गए हैं। दलित-शोषित जनता की आवाज मीडिया से गायब है। मीडिया, खासकर टीवी मीडिया बाजार का गुलाम बन कर रह गया है ! एक तरह से यह असल समस्याओं से ध्यान भटकने का भी यह खेल है....! रोटी नहीं क्रिकेट धर्म है ? यह प्रपंच मेडिया द्वारा स्वीकृत बनाया जा रहा है। बार-बार झूठ बोलकर बाज़ार की भाषा को जनभाषा बना दो। यह वैचारिक कंगाली है। सचिन एक भले, विनम्र इंसान और खिलाड़ी हैं। मेधावी विलक्षण क्रिकेट प्रतिभा के रूप में उन्होंने लम्बा सफ़र तय किया है। रिकार्ड्स की झड़ी लगा दी। एक व्यक्ति और खिलाड़ी के रूप में वे हम सबके प्यारे-दुलारे हैं। वे बड़ों, सीनियरों से आज भी अदब से मिलते हैं। प्रभाष जोशी (जनसत्ता के संस्थापक संपादक, पत्रकार-विचारक ) सचिन के दीवाने थे। सचिन के रिकॉर्ड और खेल को लेकर भावुक हो जाते थे। जनसत्ता के पन्ने रंग जाते थे। आज वे होते तो झूम उठते--ठीक सचिन की माँ और करोड़ों लोगो की तरह। आज सचिन दौर में मुझे प्रभाष जी याद आ रहे हैं। वह तो ख़ुशी का बवाल मचा देते !  ''एक सचिन ने हमारे सपने को सच कर दिया '' लिखते ! लिखा भी है और बुद्धिजीवियों की आलोचना सही है अतिवादी प्रशस्ति को लेकर ! जबकि वे खुद रत्न थे।

तो भारत रत्न देने से लेकर अतिवादी शोर-गुल और ज्वार पैदा करना……खेल के हित में नहीं है। सचिन को निश्चित रूप से ' भगवान् ' बनाने की जिद उन्हें भी नहीं सुहाता ! उनकी राय गाहे-बगाहे अभिव्यक्त भी हुई है। खैर, अगर भारत रत्न क्रिकेट में ही देना जरूरी हो तो सुनील गावस्कर, कपिलदेव और धोनी को भी दे देना चाहिए ! सुनील और कपिल को तो अवश्य ही ! सुनील गावस्कर जिस दौरान खेल रहे थे तो क्रिक्रेट का मार्किट इतना बड़ा नहीं था। मीडिया माध्यम ले देकर दूरदर्शन और आकाशवाणी। ब्रेकिंग पर ब्रेकिंग वाला जमाना नहीं था। एक्सक्लूसिव की चीख नहीं थी। इंडियन पैसा लीग नहीं था ! फिर खेल के नियम, चुनौती उस समय के हिसाब से रन को देखिये। जिस समय वेस्टइंडीज का क्रिकेट में डंका बजता था, उस दौरान कपिल ने विश्व कप जीता। धोनी ने 28 साल बाद यह कारनामा दोहराया। 20-20 वर्ल्ड कप जीता। सफल कप्तान के रूप में धूम मचाई। बाजार भी कम नहीं। क्यों नहीं इन्हे भी दे देते ?

विश्वनाथन आनंद, पी टी उषा, मिल्खा सिंह, बाइचुंग भूटिया, लिएंडर पेस, अभिनव विन्द्रा, पी गोपी चंद ने क्या बिगाड़ा है ?  ये लड़ाकू तो अपने-अपने क्षेत्र में कही ज्यादा संघर्षी हैं । 
साहित्य-पत्रकारिता, कला के क्षेत्र में कोई रत्न नहीं हैं क्या ?

डॉ रामविलास शर्मा, डॉ नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर … ये भी २४ कैरेट वाले रत्न हैं । इनसे मीडिया और बाजार को कोई लेना देना नहीं है, सो आप इनके बारे में प्रायः नहीं जानते। 




यह सिर्फ विवाद के लिए विवाद नहीं है। यह अकसर होता है। भारत रत्न ही नहीं दुनिया के समस्त सम्मान-पुरस्कार के साथ वाद-विवाद का गहरा सम्बन्ध रहा है। नोबेल पुरस्कार…खासकर साहित्य और शांति को लेकर ज्यादा विवाद रहा है! गांधी बाबा को नोबेल नहीं मिला। जिसको लेकर नोबेल फॉउण्डेशन गाहे-बगाहे अफ़सोस व्यक्त करता रहा है !

