Saturday 31 December 2016

वक्त की शाखा से सोलह का पत्ता टूट कर गिर गया है। कलेवर बदलेगा या नहीं क्या पता मगर कैलेंडर तो बदल चुका है। दो हजार सोलह के पहले सूरज को देखकर किसने सोचा होगा कि वक्त इतना बेरहम होगा कि देश में नोटबंदी को लेकर सौ से ज्यादा लोगों को अपनी जान गवानी पडेगी। किसने सोचा होगा की अखिलेश को उनके ही पिता पार्टी से बेदखल कर देंगे। समाजवादी कुनबा में दंगल होगा। एक आतंकवादी के मारे जाने पर पूरा घाटी आग में जलने लगेगा। सेना के कैंपो पर आतंकी हमला जैसे कई छोटे-बड़े मुद्दे को लेकर लोग घाव गिनते रह जाएंगे। काल का गाल बड़ा विकराल है और समय की अपनी एक निपट अबूझ, अप्रत्याशित और शाश्‍वत गति है। इसलिए तारीख बदलने से अतीत कभी नहीं मरता। वह तो वर्तमान के तलवे में कांटे की तरह धंसा है। सोलह की चोटों से सतरह जरुर लंगड़ायेगा। मगर हमें भरोसा रखना चाहिए, यही वक्त उन चोटों पर मरहम भी लगायेगा।

सोलह की शुरूआत ही आंतक के साये में हुई। जब आतंकवादियों ने पठान कोट पर हमला किया और हर बार की तरह इस बार भी हमले की साजिश हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में रची गई। इस पूरे घटनाक्रम में पंजाब पुलिस की लापरवाही खुलकर सामने आई। तो वहीं आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद पूरी घाटी आग में जलते हुए दिखी। इस साल ही सितम्बर में जम्मू-कश्मीर के उरी में आर्मी हेडक्वॉर्टर पर आतंकी हमले में बीस जवान शहिद हो गए और इस बार भी हमले की साजिश पाक में ही रची गई। जिसके बाद आम लोगों में पाकिस्तान के खिलाफ बदले की भावना आग की भांती जलने लगी और भारी जन-दवाब के बाद हमारे सैनिको ने वह कर दिखाया जो आजाद भारत में पहले कभी नहीं हुआ। हमारे सैनिकों ने इस हमले का बदला लेते हुए पाक अधिकृत कश्मीर में घुस कर सात आतंकी शिविर को तहस-नहस कर दिया जिसमें कम से कम 50 आतंकी मारे गए। तो वही इस साल देश के अंदर राष्ट्रविरोधी नारे भी सुनने को मिले जब देश की सबसे प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में देश के खिलाफ नारे लगे। तो इसी साल पूर्व वायुसेना प्रमुख केसी त्यागी को जेल जाना पड़ा।

तो वहीं दूसरी घटना बुलंदशहर में घटित हुई जब एक मां-बाप के सामने बच्ची के साथ गैंग रेप की किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काले धन और आतंक पर लगाम लगाने के लिए पांच सौ औऱ हजार के नोटों को बंद कर दिया औऱ आजाद भारत में पहली बार लोग काम-काज छोड़ बैंकों के सामने लाइन में लगे मिले। इस नोटबंदी में सौ से ज्यादा लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी। तो वहीं इस साल समाजवादी कुनबे में मची कलह भी देश के लोगों ने देखी। जहां पिता भाई के मोह में अपने ही बेटे और यूपी के सीएम को पार्टी से निकाल देते है। तो वहीं अम्मा (जयललिता) हमारे बीच नहीं रही उनकी मौत की खबर ने सैकड़ों लोगों की जान ले ली ये कुछ घाव है जो हमें सोलह दे कर जा रहा है लोग इन घाव को गिनते रह जाएंगे। ताऱिख जरूर बदल रही है पर अतीत कभी मरता नहीं वह तो वर्तमान के तलवे में कांटे की तरह धंसा है। सोलह की चोटों से सतरह जरुर लंगड़ायेगा। मगर हमें भरोसा रखना चाहिए, यही वक्त उन चोटों पर मरहम भी लगायेगा।

