Monday 27 October 2014

Posted by Gautam singh Posted on 05:55 | No comments

बचपन का सावन

बचपन इंसान के जिंदगी का सबसे हसीन और खूबशूरत पल होता है न कोई चिंता न कोई फिकर मां की गोद और पापा के कंधे न पैसे की चिंता न फियूचर की सोच। बस हर पल अपनी मस्तीयों में खोए रहना, खेलना कुदना और पढ़ना। बगैर किसी तनाव के, नन्हे होंठों पर फूलों सी खिलखीलाती हँसी, और मुस्कुराहट, वो शरारत, रूठना, मनाना, जिद पर अड़ जाना यही तो बचपन की पहचान है। सच कहें तो बचपन ही वह वक्त होता है, जब हम दुनियादारी के झमेलों से दूर अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं

'ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो, बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी' मशहुर गजल गायक जगजीत सिंह की ये पंक्तियां उम्र की एक दहलीज पर किसी को भी भावुकता के समंदर में डूबोने या उतारने के लिए काफी है। लेकिन आज कल के बच्चों के जिंदगी में वो बचपन आता कहां है। नानी और दादी की गोद, पापा और दादा के कंधों की सवारी करने के उम्र में इन बच्चों के कंधों पर भारी बस्ता का बोझ टाँग दिया जाता है और बच्चों से खचाखच भरी स्कूल बस में डाल दिया जाता है। चकाचौंध संस्कृति व चमकदार सपनें बचपन की मासूमियत को जाने अनजाने में डसने लगे हैं। इन नन्हें-नन्हें मासूम चेहरों पर मुस्कान के बजाय उदासी गणित के पहाड़ों में खोने लगी और हम इसे बदले परिवेश के एक हिस्से के रूप में स्वीकार भी करने लगे हैं। बेखौफ तरीके से जीने वाला वो बचपन कहीं खोता जा रहा है।

चमचमाते अंग्रेजी स्कूलों ने बच्चों को अंग्रेजी बोलना तो सीखा दिया, मगर बुजुर्गों के प्रति संवेदनाएं और जीवन के प्रति आशाएं यह स्कूल नहीं सीखा पायें। जब वे माता-पिता की अपेक्षाओं में खरे नहीं उतर पाते तब वे हीन-भावना से ग्रस्त हो जाते हैं। परिणामस्वरूप बच्चे गलत राह की ओर अभिमुख हो जाते हैं। वे असंवदेनशील हो जाते हैं।  किशोरों में दिनोंदिन आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, जो वर्तमान समाज के लिए बहुत बड़ी चिंता का विषय है। इसीलिए वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए समाज को अपनी सोच में बदलाव की जरूरत है। ऐसे संक्रमणकाल में पल रहे बचपन को खोने से कैसे बचाएं, इस पर आज विचार करने की आवश्यकता है। चिंतन की प्रक्रियाओं में बदलाव की जरूरत है। बचपन को बचाने के लिए मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास करने की जरूरत है।  

Friday 17 October 2014

कहा जाता है कि खुबसूरती ऊपरवाले की दी हुई सबसे अनमोल नेमत होती है जो हर किसी को नसीब नहीं होती। अपनी बेमिसाल खूबसूरती के लिए बॉलीवुड में अपनी एक अलग पहचान रखने वाली बॉलीवुड की ड्रीम गर्ल हेमामालनी भी एक ऐसी ही अदाकारा हैं जिनकी खूबसूरती पर आज भी लाखों जवां लोगों के दिल मर मिटते है। बेहतरीन अभिनय, शास्त्रीय नृत्य के अलावा भरतनाट्मय नृत्य शैली में महारत रखने वाली हेमामालनी शोहरत, सफलता और कामयाबी के शिखर पर पहुंची जिंदगी पर्दे से शुरू होकर लोकतंत्र की मंदीर संसद तक जा पहुची हैं।

