Sunday 17 October 2021

एक ऐसी शख्सियत जिसकी विराट प्रतिभा और ज्ञान के आगे दुनिया की बड़ी से बड़ी उपलब्धियां फीकी हो.... जिनके मानवीय मूल्यों, राष्ट्र के प्रति सजग चिंता और देशभक्ति के आगे तमाम मानदंड और दावे बौने पड़ जाते हों... राष्ट्र के ऐसे महामानव के रूप में अवतरित, प्रकृति का रूख मोड़ने वाले... विज्ञान और परमाणु मिशाइल के प्रतीक पुरूष जिनकी याद में स्विटरलैण्ड विज्ञान दिवस मनाता हो... हिन्दुस्तान और इसके युवाओं के सुनहरे भविष्य की चिंता में हमेशा लीन रहकर अपने सभी निजी सुख सुविधाओं की बलि देकर देश में मिशाइलों का अंबार लगा देने वाले देश -दुनिया में मिशाइल मैन के नाम से मशहूर... पायलट बनकर आकाश चूमने का ख्वाब लिए... बिखरी जुल्फों वाले,  अबुल पाकिर जैनुलआबदीन अब्दुल कलाम यानि डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का आज जन्मदिन है... अब्दुल कलाम का जन्म 15 अक्टूबर 1931 को तमिलनाडु के रामेश्वरम में हुआ था... कलाम का शुरूवाती जीवन मुफलिसी के अलावा संघर्षों के साथ-साथ वक्त की क्रूर बलिबेदी पर आहुति बनकर बीता... जिसका आलम ये रहा कि ये आत्महत्या की जद तक चले गए... अपने स्कूली दिनों में, कलाम साहब समाचार पत्र बेचकर अपने परिवार का सहयोग किया करते थे... रामेश्वरम से अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद, अब्दुल कलाम ने 1960 में मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में स्नातक की पढ़ाई पूरी की और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के वैमानिकी विकास प्रतिष्ठान में एक वैज्ञानिक के रूप में शामिल हो गए... हालांकि ये एक लड़ाकू पायलट बनना चाहते थे, लेकिन इस पद को पाने से चूक गए... लेकिन विधि को तो कुछ और ही मंजूर था... इसके बाद ये (डीआरडीएस) के सदस्य बने और एक छोटी होवरक्राफ्ट को डिजाइन करने के साथ अपने करियर की शुरूआत की... 


साल 1969 में अब्दुल कलाम को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में स्थानांतरित कर दिया गया जहाँ इन्होंने स्वयं को भारत के मिसाइल मैनके रूप में स्थापित किया... साल 1980 में ये भारत के पहले उपग्रह प्रक्षेपण यान (एसएलवी -III) के प्रोजेक्ट डायरेक्टर बने... साल 1982 में भारत के प्रधानमंत्री और डीआरडीओ के सचिव के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार बने... इसके अलावा इन्होंने राजगोपाल चिदंबरम के साथ पोखरण-2 परमाणु परीक्षण में मुख्य परियोजना समन्वयक के रूप में भी काम किया... मीडिया की सुर्खियों में लगातार बने रहने से भारतीय लोगों को भी अब्दुल कलाम की उपलब्धियों के बारे जानकारी मिली इसके साथ ही ये भारत के सबसे सफल और लोकप्रिय वैज्ञानिक बन गए... इतना ही नहीं अब्दुल कलाम ने मशहूर कार्डियोलॉजिस्ट सोमा राजू के साथ मिलकर, एक सस्ते कोरोनैरी स्टेंट का आविष्कार किया... इसके बाद इन दोनों ने ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य देखभाल के लिए कलाम-राजू