Sunday 25 December 2016

भूख और डर से, निरक्षरता और अभाव से मुक्त भारत का सपना देखने वाले अटल बिहारी वाजपेयी समकालीन भारतीय राजनीति का 'ग्रैंड ओल्ड मैन' वर्तमान में भारतीय राजनीति के 'भीष्म पितामह' वाणी में प्राण और प्राण में प्रण लेकर पैदा हुए अलट बिहारी वाजपेयी शुरू से ही कवि थे। उनका रचा हुआ। बाधाएँ आती हैं आएँ घिरें प्रलय की घोर घटाएँ, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ, निज हाथों में हँसते-हँसते, आग लगाकर जलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। आज के दौर में सबसे ज्यादा जरूरत है। जराजनीतिक अफरा-तफरी और अराजक आरोपों के दौर में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे अजातशत्रु राजनेता की सक्रियता बहुत जरूरी महसूस होती है। उनके व्यक्तित्व का ही यह चुम्बकीय गुण था कि वैचारिक दृष्टि से विपरीत ध्रुव वाले राजनेता और दल भी उनके साथ आ जुडने के लिए कभी संकोच नहीं करते थे। लिखने पढ़ने के शौक के लिए जाने-जाने वाले भारत रत्न वाजपेयी आज अखबार भी नहीं पढ़ पा पाते बेहतरीन कवि, महान नेता और सफल पीएम के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले अटल बिहरी बाजपेयी खराब स्वास्थ के कारण राजनीतिक दुनिया से बहुत दूर है पर उनके आदर्श और बातें आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं। तभी तो कभी उनकी खड़ाऊ तो कभी उनकी चिठ्ठी लोगों के जीतने का कारण बनती है।

Friday 23 December 2016

तैमूर एक ऐसा नाम जिससे सारे सोशल साइट (फेसबुक, ट्वीटर, से लेकर वाट्स एप) वाले घबरा गए है। पूरे देश में तैमूर को लेकर बहस छिड़ी हूई है। क्या किसी बुरे शख्स का नाम रखने से जरूरी तो नहीं वह बच्चा भी बुरा ही हो? और यह भी जरूरी नहीं की राम, कृष्ण, शंकर या गौतम नाम रख लेने से वह मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जैसा ही हो या कृष्ण नाम रख देने से वह भगवान कृष्ण जैसा ही हो या शंकर रख देने से वह जहर का प्याला पीकर संसार को बचाए या गौतम नाम रख देने से गौतम बुद्ध वाला ही विचार उसके अंदर हो, इस बात की कोई गारंटी दे सकता है क्या? भारतीय सविधान के अनुसार अपने बच्चे का नाम खुद चुनेन और रखने की आजादी है और हर मां बाप अपने बच्चे का नाम सबसे ज्यादा माथापच्ची करके रखते है।

सैफ और करीना ने भी रखा- तैमूर अली खान पटौदी। तो क्या बुराई है इस नाम में? वैसे भी तैमूर का तमलब होता है। फौलाद या लोहा हम इसे इस नजरियें से क्यों न देखे वैसे भी जिस शख्स को लेकर इस नाम पर इतना बहस हो रहा है। वह शख्स अपने बुरे कर्मो की वजह से जाना जाता है। नाम की वजह से उसने ऐसा काम किया हो ऐसा तो नहीं हो सकता। हां हिंसक, क्रूर, बलात्कारी, हत्यारा, लुटेरा कोई शख्स हो सकता है, पर नाम नहीं। हम लोग बचपन से पढ़ते या सुनते आए है। अच्छे काम करों नाम कमाओं इससे तो एक बात साफ है। काम से नाम होता है न की नाम से काम अगर नाम से काम की पहचान होता तो बाबर, सिकंदर जैसे नाम वाले लोग कितने लोगों का नरसंहार कर चुके होते। रावण के बेटे का नाम भी अक्षय था तो क्या अक्षय नाम लेते ही हमें रावन का बोध होता है क्या? अभी अक्षय का नाम आते ही हमारे दिलो-दिमाग में वॉलीबुड के खिलाड़ी कुमार का चेहरा परत दर परत उभरने लगता है।

तो क्या उसके उपर रावण के बेटा होने का कोई धब्बा लगा है क्या? 16 दिसंबर की रात देश को तार-तार कर देने वाला निर्भया कांड में निर्भया के साथ बलात्कार करने वालों में शामिल आरोपियों में से एक आरोपी का नाम राम सिंह था। तो क्या अब यह नाम रखने का भी वैसा ही विरोध किया जाएगा, जैसा विरोध सैफअली खान और करीना के घर जन्मे बच्चे के नाम पर हो रहा है? नाम से अगर किसी व्यक्ति के अच्छे-बुरे गुण शख्सियत में शामिल होता तो आज विश्व के हालात ही कुछ और होते। तैमूर बड़ा होकर खून-खराबा करेगा या आने वाली पीढ़ी उसकी फिल्मों का बेसब्री से इंतजार करेगी…यह तैमूर अली खान के कर्म तय करेंगे, न कि उसका नाम। इसलिए इस संभावना को बल क्यों ना दिया जाना चाहिए कि जब तैमूर की बात हो तो तैमूर लंग नहीं तैमूर अली खान की तस्वीर हमारे जहन आए...