सालों दर्शकों के दिलों पर राज करने वाली बॉलीवुड की स्वप्न सुंदरी नृत्यांगना हेमा मालिनी बॉलीवुड की उन गिनी-चुनी अभिनेत्रियों में शामिल हैं, जिनमें सौंदर्य और अभिनय का अनूठा संगम देखने को मिलता है। इसी अभिनय के दम पर हेमामालिनी हिन्दी फिल्म की पहली महिला सुपर स्टार बनी। लगभग चार दशक के कैरियर में उन्होंने कई सुपरहिट फिल्मों में काम किया। इनकी सुंदरता और अदाओं के कारण इन्हें बॉलीवुड की ड्रीम गर्ल्स कहा जाने लगा। आगे चलकर निर्माता प्रमोद चक्रवर्ती ने इस नाम से भी फिल्म बनायी। बालीवुड के लीजेंड कहे जाने वाले राज कपूर की फिल्म (सपनों का सौदागर) में पहली बार नायिका के रूप में काम करने का मौका मिला। फिल्म के प्रचार के दौरान हेमा मालिनी को। ड्रीम गर्ल. के रूप में प्रचारित किया गया। बदकिस्मती से फिल्म टिकट खिडकी पर असफल साबित हुई लेकिन अभिनेत्री के रूप में हेमा मालिनी को दर्शकों ने पसंद कर लिया।

हेमा मालिनी बालीवुड के उन गिनी-चुनी अभिनेत्रियों में शामिल हैं जिनमें सौंदर्य तथा अभिनय का अनूठा संगम देखने को मिला. हेमा मालिनी अभिनय के अलावा शास्त्रीय नृत्य में भी पारंगत है। जिस किसी भी फिल्म में हेमा मालिनी को नृत्य करने का मौका मिला उन्होंने दर्शकों पर अपने नृत्य कला की छाप छोड़ दी. इसके अलावा हेमा मालिनी का डॉयलाग कहने का अपना दिलकश अंदाज था जिसकी नकल आज की अभिनेत्रियां करती नजर आती हैं। हेमा का जन्म 16 अक्तूबर 1948 को तमिलनाडु के तंजावुर जिले के अम्माकुडी गांव में हुआ था। हेमा मालिनी को पहली सफलता वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म (जॉनी मेरा नाम) से हासिल हुई। इसमें उनके साथ अभिनेता देवानंद मुख्य भूमिका में थे। फिल्म में हेमा और देवानंद की जोडी को दर्शकों ने सिर आंखों पर लिया और फिल्म सुपरहिट रही। उसके बाद हेमा रातोंरात स्‍टार बन गईं। अपने फिल्मी करियर में करीब 150 फिल्मों में काम करने वाली हेमा ने बहुत सारे सुपरहिट फिल्में बनाई जिसमें ‘सीता और गीता’ 1972, ‘प्रेम नगर’ ,’अमीर गरीब’ 1974, ‘शोले’ 1975, ‘महबूबा’, ‘चरस’ 1976, ड्रीम गर्ल’, ‘किनारा’ 1977, ‘त्रिशूल’ 1978, ‘मीरा’ 1979, ‘कुदरत’, ‘नसीब’, ‘क्रांति’ 1980, ‘अंधा कानून’, ‘रजिया सुल्तान’ 1983, ‘रिहाई’ 1988, ‘जमाई राजा’ 1990, ‘बागबान’ 2003, ‘वीर जारा’ 2004, आदि शामिल है।

मेरे नसीब में तू हैं के नहीं, तेरे नसीब में मैं हूं के नहीं हेमा पर फिल्माया गया यह गाना उनके जीवन पर सटीक बैठता है। एक समय ऐसा भी था जब उनको चाहने वालों की कतार लगा करता था। जिसमें बालीवुड के ही मेन कहे जाने वाले धर्मेंद्र सुपरस्टार जीतेंद्र और संजीव कुमार भी शामिल थे। लेकिन हेमा के नसीब में तो शादीशुदा धर्मेंद्र लिखा था। इस लिए उनका दिल धर्मेंद्र पर आया और रील लाइफ की ड्रीम गर्ल हेमामालिनी 1980 में उनके रीयल लाइफ की ड्रीम गर्ल बन गईं।

