Friday 3 October 2014


ना कोई उमंग है, ना कोई पतंग है, मेरी जिंदगी है क्या, एक कटी पतंग है, आकाश से गिरी मैं एक बार कट के ऐसे दुनियाँ ने फिर ना पूछो, लूटा हैं मुझ को कैसे ना किसी का साथ है, ना किसी का संग है। आशा पारेख पर फिल्माया गया यह गाना उनके जीवन  शैली पर  बिल्कुल सटीक  है। हिन्दी सिनेमा की नायिकाओं में आशा पारेख की इमेज टॉम-बॉय की रही है। हमेशा चुलबुला, शरारती और नटखट अंदाज। के कारन ही शम्मी कपूर जैसे दिल हथेली पर लेकर चलने वाले नायक को वह शुरू से चाचा कहकर पुकारती थीं और उनके आखिरी समय तक यही सम्बोधन जारी रहा। फिल्मों के सेट पर शरारतों में व्यस्त रहने वाली आशा पारेख ऐसी टॉम बॉय थीं, जिनसे कोई सह-अभिनेता कभी अफेयर करने की सोच भी न सका। आशा पारेख ने कभी विवाह नहीं किया। इसके बावजूद आशा को अभिनय के क्षेत्र में वह मान्यता तथा प्रतिष्ठा नहीं मिली जो नूतन, वहीदा रहमान, शर्मिला टैगौर अथवा वैजयंती माला को नसीब हुई थी। यह अफसोस आशा के मन में आज तक कायम है।

2 अक्तूबर 1942 को जन्मी आशा पारेख को बचपन से ही डांस का शौक था। पड़ोस के घर में संगीत बजता, तो घर में उसके पैर थिरकने लगते थे। बचपन में बेबी आशा पारेख के नाम से फिल्मों में अभिनय शुरू किया, जिसका आगाज 1952 की फिल्म "आसमान" से हुआ। एक डांस शो में स्टेज पर देख कर बिमल रॉय ने 12 वर्ष की छोटी उम्र में उन्हें अपनी फिल्म "बाप-बेटी" में कास्ट किया। 16 साल में आशा पारेख ने फिर इंडस्ट्री में कदम रखा, मगर 1959 में फिल्म "गूंज उठी शहनाई" के लिए विजय भट्ट ने उनके स्थान पर अमीता को यह कहते हुए कास्ट कर लिया कि आशा स्टार मैटीरियल नहीं हैं। जैसे बॉलीवुड की बड़ी स्टार बनना आशा पारेख की नियति थी, अगले ही दिन फिल्म निर्माता सुबोध मुखर्जी और लेखक-निर्देशक नासिर हुसैन ने उन्हें शम्मी कपूर के अपोजिट "दिल दे के देखो" में कास्ट कर लिया। इस फिल्म ने आशा पारेख को बॉलीवुड की बड़ी हीरोइनों में शुमार कर दिया। 1960 में आशा पारेख को एक बार फिर से निर्माता-निर्देशक नासिर हुसैन की फिल्म जब प्यार किसी से होता है में काम करने का मौका मिला। फिल्म की सफलता ने आशा पारेख को स्टार के रूप में स्थापित कर दिया। इसके बाद आशा पारेख ने फिल्म उद्योग में कटी पतंग, बहारों के सपने, मैं तुलसी तेरे आंगन की, मेरे सनम, लव इन टोकियो, दो बदन, आये दिन बहार के, उपकार, शिकार, कन्यादान, साजन, और चिराग सहित कई सुपरहिट फिल्में दी हैं।

1966 में प्रदर्शित फिल्म तीसरी मंजिल आशा पारेख के सिने कैरियर की बड़ी सुपरहिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म के बाद आशा पारेख के कैरियर में ऐसा सुनहरा दौर भी आया जब उनकी हर फिल्म सिल्वर जुबली मनाने लगी। यह सिलसिला काफी लंबे समय तक चलता रहा। इन फिल्मों की कामयाबी को देखते हुए वे फिल्म इंडस्ट्री में जुबली गर्ल के नाम से प्रसिद्ध हो गईं। आशा पारेख ने लगभग 85 फिल्मों में अभिनय किया है।वर्ष 1992 में कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए पद्मश्री से नवाजा गया। 1995 में उन्होंने फिल्मों से संन्यास ले लिया, और उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी 'आकृति' की स्थापना की जिसके बैनर तले उन्होंने 'पलाश के फूल', 'बाजे पायल', 'कोरा कागज' और 'दाल में काला' जैसे लोकप्रिय धारावाहिकों का निर्माण किया। सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टीफिकेशन यानी सैंसर बोर्ड की पहली महिला चेयरपर्सन होने का गौरव भी उन्हीं को हासिल है। इस पद पर 1994 से 2000 तक कार्यरत रहते हुए उन्होंने अपने सख्त निर्णयों से काफी आलोचना भी झेली, जिनमें शेखर कपूर की फिल्म "एलिजाबेथ" को क्लीयरैंस न देना भी शामिल रहा।














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