Thursday 22 December 2016

तुम तक मेरा खामोश सलाम पहुंचे। तुम खोमोश, मैं खामोश, ऐसा प्रतित हो रहा है जैसे पूरा दुनिया खामोश। एक लाश की भांती शांत, ठंठा और अकड़ा हुआ कितना भयानक है ये सन्नाटा! कलम भी कितनी खामोशी से चल रही है... इसके लिखे अक्षर भी कितने खामोश है। इन अक्षरों का कोहराम नहीं रहे मेरे...घर के दरवाजे पर ठहरा हुआ, तेरी आहट का साया कच्ची नींद से अक्सर रात में, इसने हमें जगाया है। जालिम तुम क्या चुप हुई, जीवन का संगीत ही थम गया, हर साज चुप, हर आवाज चुप... मैं गाता भी हूं तो मेरा आवाज चुप किसी तीर की तरह और उसे घायल कर देती है। अब चिड़ियों का चहचाना या कोयल का गाना कानों में अमृत नहीं विष घोलती है। पर ये बिना बोले रह भी तो नहीं सकते पर इनकी हर आवाज मुझे कचोटती है... कितना अच्छा होता तुम बोलती ये खामोश रहते ये खामोशी मुझे प्रिय होती, यदि सिर्फ तुम बोलती और सारी प्रकृति चुपरहती। तुम्हारे स्वरों में प्रकृति के हर स्वर का अनुभव कर लेता मैं। मगर सारी प्रकृति बोल रही है और तुम खामोश और स्थिर हो पत्थर की भांती....
कभी देखा, सुना या महसूस किया है खानाबदोश की खामोशी को...गरिबी की चादर लपेटे हाड़ तक कपकपा देने वाली सर्द भरी रातों में टिमटिमाते तारे और खुले आसमां के बीच दिलो और दिमाग को जमा देने वाले ठंड में कैसे जीते है। कभी उनके अंदर उठते गहरे समंदर के लहरो को कभी देखने की कोशिश की है। कैसे बेबस आंखे सर्द में डुबी खौफनाक सन्नाटे के बीच रात में खुले आसमान में शुन्य की ओर निहारती है। कैसे जरा-जरा सांस लेते हुए प्रतीत होता है। सुनों कभी तुमने महसूस किया है उनकी खानाबदोश गरिबी को, उनकी बेबसी को, उनके तड़प को, उनकी आह को, उनकी असहन पीड़ा को... तुम्हें क्या पड़ी है उनके इस सारी तकलीफों को महसूस करने की... क्योंकि तुम सोचते हो, गरिबी, उदासी, बेबसी, आह, तड़प ये सब तो खुदा की दी हुई तकलिफ है और उसने तो तुम से कुछ कहा भी नहीं है अपने परेशानियों के बारे तो तुम क्यों खामखाह उनके तरफ झाकोंगे लेकिन कभी देखो महसूस करों खानाबदोश की खामोशीयों को कितना कुछ कहता है। कितना चिल्लाता है। किताना आंसू टपकाता है। खानाबदोश की बेबस खामोशी.... 

Thursday 15 December 2016

Posted by Gautam singh Posted on 02:59 | No comments

बाल विवाह एक अभिशाप

बचपन इंसान के जिंदगी का सबसे हसीन और खूबसूरत पल होता है न कोई चिंता न कोई फिकर मां की गोद और पापा के कंधे न पैसे की चिंता न फ्यूचर की सोच। बस हर पल अपनी मस्तियों में खोए रहना, खेलना कुदना और पढ़ना। बगैर किसी तनाव के, लेकिन प्रत्येक बच्चा इतना खुशनसीब नहीं होता। हमारे समाज में कई बुराइयां है, जिनमें से एक है बाल विवाह। जो बच्चों से उसका बचपन छीन लेता है। बचपन एक फूल की भांति होता है। जिसमें मासूमियत के अलावा और कुछ नहीं होता। वो जीवन स्वार्थ से परे होता है, लेकिन हमारे समाज में कुछ स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ के लिए बच्चों की मासूमियत छीन लेते हैं।