Sunday 12 October 2014

आम जनमानस के दिमाग में अक्सर यह सवाल उठता है। जब वह सरकारी प्रणाली की मार खाते है। तब बुदबुदाते है, अकेला चना क्या भाड़ फोड सकता है। देश में संपूर्ण क्रांती की अखल जगाने वाले लोकनायक जयप्रकाश नरायण ऐसे ही एक चना है जिन्होंने अकेले ही शिक्षा में क्रान्ति, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी, को दूर करने के लिए घडे रूपी सरकार को तोड़ दिया। लोकनायक एक ऐसे शख्स थे जिन्होंने अपनी जिन्दगी देश के नाम कर दी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दिन में तारे दिखला दिए।

देश को आजाद कराने की लड़ाई से लेकर 1977 तक तमाम आंदोलनों की मसाल थामने वाले लोकनायक जयप्रकाश नरायण का नाम देश के ऐसे शख्स के रूप में उभरता है जिन्होंन अपने विचारों, दर्शन तथा अपने व्यक्तित्व से देश की दिशा तय करने वाले महान गांधीवादी नेता जयप्रकाश नरायण का जन्म 11 अक्तूबर 1902 को बिहार के महाराजगंज लोकसभा क्षेत्र में आने वाले 'लाला का टोला' में हुआ था। पटना से शुरुआती पढ़ाई करने के बाद वह शिक्षा के लिए अमेरिका भी गए हालांकि उनके मन में भारत को आजाद देखने की लौ जल रही थी। यही वजह रही कि वह स्वदेश लौटे और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय हुए। जब वह अमेरिका से स्वदेश लौटे तो उस वक्त वह मार्क्सवादी हुआ करते थे। वह सशस्त्र क्रांति के जरिए अंग्रेजी सत्ता को भारत से बेदखल करना चाहते थे, लेकिन बाद में बापू और नेहरू से मिलने एवं आजादी की लड़ाई में भाग लेने पर उनके इस दृष्टिकोण में बदलाव आया। नेहरू के कहने पर जेपी कांग्रेस के साथ जुड़े हालांकि आजादी के बाद वह आचार्य विनोभा भावे से प्रभावित हुए और उनके सर्वोदय आंदोलन से जुड़े। उन्होंने लंबे वक्त के लिए ग्रामीण भारत में इस आंदोलन को आगे बढ़ाया। उन्होंने आचार्य भावे के भूदान के आह्वान का पूरा समर्थन किया।

वे इंदिरा गांधी की प्रशासनिक नीतियों के विरुद्ध थे। 5 जून 1975 को अपने भाषण में कहा था "भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रान्ति लाना आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं; क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रान्ति- 'सम्पूर्ण क्रान्ति आवश्यक' है।" 5 जून, 1975 की विशाल सभा में जे. पी. ने पहली बार 'सम्पूर्ण क्रान्ति' के दो शब्दों का उच्चारण किया। उनका साफ कहना था कि इंदिरा सरकार को गिरना ही होगा। यह क्रान्ति बिहार और भारत में फैले भ्रष्टाचार की वजह से शुरू की। बिहार में लगी चिंगारी कब पूरे देश में फैल गई पता ही नहीं चला।

गिरते स्वास्थ्य के बावजूद उन्होंने बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन किया। उनके नेतृत्व में पीपुल्स फ्रंट ने गुजरात राज्य का चुनाव जीता। 1975 में इंदिरा गांधी ने आपात्काल की घोषणा की जिसके अंतर्गत जेपी सहित 600 से भी अधिक विरोधी नेताओं को बंदी बनाया गया और प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। जेल मे जेपी की तबीयत और भी खराब हुई। 7 महिने बाद उनको मुक्त कर दिया गया। 1977 जेपी के प्रयासों से एकजुट विरोध पक्ष ने इंदिरा गांधी को चुनाव में हरा दिया।

  