टैबलेटनाम की एक टैबलेट पीसी भी डिजाइन की... अग्नि (बैलेस्टिक मिसाइल) और पृथ्वी (एयर डिफेंस मिसाइल) के विकास में अब्दुल कलाम की महत्वपूर्ण भूमिका होने के कारण ही इन्होंने भारत के मिसाइल मैन के रूप में ख्याति अर्जित की... इनकी लोकप्रियता, उदारता, मानवीय मूल्यों के प्रति गहरी संवेदना, देश के प्रति कुछ कर गुजरने का जज्बा, और युवाओं के सबसे बड़े आदर्श होने के नाते साल 2002 में, सभी पार्टियों ने सर्वसम्मति के साथ एक मत होकर अब्दुल कलाम को भारत के 11 वें राष्ट्रपति के रूप में चुना... अब कलाम साहब का व्यक्तित्व इतना विराट हो गया कि इनके आगे उपल्बधियां और पुरूस्कार सब छोटे लगने लगे... इसके बावजूद इनके साथ पुरस्कार और उपलब्धियां लगातार जुड़ती चलीं गई... जिसमें देश का सबसे बड़ा पुरूस्कार भारत रत्न साल (1997), पद्म विभूषण (1990) और पद्म भूषण (1981) समेत कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले थे.... इसके अलावा अब्दुल कलाम को एक अंतरिक्ष से संबधित परियोजना में इनके प्रबंधन और नेतृत्व के लिए, नेशनल स्पेस सोसाइटी की ओर से वॉन ब्राउन अवॉर्ड (2013) से भी सम्मानित किया गया... वहीं 2014 में डॉक्टर ऑफ साइंस एडिनबर्ग विश्वविद्यालय ब्रिटेन का सम्मान उन्हें प्राप्त हुआ था... एपीजे कलाम की याद में 26 मई को स्विट्जरलैंड में विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है क्योंकि 2005 में इसी दिन (26 मई) को वे देश का दौरा करने के लिए गए थे... कलाम साहब एक ऐसे शख्स थे जिन्हें एडिनबर्ग और ऑकलैंड विश्वविद्यालय समेत लगभग 40 विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की उपाधि मिल चुकी है...  राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भारत के सबसे सक्रिय राष्ट्रपति थे। अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने 175 दौरे किए। इनमें से सिर्फ़ सात विदेशी दौरे थे। वो लक्ष्यद्वीप को छोड़कर भारत के हर राज्य में गए... इंसानों की छोड़िये जनाब कलाम साहब वह शख्सियत थे जिनका ख्याल प्रकृति भी रखती थी... 15 अगस्त 2003 को स्वतंत्रता दिवस के मौक़े पर शाम को कलाम साहब ने राष्ट्रपति भवन के लॉन में हमेशा की तरह एक चाय पार्टी का आयोजन किया... जिसमें क़रीब 3000 लोगों को न्योता दिया गया.. आलम ये रहा कि सुबह आठ बजे से मूसलाधार बारिश शुरू हुई और रुकने का नाम नहीं लिया... राष्ट्रपति भवन के अधिकारी परेशान हो गए कि इतने सारे लोगों को भवन के अंदर चाय नहीं पिलाई जा सकती। आनन-फ़ानन में 2000 छातों का इंतज़ाम कराया गया... दोपहर बारह बजे जब उनके सचिव उनसे मिलने गए तो कलाम ने कहा, ''क्या लाजवाब दिन है। ठंडी हवा चल रही है।'' सचिव ने कहा, ''आपने 3000 लोगों को चाय पर बुला रखा है। इस मौसम में उनका स्वागत कैसे किया जा सकता है?'' कलाम ने कहा, ''चिंता मत करिए हम राष्ट्रपति भवन के अंदर लोगों को चाय पिलाएंगे।''