जहाँ आज की भागती-दौड़ती जिंदगी में युवा पीढ़ी शादी से घबराती है तो वहीं इन छोटे-छोटे बच्चों को जीवन के इस बंधन में बांध देते हैं। जिस उम्र में इन बच्चों को खेलना-कुदना, पढ़ना-लिखना चाहिए, उन्हें शादी जैसे ताउम्र साथ निभाने वाले बंधन में बांध दिया जाता है। हमलोग बचपन से ही किताबों में पढ़ते आए हैं कि 'एक सफल जीवन के लिये खुशहाल बचपन बहुत जरूरी है', लेकिन ऐसे में खूशहाल जीवन कैसे होगा? जिसका बचपन ही विवाह जैसे भारी-भरकम रिश्तों से बांध दिया जाता हो।


विवाह एक ऐसा रिश्ता है जिसके लिए लड़का और लड़की दोनों को मानसिक और शाररिक रूप से तैयार होना बहुत जरूरी होता है। पर जिस उम्र में इन बच्चों का विवाह कराया जाता है, उस उम्र में यह पता ही नहीं होता कि शादी आखिर होती क्या है? जिसके कारण आने वाले पीढ़ी से लेकर खुद जच्चा और बच्चा दोनों की जान खतरे में बनी रहती है। 2007 में जारी यूनीसेफ की एक रिर्पोट के अनुसार भारत में औसतन 46 फ़ीसदी महिलाओं का विवाह 18 वर्ष होने से पहले ही कर दिया जाता है, जबकि ग्रामीण इलाकों में यह औसत 55 फ़ीसदी है। हालांकि पिछले 20 वर्षों में देश में विवाह की औसत उम्र धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन बाल विवाह की कुप्रथा अब भी बड़े पैमाने पर प्रचलित है, जिसका मूल कारण हैं लिंग भेद और शिक्षा की अव्यवस्था।

2001 जनगणना के मुताबिक़ राजस्थान देश के उन सभी राज्यों में सबसे ऊपर है, जिनमें बाल विवाह की यह कुप्रथा सदियों से चली आ रही है। राज्य की 5.6 फ़ीसदी नाबालिग आबाद विवाहित है। इसके बाद मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, गोवा, हिमाचल प्रदेश और केरल आते हैं। यहां इतनी छोटी उम्र में विवाह जैसे पवित्र रिश्ते से बांध दिए जाते है जिसे अभी चलना तक भी नहीं आता। आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी हमारे देश की स्थति ज्यों की त्यों बनी हुए है। एक तरफ जहां हम चांद और मंगल पर पहुंच रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ बाल विवाह जैसी कुप्रथा को हम खत्म नहीं कर पाए हैं।

बाल विवाह को रोकने के लिये अंग्रेजी हुकुमत ने 1928 में शारदा एक्ट बनाया जिसके अन्तर्गत नाबालिक लड़के और लड़कियों का विवाह करने और कराने पर जुर्माना और कैद रखा, लेकिन इसके वाबजूद बाल विवाह हमारे समाज में खुए आम होते रहे। इसको रोकने के लिए सन्र 1978 में संसद द्वारा बाल विवाह निवारण कानून में संसोधन कर इसे पारित किया गया। जिसमे विवाह की आयु लड़कियों के लिये 18 साल औए लड़को के लिये 21 साल निर्धारित की गई। इसके बाद सरकार द्वारा बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 पारित किया गया। ये अधिनियम बाल विवाह को आंशिक रुप से सीमित करने के स्थान पर इसे सख्ती से प्रतिबंधित करता है। लेकिन हमारे देश की यह विडंबना ही है की जिस देश में महिलाओं को देवी माना जाता हो जिस देश की महिलाएं राष्ट्रपति जैसे पद पर आसीन रही हो वहां बाल विवाह जैसी कुप्रथा के चलते बालिकाएं अपने अधिकारों से वंचित रह जाती है। बाल विवाह एक सामाजिक समस्या है। इसका निदान सामाजिक जागरूकता से ही संभव है। आज युवा वर्ग और हर वर्ग को आगे आकर इसके विरुद्ध आवाज उठानी होगी। तब जा कर देश से बाल विवाह जैसे दंश का विनास होगा।


मेरी तलाश अभी जारी हैं ....मुझे मेरे सफर का अभी अंजाम नहीं मिला
जिस्मों की भीड़ हैं हर तरह .... मुझे एक भी जिन्दा इंसान नहीं मिला

Monday 17 October 2016

Posted by Gautam singh Posted on 22:34 | No comments

"खुद को लिखा खत"