भारत में साहित्य अकादमी, फ़िल्म फेयर, दादा साहब फाल्के और नागरिक सम्मानों की जो दशा-दिशा है…वह इस कारण है कि भारत में संस्कृति नहीं, संस्कृतियां हैं। जाति, समुदाय, धर्म, वाद, क्षेत्र, भाषा .... की विविधताएं हैं। जाहिर सी बात है....महानों की लाइन लगी है। वोट के फसल ने महानों को भी बाँट दिया है। वैचारिक दृष्टि से एक 'पंथ' के लिए जो बुर्जुआ है, दूसरे के लिए वह 'सर्वहारा' है ! कोई राष्ट्रवादी है तो कोई राष्ट्र निरपेक्ष है ! एक के लिए अंधविश्वास है तो दूसरे के लिए आस्था । ऐसे भी भारत महान में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और स्त्रियों के प्रति जिस तरह का झोल-झाल है, अन्याय है, पॉलिटिकली करेक्ट होने की चाल है, उसमे कर्पूरी ठाकुर, कांशी राम, जगजीवन राम .... कहां के रत्न हैं ? बाबा साहेब को अर्से बाद '' रत्न '' माना गया !

आज मीडिया और बाजार के दबाव में कोई पार्टी, पत्रकार, नेता .... सचिन को लेकर सवाल नहीं उठा सकता ! सवाल उठाने वाला शिवानंद तिवारी की तरह अलग-थलग पड़ जाता है। नूतन ठाकुर और अमिताभ हो जाता है ! यह ध्यान रखिये भले ही गावस्कर, कपिल, धनराज सहित सभी लोग सचिन को लेकर 'गौरवान्वित' हो रहे हों .... कोई उपाय नहीं है उनके पास गौरवान्वित होने के

अलावे ! लेकिन इस अतिवादी माहौल से एक टीस भी होगी,
कसक भी होगी ! अपने क्षेत्र में धनराज पिल्लै ने भी हाकी का स्तर ऊंचा उठाया। जिस दौर में सुनील गावस्कर और कपिल ने क्रिकेट खेला वह भी चरम क्षण था ! 10,000 रन और 432 विकेट कठिन चरम था। कपिल ने वेस्ट इंडीज के पताका दौर में विश्व कप साकार किया। अगर रिकार्ड्स, लोकप्रियता पैसा ही भारत रत्न का पैमाना हो तो अनेक दावेदार हैं । आखिर , पी गोपीचंद, अभिनव बिंद्रा ने क्या बिगाड़ा है किसी का ?

तो मेरी गुजारिश है कि रत्नों के असंख्यक दौर में 10-20  फील्ड से रत्न चुनिए , थोक के भाव से  दीजिये या इसे खत्म कर दीजिये ! नहीं तो मनमानी बंद कीजिये। मानक और पारदर्शिता अपनाएं।


यह लेख 2013 में लिखा गया था

Wednesday 10 December 2014

देश की राजधानी दिल्ली के सड़को पर एक बार फिर निर्भया कांड दोहराया जा चुका है। निर्भया गैंगरेप कांड में जो गुस्सा बलात्कार के आरोपियों के खिलाफ दिखा था। कुछ वैसा ही गुस्सा अब आरोपी कैब ड्राइवर और कैब सर्विस प्रोवाइडर कंपनी ऊबर के खिलाफ भी दिख रहा है। निर्भया के मौत के वक्त इसी शहर ने बता दिया था कि अब सारी हदें पार की जा चुकी हैं। वो रात दिन सड़कों पर जम गए। राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक दिल्ली के युवाओं से मिलने लगे। लेकिन टैक्सी में हुए कथित बलात्कार कांड ने यह दिखा दिया है कि महिलाओं की सुरक्षा के मामले में स्थिति अब भी जस की तस है। भारत में सार्वजनिक यातायात हमेंशा से उपेक्षा का शिकार रहा है। और यह क्षेत्र ट्रांसपोर्ट माफिया, स्थानीय असामाजिक तत्वों, भ्रष्ट परिवहन अधिकारियों और पुलिस वालों के अधिकार क्षेत्र में रहा है।

कैब सेवा के संचालन के लिए परिवहन विभाग ने कई तरह के नियम तय किए थे, पर इस 'इंटरनैशनल' कैब सर्विस का तो सब कुछ खस्ताहाल था। कैब में जीपीएस नहीं लगा था, जो कि जरूरी कर दिया गया है। आरोपी ड्राइवर ने मोबाइल सिम किसी और के नाम पर ले रखा था और पता भी गलत दिया था। सबसे बड़ी बात यह कि आरोपी पहले भी रेप के मामले में सजा भुगत चुका था, लेकिन कंपनी को इसका पता ही नहीं था। आश्चर्य है कि एक बार सजा भुगतने के बाद भी ड्राइवर ने फिर वही दरिंदगी की। साफ है कि उस पर सिस्टम का जरा भी खौफ नहीं था। होता भी कैसे? इस व्यवस्था ने उसे न सिर्फ बेखौफ होकर घूमने की सहूलियतें दीं बल्कि अच्छे चरित्र का प्रमाणपत्र भी दे डाला।

