Friday 24 February 2017

प्रिय निधी

सर्द, सीलन और स्मृतियों के दौरान तुम्हारी यादे हां और न के बीच डोल रही है, लेकिन तुम्हारी यादों में अब वो स्नेह नहीं जो विघ्नों के सहारे बहा करता था। वह मोह नहीं जो पीड़ा की नाव पर स्वप्नलोक की दुनिया में घर बनाया करता था, लेकिन एक चेहरा धुंधला-धुंधला जो कुछ कहना चाह रहा है पर कह नहीं पाता। तुम्हारे शब्दों की यह चुभन मैं सह भी तो नहीं पा रहा। जो शायद तुमने कभी लिखी थी। यहां वहां भटकते हुए उपवन में पीर उदासी के सावन में जो तुम सुनाना चाहती थी...पर सुना नहीं पाई...जो अब जख्म बनकर रिसने लगा है। मेरे आखों में.... राते डूब जाती है। तुम्हारे दर्द पालते-पालते कोई आहट नहीं फिर भी एक आवाज की साया कच्ची नींद से अक्सर रात में इसने मुझे बार-बार जगाया है। उस आवाज में अब वह सूर नहीं वह ताल नहीं जो पहले हुआ करता था। अगर अब कुछ है तो सिर्फ दर्द, पीड़ा, आह, तड़प, लाचारी और बेबसी जो मुझे बार-बार सर्द, सीलन और स्मृतियों की गंध के बीच बेचैन कर रहा है।

तुम सच में जा चुकी हो पर तुम्हारी यादों पर मैं पेहरा नहीं लगा पा रहा हूं। तुम्हारी यादे बार-बार आ जाती है। तुम्हारे यादों को मिटाने के लिए मैंने तुम्हारे दिए हर खत और गिफ्ट को रात के घोर अंधेरे में विश्वविद्यालय के बाहर कुड़े के ढ़ेर में फेक आया था। पर आज लक्ष्मीनगर में अपने कमरे की छत पर जाकर उन गिफ्टों और खतों की ओर निहारता हूं उसे खोजता हूं। नाम कुछ ऐसे लिख दिये हो तुमने मेरे वजूद पर कि मैं जब भी तुम्हें भुलना चाहता हूं। अपना वजूद ही मिटने लगता है। जब तुम थी मैं बांटा करता था दर्द, पीड़ा, आह, तड़प, लाचारी, बेबसी की दबा पर आज अपने ही दुकान पर आ कर खड़ा हो गया हूं।


मैं जानता हूं मेरे हर लफ्ज़ तुम्हें खंजर से भी गहरा जख्म दिया करते थे, लेकिन तुमने कभी उन जख्मों की प्रवाह नहीं की तुम्हारे चांद नुमा चेहरे को चाहने वाले हजारों आश्कि तुम्हारे दिल के सकरी गलियों में तौलिया लपेटे खड़े थे पर तुमने कभी उन सबको नजर तक उठा कर नहीं देखा... ये तुम्हारी निष्ठा थी मेरे प्रेम के प्रति...पर मैं तुम्हारे इस निष्ठा से हमेशा दूर भागता रहा। मैं भी तुम्हें उतना ही चाहता था जितना शायद तुम...पर मेरे पास तुम्हारे स्वप्नलोक की दुनिया के लिए वक्त नहीं था और शायद आज भी नहीं है। किताबों के बीच रहने वाला व्यक्ति ऐसे ही हो जाता है। प्रेमहीन, भावहीन, तर्कहीन, संवेदनाहीन, कल्पनाहीन जो किसी के फीलिंग, इमोसन को नहीं समझता बिल्कुल दैत्यनुमा जो मैं था और शायद आज भी हूं।

पर अब जब तुम मेरी जिंदगी से जा चुकी हो। खुद को मेरे दिल में ही छोड़ कर, मुझे तो ठीक से बिछड़ना भी नहीं आया....तुम्हारी वो बातें जो तुम मुझे बताना चाहती थी जख्म बनकर रिसने लगी है। जिस तन्हाई और खामोशी से मुझे लगाव था। आज वहीं खामोशी कितनी शोर मचा रही है। कानों के परदे फाड़ देने वाली शोर जिसे सहन करना आसान नहीं...अब ऐसा प्रतीत होने लगा है। जैसे मैं पागल हो रहा हूं। कभी-कभी सोचता हूं कि तुम्हारे बिना पागलपन के इस ओर रखने वाली सीमित कर देने वाली रेखा कितनी पतली सी हो गई है। शायद उतनी पतली जितनी घृणा और प्रेम के बीच होता है या फिर स्नेह और वैराग्य के बीच में या यातना और क्रूरता में होती है। ठीक उतनी ही रह गई है।