डीयर ड्रीम परेशान मत हो, जिन लोगों को तुम बुरा समझने की गलती कर रहे हो, दरअशल वह बुरे नहीं हैं, उनका स्वभाव ही ऐसा है। वह जैसे कल थे, वैसे ही आज हैं और ऐसे ही आने वाले कल में रहेंगे। उनको लेकर चिंता मत करो। आज तुम्हारा वक्त, तुम्हारे हालात, तुम्हारी परिस्थितियां सबकुछ तुम्हारे विपरीत चल रही हैं और हो सकता है कि आगे कुछ समय तक और भी चलें, लेकिन तुम जरा भी निराश मत होना। 

ड्रीम, लोग कहते हैं कि तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान बहुत अच्छी लगती है, तुम्हारी स्माइली की वजह से बहुत से लोगों ने तुम्हें मुस्कान नाम भी दे रखा है, पर तुम्हारा यह उदासी भरा चेहरा देखकर अच्छा नहीं लगता है। ड्रीम यार! दुःख-दर्द तो आते-जाते ही रहते हैं। यह बात अलग है कि तुम्हारा समय कुछ ज्यादा ही खराब रहा है। तुमने जितने कष्ट अपनी छोटी सी जिंदगी में देख लिए हैं उतने तो शायद कोई सोच भी नहीं सकता। ड्रीम तुम्हे पता है कि जिंदगी जितनी कठिन होती है उतनी ही रोचक भी होती है। तुम भगवान् को नहीं मानते हो यह अलग विषय है, लेकिन अभी वही भगवान तुम्हारी परीक्षाएं ले रहा है।

इस समय तुम भी पानी की तरह हो जाओ। बह जाना पर टूटना मत और मुझे उम्मीद है कि तुम टूटोगे नहीं, क्योंकि तुम इस मामले में बहुत ही हिम्मती हो, लेकिन अभी के हालातों को देखकर कोई गलत कदम मत उठाना क्योंकि तुमसे बहुत लोगों की आस, उम्मीद जुडी है। ड्रीम तुम खुद कैसे निराश हो सकते हो, तुम तो लोगों को मोटिवेट किया करते थे। तुम्हारी तरक्की और लगन देखकर लोग तुम्हारी चर्चा किया करेंगे। बस कुछ दिन का ही यह बुरा वक्त है इसे कैसे भी हंसते-रोते काट लो।

सुनहरा कल तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। ड्रीम तुम्हे भगवान ने अलग ही मिटटी से बनाया है। तुम दूसरों का दर्द देखकर रो देते हो। किसी को मजबूर देखकर विचलित हो उठते हो। उसकी सहायता के लिए तुम अपना जरूरी से जरूरी काम छोड़ देते हो। यह सारे काम भगवान् देख रहा है। तुम्हे पता है कि भगवान अपने भक्त की बहुत परीक्षाएं लेता है तब जाकर उसे दर्शन प्राप्त होते हैं। हीरे को भी कोयले में दबा रहना पड़ता है। तुम भी वही हीरा हो। ड्रीम तुम्हारी सबसे बड़ी कमजोरी है कि तुम हर किसी पर विश्वास कर लेते हो।

उसको अपना मान बैठते हो। बस इसी कारण से तुम धोखा खा जाते हो, लोग तुम्हारे साथ कुठारघात कर देते हैं। ड्रीम यार जमाने के हिसाब से थोड़ा सा बदलाव लाओ। मैं तुमको गलत राह पर जाने के लिये नहीं बोल रहा हूँ लेकिन समाज बदल रहा है जरा सा तुम भी बदल जाओ। यूँ हर किसी पर विश्वास करना छोड़ दो। देखोगे जिंदगी में कुछ परेशानियां कम हो जाएँगी। मेहनती तो तुम हो ही पर मौका परास्त भी बनो। अगर यूँ हर किसी के सम्मान में कुर्सी छोड़ते रहोगे तो खुद कभी नहीं बैठ पाओगे।

Friday 27 May 2016

Posted by Gautam singh Posted on 02:30 | No comments

मोदी सरकार के दो साल



पिछले लोक सभा चुनाव में जिस तरह से बीजेपी ने नारा दिया था, और उस नारे ने आम जनमानस के ऊपर जो छाप छोड़ा उससे ही बीजेपी पूर्ण बहूमत में आ सकी। लोगों के सामने उन्होंने 'सबका साथ और सबका विकास' की बातें की। साथ ही 'अच्छे दिन' आने के सपने दिखाए। अगर कसौटी पर देखे तो सरकार के दो साल पूरे होने बाद ये सपने आम लोगों को सच होते दिख भी रहा है।