ऊपर बात कर ली है…. फिर सचिव ने कहा हम ज़्यादा से ज़्यादा 700 लोगों को अंदर ला सकते हैं। मैंने 2000 छातों का इंतज़ाम तो कर दिया है लेकिन ये भी शायद कम पड़ेंगे। कलाम ने उनकी तरफ़ देखा और बोले, ''हम कर भी क्या सकते हैं। अगर बारिश जारी रही तो ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा... हम भीगेंगे ही न... सचिव को परेशान देख कलाम ने आसमान की ओर देखते हुए कहा, ''आप परेशान मत होइए। मैंने ऊपर बात कर ली है।'' ठीक 2 बजे अचानक बारिश थम गईयय सूरज निकल आया। ठीक साढ़े पांच बजे कलाम परंपरागत रूप से लॉन में पधारे। अपने मेहमानों से मिले। उनके साथ चाय पी और सबके साथ तस्वीरें खिंचवाई। सवा छ: बजे राष्ट्रगान हुआ। जैसे ही कलाम राष्ट्रपति भवन की छत के नीचे पहुंचे, फिर से झमाझम बारिश शुरू हो गई... अंग्रेज़ी पत्रिका वीक के अगले अंक में एक लेख छपा, क़ुदरत भी कलाम पर मेहरबान.... साल 2005 में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ जब भारत आए तो वो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के साथ-साथ राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से भी मिले। मुलाक़ात से एक दिन पहले कलाम को उनके सचिव ने बताया सर कल मुशर्ऱफ़ आपसे मिलने आ रहे हैं।'' उन्होंने जवाब दिया, ''हां मुझे पता है।'' नायर ने कहा, ''वो ज़रूर कश्मीर का मुद्दा उठाएंगे। आपको इसके लिए तैयार रहना चाहिए।'' कलाम ने उनकी तरफ़ देखा और कहा, ''उसकी चिंता मत करो। मैं सब संभाल लूंगा।'' अगले दिन जब परवेज़ मुशर्रफ़ मिलने आए तो कलाम ने उनका स्वागत किया... और तीस मिनट की इस मुलाकात में कलाम ने बोलना शुरू किया, ''राष्ट्रपति महोदय, भारत की तरह आपके यहां भी बहुत से ग्रामीण इलाक़े होंगे। आपको नहीं लगता कि हमें उनके विकास के लिए जो कुछ संभव हो करना चाहिए?'' जनरल मुशर्रफ़ हां के अलावा और क्या कह सकते थे... कलाम ने कहना शुरू किया, ''मैं आपको संक्षेप में पूराके बारे में बताउंगा। पूरा का मतलब है प्रोवाइंडिंग अर्बन फ़ैसेलिटीज़ टू रूरल एरियाज़।'' कलाम ने अगले 26 मिनट तक मुशर्रफ़ को पूरा मतलब समझाया और अगले 20 सालों में दोनों देश इसे किस तरह हासिल कर सकते हैं यह भी बताया... तीस मिनट बाद मुशर्रफ़ ने कहा, ''धन्यवाद राष्ट्रपति महोदय। भारत भाग्यशाली है कि उसके पास आप जैसा एक वैज्ञानिक राष्ट्रपति है।'' दोनों ने हाथ मिलाए' 'कलाम साहब ने वहां भी दिखाया कि वे वैज्ञानिक के साथ साथ कूटनीतिक भी हैं... कलाम साहब की जीवन शैली के बारे में बात करें तो उन्हें औपचारिक मौकों से चिढ़ थी जहाँ उन्हें उस तरह के कपड़े पहनने पड़ें जिसमें वो अपनेआप को असहज महसूस करें... सूट पहनना उन्हें कभी भी रास नहीं आया. यहाँ तक कि वो चमड़े के जूतों की जगह हमेशा स्पोर्ट्स शू पहनना ही पसंद करते थे... जिसका आलम ये रहा कि जब साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने उन्हें और प्रोफ़ेसर सतीश धवन को एसएलवी 3 के सफलतापूर्ण प्रक्षेपण के बाद प्रमुख साँसदों से मिलने के लिए बुलवाया... 