Friday 10 October 2014

यह बॉलिवुड है, यहां हर वयक्ति के आखों में सपने हजारों है। यहां हर किरदार खुद में अनगिनत कहानियां लिए घूमता है। एक स्ट्रगलर के अंदर कामयाब सितारे बनने की चाह तो एक कामयाब सितारे के पीछे उस कामयाबी तक पहुंचने की कई अनछुई कहानी। खुद में लाखों कहानियां लिए रंगमंच की ऐसी ही किरदार हैं रेखा। हिन्दी सिनेमा जगत में रेखा एक ऐसी अभिनेत्री हैं जिन्होंने अभिनेत्रियों को फिल्मों में परंपरागत रूप से पेश किए जाने के तरीके को बदलकर अपने बिंदास अभिनय से दर्शकों के बीच अपनी खास पहचान बनाई। आज रेखा का जन्मदिन है। शोहरत, सफलता और कामयाबी के शिखर पर पहुंची रेखा की जिंदगी पर्दे से शुरू होकर संसद तक जा चुकी है। 
इन आखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं, इन आंखों के बाबस्ता अफसाने हजारों हैं। रेखा पर फिल्माया गया यह गाना आज भी उनके जीवन पर सटीक बैठता है। रेखा की आंखों की मस्ती के आशिक हजारों थे और शायद आज भी हैं। रेखा का पूरा नाम भानुरेखा गणेशन कम ही लोग जानते हैं। 10 अक्टूबर 1954 को तमिल परिवार में जन्मीं भानुप्रिया के मां बाप दोनों ही अभिनय जगत से जुड़े हुए थे। उनके पिता जैमिनी गणेशन अभिनेता और मां पुष्पावली जानी मानी फिल्म अभिनेत्री थीं। घर में फिल्मी माहौल से रेखा का रूझान फिल्मों की ओर हो गया और वह भी अभिनेत्री बनने के ख्वाब देखने लगीं।

12 साल की उम्र में आई 'रंगुला रत्नम' उनकी पहली फिल्म थी जिसे बाद में 1976 में 'रंगीला रतन' के नाम से दोबारा हिन्दी में भी बनाया गया. मुंबई आने और हिन्दी फिल्मों में कदम रखने से पहले उन्होंने एक तेलुगू और एक कन्नड़ फिल्म की। बॉलिवुड में रेखा ने 'अनजाना सफर' से फिल्मी करियर की शुरू आत की इस फिल्म में अभिनेता विश्वजीत के साथ चुंबन सीन होने के कारण विवाद में पड़ गया। जिसके कारण सेंसरबोर्ड से स्वीकृती नहीं मिला। अरसे बाद यह फिल्म 'दो शिकारी' के नाम से रिलीज हुआ और टिकट खिड़की पर असफल साबित हुई।

इस कारण 1970 में आई 'सावन भादो' को उनकी पहली हिन्दी फिल्म माना जाता है। शुरुआत में सांवली रंगत, भारी शरीर और हिन्दी बोलने में सहज ना होने की वजह से बात बहुत जमीं नहीं। बाद में उन्होंने वजन कम किया और हिन्दी पर भी पकड बना कर दर्शकों के दिल पर राज किया। हिन्दी सिनेमा में उन्होंने कला और व्यावसायिक दोनों ही तरह की फिल्में कीं और शोहरत पाई। 'खूबसूरत', 'खून भरी मांग' और 'उमराव जान' उनकी बेहद कामयाब रही फिल्मों में से हैं। फिल्मी दुनिया के कई बड़े पुरस्कारों जीत चुकीं रेखा को भारत सरकार ने पद्मश्री से नवाजा है।