पिछले दो सालों में मोदी सरकार ने जिस प्रकार से कई योजनाएं चलाई है। वह सरकार के मजबूत इरादे को दिखाती है। मोदी सरकार ने 'बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ', 'स्वच्छ भारत', 'मेक इन इंडिया', 'डिजिटल इंडिया' और 'सबका साथ-सबका विकास' जैसे नारों को लोकप्रिय बनाया। हमें देश को इन भावनाओं से जोड़ने की जरूरत है और इन बातों में नारों की भूमिका होती है। गांधी से लेकर माओ-रसे-तुंग ने अतीत में नारों की मदद से ही अपने सामूहिक अभियान छेड़े थे। पर नारों को जमीन पर व्यावहारिक रूप से उतरना भी चाहिए।

जो मोदी सरकार कर भी रही है। कुर्सी संभालने के दो ढाई महीने बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब न्यूयॉर्क के जानेमाने मैडिसन स्कवेयर गार्डन पहुंचे तो शहर में मोदी-मोदी के नारे गूंज रहे थे। टाइम्स स्कवेयर की विशाल टीवी स्क्रीन पर उनकी तस्वीरें दिखाई जा रही थीं और शहर का ट्रैफिक मानो हिलने का नाम नहीं ले रहा था। उनकी जीत के फौरन बाद वाशिंगटन पोस्ट ने मुख्य संपादकीय में उनकी एक बड़ी सी तस्वीर प्रकाशित की थी और उसमें सवाल था, मोदी भारत में चीन जैसी तरक्की का महत्वाकांक्षी सपना दिखा रहे हैं। मोदी सरकार बनने के बाद केन्द्र सरकार के सचिवालय में काम बढ़ा है।

तमाम मंत्री अपना पूरा समय दफ्तरों में लगा रहे हैं। विदेश, बिजली, रेलवे, रक्षा, विदेश व्यापार, उद्योग, परिवहन और इसी तरह के कुछ दूसरे मंत्रालयों में काफी अच्छा काम हुआ है। बड़े नीतिगत बदलाव भी हुए हैं। संयोग से वैश्विक अर्थ-व्यवस्था के लिए खराब समय चल रहा है। इसलिए सबसे बड़ी चुनौती वित्त मंत्रालय के सामने है। आर्थिक उदारीकरण का काम धीमी गति से चल रहा है। यह गति यूपीए के शासन में भी धीमी थी।

मोदी सरकार और उससे पहले मनमोहन सरकार की कोशिश देश में पूँजी निवेश के माहौल को बेहतर बनाने की थी। मनमोहन सरकार को भी बीजेपी के अलावा अपनी ही पार्टी के विरोध का सामना करना होता था। बावजूद इन बातों के स्थितियाँ बेहतर होती जा रही हैं। राष्ट्र सर्वप्रथम के मार्ग पर चलते हुए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शपथ लेते ही अपने इरादे जता दिए थे कि वे 'गुजरात के विकास मौडल' को संपूर्ण भारत का मौडल बनाकर देश को आगे ले जाना चाहते है। 

Saturday 30 April 2016

Posted by Gautam singh Posted on 23:18 | No comments

डिग्री से क्या होगा?

जिस तरीके से डिग्री को लेकर आज-कल देश में बहस छिड़ी हुई है। उससे क्या होने वाला है। अभी गुजरात विश्वविद्यालय को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पत्राचार कोर्स की डिग्री के बारे में जानकारी देने को कहा गया है। इससे क्या होगा? क्या डिग्री दिखाने से किसी को रोजगार मिल सकता है? अगर रोजगार मिल जाए तो मैं भी डिग्री दिखाने को तैयार हूं। दो ग्रेजुएशन और एक मास्टर की क्या इसेस मुझे रोजगार मिल जाएगा? इन तीन डिग्रियों में मैंने दो डिग्री लाया भी नहीं मुझे सर्टिफिकेट की कोई चिंता नहीं क्योंकि इस कोर्स से मुझे कुछ मिला नहीं बस समय और पैसों की बर्बादी के अलावे और मुझे उम्मीद भी नहीं है कि यह डिग्री मुझे रोजगार दिला भी सकती है। 


एक रिर्पोट के मुताबिक दुनिया के शीर्ष 10 फीसदी में एक लाख छात्र भारत से होते हैं। ऐसी स्थिति में लोग विश्वास करने के लिए तैयार ही नहीं होते कि भारत में लाखों लोग बिना किसी निपुणता के भी हैं। यह एक कटु सत्य है। हमारे देश में खराब शिक्षा के कई पहलू है। पहला प्राथमिक शिक्षा उसके बाद दूसरा पहलू उच्च शिक्षा की गुणवत्ता से जुड़ा है। खासकर विशिष्टता वाले क्षेत्र में तो इसकी हालत तो और भी खराब है। एसोसिएशन ऑफ इंडिया चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (एसोचैम) की हाल की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में एमबीए करने वालों में मात्र सात फीसदी लोग ही नौकरी के लायक हैं।

