Wednesday 3 December 2014

भोपाल गैस हादसे की आज 30वीं बरसी है। 2 और 3 दिसंबर की रात ही झीलों का ये शहर 'यूनियन कार्बाइड' कंपनी से निकली जहरीली गैस से दहल उठा था। हजारों लोग मारे गए थे, लेकिन 30 साल बीत जाने के बाद भी उस का दर्द आज भी कायम है। आज भी भोपाल में ऐसे कई परिवार हैं, जिनकी सासें तो चल रही हैं, लेकिन उनका जिन्दगी से कोई सरोकार नहीं है। 1984 की वो आधी रात जब भोपाल में लाख मौतें मरा था। देखते ही देखते पूरे शहर को एक विशाल गैस चैंबर में बदल दिया। लोग सड़कों पर बदहवास भाग रहे थे, उल्टियां कर रहे थे और तड़प-तड़पकर अपनी जान दे रहे थे। अंतिम संस्कार के लिए शहर में लकड़ियां और श्मशान घाट कम पड़ गए थे। हर जगह लाशें ही लाशें थीं। कैसे कोई भूल सकता है उस काली रात को। उस विभीषिका को। वह दिन, वह महीना, वह साल। इसके बाद ही तो भोपाल विश्व के मानचित्र पर आया था। लोग पहली दफा भोपाल को जानने लगे थे कि यह एक झीलों का शहर है।

गैस हादसे से पहले भोपाल केवल तीन चाजों के लिए जाने जाते थे। जर्दा, पर्दा और नामर्दा। लेकिन उस काली रात के बाद भोपाल 'यूनियन कार्बाइड' के लिये जानने लगे। दिसंबर का महीना बस शुरू ही हुआ था। महीने की दूसरी रात थी। जब 40 टन से ज्यादा जहरीली मिथाइल आइसो साइनेट गैस रिस कर शहर के एक बड़े हिस्सें में फैल गई। हजारों लोग उस काली रात मारे गए और न जाने कितने तिल-तिल कर आज भी जान गवां रहे है। कई इस हाल में हैं जिसकी सांसे तो चल रही हैं लेकिन वे जीवित नहीं है। यू तो इस हादसे को तीस बरस बीत गए, लेकिन तीस साल बीत जाने के बाद भी जान गंवाने वालों की संख्या न तब सही से पता चला था और न आज ही।

पहले भी सांसे लेने के लिए अस्पतालों में तांता लगा रहता था और आज भी। भोपालवासियों के लिए कुछ नहीं बदला। लोग उस बच्ची का चेहरा नहीं भूले जिसकी आंखें गैस ने छीन लीं और कब्र में वह आंखें खोले हमेशा के लिए सो गई। लेकिन इस साल प्रतीकात्मक बदलाव जरूर हुआ। हादसे से जुड़ा सबसे अधन चेहरा 'यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन' के चेयरमैन व सीईओ वारेन एंडरसन की मौत हो गई। लेकिन मुद्दे नहीं बदले जद्दोजहद जारी है। पीडि़तों की सरकार से। यूनियन कार्बाइड से। देश से लेकर अमेरिका तक। हताश कर देने वाली इस लड़ाई का एक दूसरा चेहरा भी है। चेहरा, अन्याय के खिलाफ लडऩे के साथ आगे बढऩे वालों का।

Categories:

0 comments:

Post a Comment