Sunday 5 October 2014

गंगा के किनारे खड़ी नाव में सभी यात्री बैठ चुके थे। बगल में ही युवक खड़ा था। नाविक ने उसे बुलाया, पर वह लड़का नहीं आया चूंकि उसके पास नाविक को उतराई देने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए वह नाव में नहीं बैठा और तैरकर घर पहुंचा। सच, सादगी, स्नेह, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा एवं निर्भीकता की मिसाल छः साल का एक लड़का अपने दोस्तों के साथ एक बगीचे में फूल तोड़ने के लिए घुस गया। उसके दोस्तों ने बहुत सारे फूल तोड़कर अपनी झोलियाँ भर लीं। वह लड़का सबसे छोटा और कमज़ोर होने के कारण सबसे पिछड़ गया। उसने पहला फूल तोड़ा ही था कि बगीचे का माली आ पहुँचा। दूसरे लड़के भागने में सफल हो गए लेकिन छोटा लड़का माली के हत्थे चढ़ गया। बहुत सारे फूलों के टूट जाने और दूसरे लड़कों के भाग जाने के कारण माली बहुत गुस्से में था। उसने अपना सारा क्रोध उस छः साल के बालक पर निकाला और उसे बहुत पीट। नन्हें बच्चे ने माली से कहा “आप मुझे इसलिए पीट रहे हैं क्योकि मेरे पिता नहीं हैं!”यह सुनकर माली का क्रोध खत्म हो गया, और वह बोला “बेटे, पिता के न होने पर तो तुम्हारी जिम्मेदारी और अधिक हो जाती है।”माली की मार खाने पर तो उस बच्चे ने एक आंसू भी नहीं बहाया था लेकिन यह सुनकर बच्चा बिलखकर रो पड़ा। यह बात उसके दिल में घर कर गई और उसने इसे जीवन भर नहीं भुलाया।

एक साधारण परिवार में जन्मे और विपदाओं से जूझते हुए सच, सादगी, और ईमानदारी के दम पर विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र देश के प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की अपने आपमें एक अनोखी मिसाल हैं- लाल बहादुर शास्त्री ‘जय जवान जय किसान’ जैसा जोशीला नारा देने वाले छोटे कद के शास्त्रीजी जनमानस के प्रेरणास्त्रोत रहे है। छोटी कद काठी में विशाल हृदय रखने वाले श्री शास्त्री के पास जहां अनसुलझी समस्याओं को आसानी से सुलझाने की विलक्षण क्षमता थी, वहीं अपनी खामियों को स्वीकारने का अदम्य साहस भी उनमें विद्यमान था। 64 में नेहरू के स्वर्गवास के बाद नेहरू के बिना भारत कैसा होगा के बीच देश के बहादुर लाल – लाल बहादुर शास्त्री ने कमान संभाली। उस समय देश का मनोबल टूटा हुआ था अकाल था भुकमरी थी। लेकिन शास्त्री जी की अदम्य इच्छा शक्ति भारत सम्हलने लगा। 17 साल का युवा भारत नए सपनें सजोने लगें। तभी 1965 में पाकिस्तान ने हमला कर दिया भारत को कब्जाने के लिए। तभी एक आवाज गूंजी ईट का जबाब पत्थर से देंगे और जय जवानो ने पाकिस्तान को हरा दिया। हम आजादी के बाद पहली लड़ाई जीते फिर ताशकंद में शान्ति वार्ता हुई। क्या हुआ क्या नहीं लेकिन हमने युद्ध तो जीत लिया लेकिन देश का बहादुर लाल अपना लाल बहादुर खो दिया।


      जीत गया अयूब, शास्त्री की अर्थी को कंधे पर ढोकर।
                                   मारा गया शिवाजी, अफजल की चोटों से घायल होकर।
                                   वह सब क्षेत्र ले लिया केवल जोर शोर से मेज बजाकर।
                                   पाकिस्तानी सेनायें थी नहीं ले सकी शस्त्र सजाकर।
                                   स्वाहा करे उपासक का घर हमें न ऐसा हवन चाहिए।
                                   तासकंद में प्राण खींच ले, हमें न ऐसी संधि चाहिए।



Friday 3 October 2014


ना कोई उमंग है, ना कोई पतंग है, मेरी जिंदगी है क्या, एक कटी पतंग है, आकाश से गिरी मैं एक बार कट के ऐसे दुनियाँ ने फिर ना पूछो, लूटा हैं मुझ को कैसे ना किसी का साथ है, ना किसी का संग है। आशा पारेख पर फिल्माया गया यह गाना उनके जीवन  शैली पर  बिल्कुल सटीक  है। हिन्दी सिनेमा की नायिकाओं में आशा पारेख की इमेज टॉम-बॉय की रही है। हमेशा चुलबुला, शरारती और नटखट अंदाज। के कारन ही शम्मी कपूर जैसे दिल हथेली पर लेकर चलने वाले नायक को वह शुरू से चाचा कहकर पुकारती थीं और उनके आखिरी समय तक यही सम्बोधन जारी रहा। फिल्मों के सेट पर शरारतों में व्यस्त रहने वाली आशा पारेख ऐसी टॉम बॉय थीं, जिनसे कोई सह-अभिनेता कभी अफेयर करने की सोच भी न सका। आशा पारेख ने कभी विवाह नहीं किया। इसके बावजूद आशा को अभिनय के क्षेत्र में वह मान्यता तथा प्रतिष्ठा नहीं मिली जो नूतन, वहीदा रहमान, शर्मिला टैगौर अथवा वैजयंती माला को नसीब हुई थी। यह अफसोस आशा के मन में आज तक कायम है।