ऐसी ही तस्वीर आईटी इंडस्ट्री की है। नैस्कॉम के आंकड़ो के मुताबिक 90 फीसदी स्नातक और 75 फीसदी इंजीनियर प्रशिक्षण हासिल करने लायक नहीं हैं। ऐसे में एक बात तो सबके सामने है कि हमारी जितनी भी शैक्षणिक संस्थाएं है बेरोजगार भारतीय पैदा करती है। हमें शिक्षा व्यवस्था में बुहत सुधार की जरुरत है अगर हम मेक इन इंडिया को कामयाब बनाना चाहते है तो लोगों को ऐसे शिक्षा व्यवस्था से निकाल कर कारखानों में ट्रेनिंग के लिए भेजना होगा। नहीं तो ऐसे डिग्री दिखाने या देखने से कुछ नहीं होने वाला।

Wednesday 6 April 2016

कहीं भी जाने की बात उठती तो पेट गुड़गुड़ाने लगता है। जब तक फ्लश की आवाज न सुन ले, जुतों के फीते बांधने का कोई फायदा नहीं होता। मेरे लिए घर जाने का मतलब अपने अपनों का साथ यकीन मानिए मेरी बहुत छोटी सी दुनिया है जिसमें बहुत से लोग नहीं हैं। कुछ ही लोग है। उन्हीं कुछ लोगों मे से कुछ के साथ मैं दिल्ली से घर आ रहा था। दिल्ली से गरीब रथ में अपने कुछ दोस्तो के संग चल पड़ा, तीन बैग पीठ पर लादे, जिमसें पहनने-ओढने, लेपटॉप, पढ़ने-लिखने की आवश्यक सामग्री साथ में थी। उन दोस्तों में से एक एसी भी दोस्त थी जिसके पास टिकट नहीं था वह बिना टिकट ट्रेन में आ गई थी। संयोग से हम लोगों की सीट दो बोगियों में थी। जी-9 और जी-3 दोनों के बीच में छह बोगियों का अंतर था। मेरा सीट जी-9 में था,और बिना टिकट वाली दोस्त भी मेरे ही सीट पर बैठी थी। कुछ देर बाद टीटी आए और टिकट चेक करने लगे मुझे लगा अब यह लड़की टीटी के गिरफ्त में आएंगी अगर टीटी पकड़ लिया तो क्या होगा। 

मैं इस सोच में डुबा कोई तरकीब निकाल रहा था कि तभी टीटी आ धमका और टिकट देखते हुए लड़की से पुछा आप का टिकट मैं कुछ बोलता उससे पहले ही लड़की ने तपाक से जबाब दिया मेरा जी-3 में है मैं यहां दोस्तों के पास आई हूं मिलने को ये सुनते ही टीटी आगे निकल गया। फिर उसने मुझसे कहा देखा आपने मैंने कैसे टीटी को चलता किया। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या बोलू क्योंकि एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मुझे टीटी का साथ देना चाहिए था। उसके साथ एक दोस्त होने के नाते  दोस्त का साथ देना चाहिए था। मैं इसी उपापोह में मैं पूरी रात जगता रहा। वह बार-बार खाने के लिए मुझे बोलती पर मुझे भुख ही नहीं थी। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैंने सही किया या गलत। वह अपने मस्ती में मस्त थी। सोने का समय होते ही मैंने उसको अपना सीट उसे सोने को दे दिया, और मैं दूसरे दोस्त के सीट पर आ कर उसके साथ सिफ्ट हो गया। मैं पूरे रात उसके चेहरे को देखता रहा उसके चेहरे पर जरा भी डर का कोई हाव-भाव नहीं था।