तो वे घबरा गए और धवन से बोले, सर मेरे पास न तो सूट है और न ही जूते. मेरे पास सिर्फ मेरी चप्पल है... तब सतीश धवन ने मुस्कराते हुए उनसे कहा, 'कलाम तुम पहले से ही सफलता का सूट पहने हुए हो. इसलिए हर हालत में वहाँ पहुंचो.... मशहूर पत्रकार राज चेंगप्पा ने अपनी किताब 'वेपेंस ऑफ़ पीस' में लिखा 'उस बैठक में जब इंदिरा गाँधी ने कलाम का अटल बिहारी वाजपेई से परिचय कराया तो उन्होंने कलाम से हाथ मिलाने की बजाए उन्हें गले लगा लिया. ये देखते ही इंदिरा गाँधी मुस्कराई और बोलीं 'अटलजी कलाम मुसलमान हैं.' तब वाजपेई ने जवाब दिया, 'जी हाँ लेकिन वो भारतीय पहले हैं और एक महान वैज्ञानिक हैं.' बाद में जब वाजपेई दूसरी बार प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने कलाम को अपने मंत्रिमंडल में शामिल होने का न्योता दिया. कलाम ने इस प्रस्ताव पर पूरे एक दिन विचार किया. अगले दिन उन्होंने वाजपेई से मिल कर बहुत विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया...कि 'रक्षा शोध और परमाणु परीक्षण कार्यक्रम अपने अंतिम चरण में पहुंच रहा है. वो अपनी वर्तमान ज़िम्मेदारियों को निभा कर देश की बेहतर सेवा कर सकते हैं.' दो महीने बाद पोखरण में परमाणु विस्फोट के बाद साफ हो गया कि कलाम मंत्री क्यों नहीं बने... 10 जून, 2002 को एपीजे अब्दुल कलाम को संदेश मिला कि प्रधानमंत्री कार्यालय उनसे बात करना चाह रहा है... आप तुरंत कुलपति के दफ़्तर चले आइए... जैसे ही उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय से कनेक्ट किया गया, वाजपेई फ़ोन पर आए और बोले, 'कलाम साहब देश को राष्ट्पति के रूप में आप की ज़रूरत है.' कलाम ने वाजपेई को धन्यवाद दिया और कहा कि इस पेशकश पर विचार करने के लिए मुझे एक घंटे का समय चाहिए. वाजपेई ने कहा, ' आप समय ज़रूर ले लीजिए. लेकिन मुझे आपसे हाँ चाहिए. ना नहीं.'... 18 जून, 2002 को कलाम ने अटलबिहारी वाजपेई और उनके मंत्रिमंडल सहयोगियों की उपस्थिति में अपना नामाँकन पत्र दाखिल किया. पर्चा भरते समय वाजपेई ने उनके साथ मज़ाक किया कि 'आप भी मेरी तरह कुँवारे हैं' तो कलाम ने ठहाकों के बीच जवाब दिया, 'प्रधानमंत्री महोदय मैं न सिर्फ़ कुंवारा हूँ बल्कि ब्रह्मचारी भी हूँ.' राष्ट्रपति बनने के बाद फिर वही समस्या आई कि कलाम जी पहनेगें क्या? क्योंकि बरसों से नीली कमीज़ और स्पोर्ट्स शू पहन रहे कलाम राष्ट्पति के रूप में तो वो सब पहन नहीं सकते थे. राष्ट्पति भवन के दर्जी ने एक दिन आ कर डाक्टर कलाम की भी नाप ले डाली.... 'कुछ दिनों बाद दर्ज़ी ने कलाम के लिए चार नए बंदगले के सूट सिल कर ले आया.... लेकिन वो शूट पहनकर कलाम खुद ख़ुश नहीं हुए. उन्होंने कहा,कि 'मैं तो इसमें साँस ही नहीं ले सकता. क्या इसके कट में कोई परिवर्तन किया जा सकता है ?' परेशान दर्ज़ी सोचते रहे कि क्या किया जाए. फिर कलाम ने खुद ही सलाह दी कि इसे आप गर्दन के पास से थोड़ा काट दीजिए. इसके बाद से कलाम के इस कट के सूट को 'कलाम सूट' कहा जाने लगा... इतना ही नहीं कलाम साहब को टाई पहनने से भी नफ़रत थी. बंद गले के सूट की तरह टाई से भी उनका दम घुटता था. वे टाई को पूरी तरह से उद्देश्यहीन वस्त्र मानते थे... उन्हें रुद्र वीणा बजाने का बहुत शौक था...'वो वॉक करना भी पसंद करते थे,  वो सुबह दस बजे या दोपहर चार बजे जरूर वॉक किया करते थे...  वे अपना नाश्ता सुबह साढ़े दस बजे लेते थे... इसलिए उनके लंच में अक्सर देरी हो जाती थी. उनका लंच दोपहर साढ़े चार बजे होता था और डिनर अक्सर रात 12 बजे के बाद... 