तो क्या मैं सच में पागल हो जाउंगा...कल रात मैंने तुम्हारी सारी बाते कमरे की दीवार पर लिख डाले तुम्हें यह एक तमाशा लग सकता है, लेकिन ये शब्द ही तो होते थे हमारे बीच की सेतु गिने चुने सीमाएं ओढ़े वो कुछ जो लिखा ही नहीं गया हो अब तलक... जो कहा ही नहीं गया अब तलक पर रिस रहा है। जो पहले कुछ पनपते थे शब्दों के अंधियारे में इस ओर भी शायद उस ओर भी....सच बताऊं तो मैं अंधियारे में जाना ही नहीं चाहता कल्पना में भी नहीं क्योंकि मैं जानता हूं कि अंधियारे के बाद उजाला होता है और उजाला कभी झूठ नहीं बोलता यह सब सच बयां कर देता है।

इस लिए मैं अंधियारे से डरता हूं... तुम्हारे रिक्त पड़े प्रेम के स्पेस को मैंने यादों के ढेर से भर रखा है। प्रेम की महक की जगह दर्द, पीड़ा, आह, तड़प की महक आने लगी है। प्रिय  तुम तो जानती हो इश्क करने वालों को कैसे बेअदबी, बेरुमानियत, लाचारी, बदनसीबी की चौखट पर दम तोड़ने पड़ते है। यह सच है तुम्हारा प्रेम दिखावा नहीं था और सच मैं प्रेम नुमाइस की वस्तु नहीं है। यह तो बस महसूस और महफूज करने की चीज है। पर क्या करें जिंदगी है...और जिंदगी के अपने ही बुने हुए जंजाल हैं... काश जिंदगी उस लौ की मानिंद ना होती जिसमें जलने का दस्तूर होता है...और जीये जाने की बंदिश होती है...वैसे भी जिंदगी में इतनी ख्वाहिशें होती हैं कि हर ख्वाहिश पर दम निकलता है... दम के साथ अरमानो की भीड़ भी निकलती है। ये अधूरी कहानी, अधूरे अरमान तुम्हारे साथ गुज़रे उन हसीन लम्हों के ग़ुबार हैं। कभी देखना ये तुम्हारी यादों के हर पड़ाव पर मिलेंगे, हर एक रहगुज़र पर उड़ रहे हैं... उन्हें देखकर धबराना मत... मैं वहीं हूं, रास्ते वही हैं, और वो चांद जो हम साथ देखा करते थे, वही है... कुछ नहीं है तो बस मेरी तुम...
Posted by Gautam singh Posted on 01:53 | No comments

पाती से प्रेम


एक खत ले कर आया हूं कोई तो पढ़ दे जरा....नहीं समझे...अजी खत माफ कीजियेगा जनाब आज के जमाने में खत-लिखना और पढ़ना शायद बहुत मुश्किल हो गया है। पर कहते है न 'मोहब्बते पैगाम से खत यार की आती है, प्यार की हर बात से रू-ब-रू हो जाती है, वह दिदारे हुस्न से इनकार तो नहीं करते...और एक हम है जो बस खत का इंतजार करते है।' खत कह लीजिये या पैगाम या फिर चिटृठी इनकी तो अब महत्व ही खत्म हो गया है... पहले जैसे ही पैगाम की बात आती.. तो लोग झट से कलम कागज ले कर बैठ जाते थे, और अपने दिल का हाल उसमें बयां कर देते थे, लेकिन आजकल इनकी जगह दूरभाष ने ले ली है, अगर मोबाईल के भाषा में कहुं तो एसएमएस या वट्सअप ने चिट्ठी का रूप ही बदल दिया है।... पहले दरवाजे पर टकटकी लगाए आंखे एक अदद चिट्ठी का इंतज़ार करते रहते थे।