2 अक्तूबर 1942 को जन्मी आशा पारेख को बचपन से ही डांस का शौक था। पड़ोस के घर में संगीत बजता, तो घर में उसके पैर थिरकने लगते थे। बचपन में बेबी आशा पारेख के नाम से फिल्मों में अभिनय शुरू किया, जिसका आगाज 1952 की फिल्म "आसमान" से हुआ। एक डांस शो में स्टेज पर देख कर बिमल रॉय ने 12 वर्ष की छोटी उम्र में उन्हें अपनी फिल्म "बाप-बेटी" में कास्ट किया। 16 साल में आशा पारेख ने फिर इंडस्ट्री में कदम रखा, मगर 1959 में फिल्म "गूंज उठी शहनाई" के लिए विजय भट्ट ने उनके स्थान पर अमीता को यह कहते हुए कास्ट कर लिया कि आशा स्टार मैटीरियल नहीं हैं। जैसे बॉलीवुड की बड़ी स्टार बनना आशा पारेख की नियति थी, अगले ही दिन फिल्म निर्माता सुबोध मुखर्जी और लेखक-निर्देशक नासिर हुसैन ने उन्हें शम्मी कपूर के अपोजिट "दिल दे के देखो" में कास्ट कर लिया। इस फिल्म ने आशा पारेख को बॉलीवुड की बड़ी हीरोइनों में शुमार कर दिया। 1960 में आशा पारेख को एक बार फिर से निर्माता-निर्देशक नासिर हुसैन की फिल्म जब प्यार किसी से होता है में काम करने का मौका मिला। फिल्म की सफलता ने आशा पारेख को स्टार के रूप में स्थापित कर दिया। इसके बाद आशा पारेख ने फिल्म उद्योग में कटी पतंग, बहारों के सपने, मैं तुलसी तेरे आंगन की, मेरे सनम, लव इन टोकियो, दो बदन, आये दिन बहार के, उपकार, शिकार, कन्यादान, साजन, और चिराग सहित कई सुपरहिट फिल्में दी हैं।

1966 में प्रदर्शित फिल्म तीसरी मंजिल आशा पारेख के सिने कैरियर की बड़ी सुपरहिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म के बाद आशा पारेख के कैरियर में ऐसा सुनहरा दौर भी आया जब उनकी हर फिल्म सिल्वर जुबली मनाने लगी। यह सिलसिला काफी लंबे समय तक चलता रहा। इन फिल्मों की कामयाबी को देखते हुए वे फिल्म इंडस्ट्री में जुबली गर्ल के नाम से प्रसिद्ध हो गईं। आशा पारेख ने लगभग 85 फिल्मों में अभिनय किया है।वर्ष 1992 में कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए पद्मश्री से नवाजा गया। 1995 में उन्होंने फिल्मों से संन्यास ले लिया, और उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी 'आकृति' की स्थापना की जिसके बैनर तले उन्होंने 'पलाश के फूल', 'बाजे पायल', 'कोरा कागज' और 'दाल में काला' जैसे लोकप्रिय धारावाहिकों का निर्माण किया। सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टीफिकेशन यानी सैंसर बोर्ड की पहली महिला चेयरपर्सन होने का गौरव भी उन्हीं को हासिल है। इस पद पर 1994 से 2000 तक कार्यरत रहते हुए उन्होंने अपने सख्त निर्णयों से काफी आलोचना भी झेली, जिनमें शेखर कपूर की फिल्म "एलिजाबेथ" को क्लीयरैंस न देना भी शामिल रहा।