जहां निर्भया कांड ने यह दिखाया था कि दिल्ली में बस सुविधाओं की क्या स्थिति है और इस ताजा घटना से उन वेब आधारित टैक्सी सुविधाओं का खतरा दिख गया, जिनके बारे में यह नहीं पता है कि वे रेडिया टैक्सी सर्विस हैं या सिर्फ ग्राहकों और टैक्सी चालकों का संपर्क जोड़ने वाली वेब आधारित सुविधाएं हैं। 'निर्भया' कांड के बाद पैट्रोलिंग से लेकर एफआईआर के तौर-तरीकों और ट्रैफिक व्यवस्था तक में फेरबदल किए गए थे। पुलिस की सोच बदलने पर भी खासा जोर दिया गया था। लेकिन यह सब सिर्फ कहने के लिए था। इस पूरे घटनाक्रम में यदि किसी बात को ध्यान में लाने की जरूरत है तो वह है उस युवा महिला की बहादुरी है, जो उन सारे नेताओं की तुलना में महिलाओं की सुरक्षा की सबसे बड़ी पैरोकार बनकर उभरी हैं। जिसने दिल्ली की गलियों से एक दुष्कर्मी को बाहर निकालकर कठघरे तक पहुंचाया है।



Wednesday 3 December 2014

भोपाल गैस हादसे की आज 30वीं बरसी है। 2 और 3 दिसंबर की रात ही झीलों का ये शहर 'यूनियन कार्बाइड' कंपनी से निकली जहरीली गैस से दहल उठा था। हजारों लोग मारे गए थे, लेकिन 30 साल बीत जाने के बाद भी उस का दर्द आज भी कायम है। आज भी भोपाल में ऐसे कई परिवार हैं, जिनकी सासें तो चल रही हैं, लेकिन उनका जिन्दगी से कोई सरोकार नहीं है। 1984 की वो आधी रात जब भोपाल में लाख मौतें मरा था। देखते ही देखते पूरे शहर को एक विशाल गैस चैंबर में बदल दिया। लोग सड़कों पर बदहवास भाग रहे थे, उल्टियां कर रहे थे और तड़प-तड़पकर अपनी जान दे रहे थे। अंतिम संस्कार के लिए शहर में लकड़ियां और श्मशान घाट कम पड़ गए थे। हर जगह लाशें ही लाशें थीं। कैसे कोई भूल सकता है उस काली रात को। उस विभीषिका को। वह दिन, वह महीना, वह साल। इसके बाद ही तो भोपाल विश्व के मानचित्र पर आया था। लोग पहली दफा भोपाल को जानने लगे थे कि यह एक झीलों का शहर है।

गैस हादसे से पहले भोपाल केवल तीन चाजों के लिए जाने जाते थे। जर्दा, पर्दा और नामर्दा। लेकिन उस काली रात के बाद भोपाल 'यूनियन कार्बाइड' के लिये जानने लगे। दिसंबर का महीना बस शुरू ही हुआ था। महीने की दूसरी रात थी। जब 40 टन से ज्यादा जहरीली मिथाइल आइसो साइनेट गैस रिस कर शहर के एक बड़े हिस्सें में फैल गई। हजारों लोग उस काली रात मारे गए और न जाने कितने तिल-तिल कर आज भी जान गवां रहे है। कई इस हाल में हैं जिसकी सांसे तो चल रही हैं लेकिन वे जीवित नहीं है। यू तो इस हादसे को तीस बरस बीत गए, लेकिन तीस साल बीत जाने के बाद भी जान गंवाने वालों की संख्या न तब सही से पता चला था और न आज ही।

पहले भी सांसे लेने के लिए अस्पतालों में तांता लगा रहता था और आज भी। भोपालवासियों के लिए कुछ नहीं बदला। लोग उस बच्ची का चेहरा नहीं भूले जिसकी आंखें गैस ने छीन लीं और कब्र में वह आंखें खोले हमेशा के लिए सो गई। लेकिन इस साल प्रतीकात्मक बदलाव जरूर हुआ। हादसे से जुड़ा सबसे अधन चेहरा 'यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन' के चेयरमैन व सीईओ वारेन एंडरसन की मौत हो गई। लेकिन मुद्दे नहीं बदले जद्दोजहद जारी है। पीडि़तों की सरकार से। यूनियन कार्बाइड से। देश से लेकर अमेरिका तक। हताश कर देने वाली इस लड़ाई का एक दूसरा चेहरा भी है। चेहरा, अन्याय के खिलाफ लडऩे के साथ आगे बढऩे वालों का।