पर अब ऐसा नहीं है, लेकिन मन करता है कि साइकिल की घंटी सुनाई पड़े और दौड़कर दरवाजे पर चले आयें, शायद कोई चिट्ठी आई हो, शायद कोई संदेशा आया हो, जिसे किसी अपनों ने भेजा हो जिसमें हाल-ए-दिल बयां की हो लेकिन अब न तो साइकिल की घंटी सुनाई पड़ती है और न ही डाकिया बाबू नजर हाते हैं.....जहां पहले एक कोरा कागज भी दिल का हाल बयां कर देता था..... तो वहीं आज एक Blank SMS पर लड़ाई हो जाती है... मैं ये नहीं कहता कि खत के साथ-साथ प्यार भी खत्म हो गया है... प्यार तो आज भी उन SMS में छुपा है जो दूर बैठे प्रेमियों को पास ले आता है... बच्चों को माता-पिता से जोड़ता है और सरहद पर जवानों को अपने घर वालों से मिला देता है....ऐहसास तो वही है.....पर तरीका नया...


मुझे अभी भी याद आता है वह जमाना जब सरहद पर से हमारे देश के जवानों की चिट्ठी उनके घर पहुंचते थे तो पूरा घर आंसुओं में ढूब जाता था, खत में लिखे हर शब्द में जवान का प्यार और घरवालों की यादें सिमट के रह जाती...और फिर जब जवानों के घर से चिट्ठी आती तो वो अपनी थकान के साथ-साथ अपनी सारे तकलीफे भी भूल जाते थे... अब तकनिकी दुनिया ने उन सुनहरे दिनों को कहीं पीछे छोड़ दिया...जब हफ्तों इंतजार के बाद एक खत आया करता था....दूर देश से आये अपने प्रिय जनों की इस खत में इतना कुछ होता था कि पढ़ते-पढ़ते कभी आंखे नम हो जाती थी, तो कभी सारे जहान की खुशियां एक चिट्ठी में सिमट आती थी...बेशक फोन ने संवाद में दुरियों की खाई पाट दी है, लेकिन रिश्तों की कद्र में कमी और नजदियों में दूरियों का अहसार बढ़ा दिया है। फोन हमें सहुलियत तो देता है, लेकिन प्रेम में जरूरी उत्साह, इंतजार और सपनों से प्रेरित होने वाली उत्सुकता को कहीं न कहीं छीन लेता है।

Monday 6 February 2017

Posted by Gautam singh Posted on 03:33 | No comments

तब जब तुम थी

तब जब तुम थी मैं बेचा करता था, तड़प, आह, बेचैनी और हर दर्द की दवा पर आज जब तुम नहीं हो वक्त मुझे अपनी ही दुकान पर ले आया है। कल रात मैंने तुम्हारी सारी बाते कमरे की दीवार पर लिख डाले...तुम इसे एक तमाशा कह सकती हो पर नाम कुछ ऐसे लिख दिये हो तुमने मेरे वजूद पर की मैं भूलना नहीं चाहता... मेरे जुबान तीखे थे जो तुम्हे खंजर से भी गहरा जख्म दिया करता था, लेकिन तुमने उस जख्मों पर हमेशा मरहम भी खुद लगाया।

तुम्हारे चांद नुमा चेहरे को चाहने वाले हजारों आश्कि तुम्हारे दिल के सकरी गलियों में तौलिया लपेटे खड़े थे पर तुमने कभी उनको भाव नहीं दिया। पर मेरे पास तुम्हारे स्वप्नलोक की दुनिया के लिए वक्त नहीं था। अब जब तुम मेरी जिंदगी से जा चुकी हो... खुद को मेरे दिल में ही छोड़ कर, तुझे तो ठीक से बिछड़ना भी नहीं आया...पर तुम्हारे पास इसके अलावे कोई और ऑप्सन नहीं था। तुम्हारे ख्वाब और तुम्हारी दुनिया के लिए मेरे पास वक्त नहीं था किताबों के बीच रहने वाला इंसान ऐसे ही हो जाते है तर्कहीन, भावनाहीन, प्रेमहीन, कल्पनाहीन, संवेदनहीन जो किसी के फिलिंगस, इमोसन को नहीं समझता बिल्कुल दैत्यनुमा जो मैं था और शायद आज भी हूं।