होली का समय था इसलिए ट्रेन में रस भी ज्यादा थी मैं पूरे रात जग रहा था मेरे बगल वाली सीट पर भी जो तीन बन्दे बैटे थे वह आपस में बात कर रहे थे कि वह भी बिना टीकट यात्रा कर रहे है।  मैं पूरी रात उन लोगों की बात सुनते रहा। वह लोग भी हमारे तरह छात्र ही थे। पर पूरे रात उनलोगों ने जो अश्लिलता का झलक दिखाया मुझे यह सोचने पर मजबुर कर दिया कि यही हमारा सभ्यता और संस्कृति है। खेर इन सारी बातों के अलावे एक बात अच्छी थी की हमारे बगल वाले सीट पर एक परिवार सवार थे। दो छोटे-छोटे बच्चे, दो औरते और एक लड़की। पढ़ी-लिखी लड़की जब वह ट्रेन में आई तो अंग्रेजी में ही बात कर रही थी। शायद वह यह दिखाना चाह रही थी कि वह पढ़ी-लिखी है। पर वह जो बोल रही थी उसमें बहुत सारी गलतियां थी। वह अंग्रेजी में बोलती जा रही थी। शायद वह यह भूल गई थी कि वह जिस ट्रेन में सवार है वह बिहार जाती है न कि केरल, बिहार के लोग वैसे भी अंग्रेजी समझते कहां है। कुछ देर उलटा-पुलटा अंग्रेजी बोलने के बाद वह फिर पूरे बिहारी टोन में आ गई। 22 घंटे का सफर था। जो हमलोगों को साथ तय करना था।

 इसलिए बात चीत होना लाजमी थी। कुछ दूरी तय करने के बाद हमलोगों में बातचीत शुरु हुई। तो पता चला कि वह पूरे परिवार दिल्ली ही रहते है, और होली पर घर जा रही  है। लड़की ने बताया वह बी-टेक फाइनल इयर की छात्रा है। अब हमलोग एक परिवार के जैसे हो गए थे। खाना-पीना साथ होने लगा। कुछ दूरी ओर बिताने के बाद मैंने उस लड़की से पूछ ही लिया कि आप अंग्रेजी में क्यों बात कर रही थी क्या आप को पता नहीं है यह ट्रेन बिहार जाती है केरल नहीं, उसने बड़े ही शालिनता से जबाब दिया मुझे पता है यह ट्रेन बिहार ही जाती है। पर तोडा अंग्रेजी बोलने के बाद सब लोग इज्जत के नजर से देखने लगते है। तभी मुझे वरिष्ट्र कवि अशोक वाजपेई जी की बात याद आई जो उनको सुनते हुए उन्होंने कहा था। हम हिन्दी भाषी लोगों का सबसे बड़ा विडंबना है कि हम लोग हिन्दी नहीं बोलना चाहते है भले ही गलत अंग्रेजी ही क्यों न बोले। मैं मन ही मुस्काराया और अपने आप से बोला वाह रे अंग्रेज आप तो चले गए पर हमारे दिलो-दिमाग पर अंग्रेजी का किड़ा छोड़ गए।

रात काफी हो चुकी थी सब सो गए पर मुझे निंद नहीं आ रही थी। उसके पीछे का कारण कई थे। एक तो यह कि मैंने एक ऐसे व्यक्ति की मदद की जो गलत था। दूसरा यह की हमरा समाज कहां जा रहा है और तीसरा यह की हम सही हिन्दी के बजाय गलत अंग्रेजी क्यों बोलते है। इस सारी बातों का जबाब मैं खुद ही अपने अंदर खोज रहा था। इन सारी बातों को सोचते हुए कब सुबह हो गई मुझे पता ही नहीं चला। तभी मेरे बिना टिकट वाली दोस्त ने अवाज दी आरा आते ही मुझे जगा दिजिएगा मैंने हाथ हिला कर उसे हां में जवाब दिया। आरा आया मैं उसका समान लिए ट्रेन से बाहर निकला वहां उसके घर से उसे लेने लोग आए थे। वहां इसका व्यवहार ऐसा था जैसे वह मुझे पहचाल ही नहीं रही हो।

वो चली गई मैं ट्रेन में वापस आ गया ट्रेन वहां से चल दी। मैं फिर से सोच में डुब गया कि क्या यही दोस्ती है। कुछ देर खोया रहने के बाद बगल बाली लड़की ने पूछा हम गांगा नहीं पार कर गए क्या? मेरी तंद्रा टूटी और फिर बात-चीत में मश्गुल हो गया। 6-7 घंटों के सफर के बाद हम अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गए। मैं भागलपुर से गोड्डा के लिए निकल गया। भागलपुर से गोड्डा तक की दूरी तो 62 किलोमीटर है जो 2 घंटे में पूरा किया जा सकता है। पर रोड़ ऐसा की यह पता लगाना मुस्किल हो जाए कि रोड़ में गड्डा है या गड्डे में रोड़ मुझे भागलपुर से गोड्डा पहुंचने में चार घंटे लगे। मैं घर पहुंचा पर मेरे दिलो-दिमाग में कई सवाल है जिसका जवाब मैं अपने आप से खोज रहा हूं।