डाक्टर कलाम धार्मिक मुसलमान थे और हर दिन सुबह यानि फ़ज्र की नमाज़ पढ़ा करते थे.वो अक्सर न और गीता पढ़ा करते थे... वे पक्के शाकाहारी थे और शराब से उनका वास्ता नहीं था... पूरे देश में निर्देश भेज दिए गए थे कि वो जहाँ भी ठहरे उन्हें सादा शाकाहारी खाना ही परोसा जाए. उनको महामहिम या 'हिज़ एक्सलेंसी' कहलाना भी कतई पसंद नहीं था.'...  कलाम द्वारा बीजेपी की समान नागरिक संहिता की माँग का समर्थन करने पर भी कुछ लोगों को अखरा... वहीं वामपंथियों और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग को कलाम का सत्य साईं बाबा से मिलने पुट्टपार्थी जाना भी रास नहीं आया.... उनकी शिकायत थी कि वैज्ञानिक सोच की वकालत करने वाला शख़्स ऐसा कर लोगों के सामने ग़लत उदाहरण पेश कर रहा है.... कलाम ने अपने सुछिता और पार्दर्शिता स्थापित करने के लिये अपने परिजनों को भी सुविधाओं और सरकारी सेवाओं से दूर रखा... डाक्टर कलाम को अपने बड़े भाई एपीजे मुत्थू मराइकयार से बहुत प्यार था. लेकिन उन्होंने कभी उन्हें अपने साथ राष्ट्रपति भवन में रहने के लिए नहीं कहा... उनके भाई का पोता ग़ुलाम मोइनुद्दीन तब दिल्ली में काम कर रहा था जब कलाम भारत के राष्ट्रपति थे. लेकिन वो उस समय मुनिरका में किराए के एक कमरे में रहता था... उनके साथ नहीं... मई 2006 में कलाम ने अपने परिवार के करीब 52 लोगों को दिल्ली आमंत्रित किया. जो आठ दिन तक राष्ट्रपति भवन में रुके 'कलाम ने उन सभी के राष्ट्रपति भवन में रुकने का किराया अपनी जेब से दिया... यहाँ तक कि एक प्याली चाय तक का भी हिसाब रखा गया. वो लोग एक बस में अजमेर शरीफ़ भी गए जिसका किराया भी कलाम ने ही भरा. उनके जाने के बाद कलाम ने अपने अकाउंट से तीन लाख बावन हज़ार रुपयों का चेक काट कर राष्ट्रपति भवन कार्यालय को भेजा...  साल 2005 में उनके बड़े भाई एपीजे मुत्थू मराइकयार, उनकी बेटी नाज़िमा और उनका पोता ग़ुलाम हज करने मक्का गए. जब सऊदी अरब में भारत के राजदूत को इस बारे में पता चला तो उन्होंने राष्ट्रपति को फ़ोन कर परिवार को हर तरह की मदद देने की पेशकश की... तो कलाम का ने उनसे कहा 'मेरा आपसे यही अनुरोध है कि मेरे 90 साल के भाई को बिना किसी सरकारी व्यवस्था के एक आम तीर्थयात्री की तरह हज करने दें.... यही नहीं उन्होने राष्ट्रपति भवन में इफ्तार भोज का आयोजन यह कहते हुए नहीं किया कि हम इफ़्तार भोज का आयोजन क्यों करें ? वैसे भी यहाँ आमंत्रित लोग खाते पीते लोग होते हैं...इसके बदले उन्होने भोज में होने वाले खर्च और अपने पास से एक लाख रूपए और लगाकर करीब साढ़े तीन लाख रूपए... का सामान राष्ट्रपति भवन की ओर से 28 अनाथालयों में बंटवाया... और हिदायत भी यह दी कि किसी को पता न चले कि ये पैसे मैंने दिए... 'कलाम के उच्चादर्श नैतिकता और मानवीय मूल्यों के अलावा एक बार उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता भी उजागर हुई... जब उन्होंने 22 मई की आधी रात को बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की स्वीकृति दी... उस वक्त वो रूस की यात्रा पर थे. बिहार विधानसंभा चुनाव में किसी भी पार्टी के बहुमत न मिलने पर राज्यपाल बूटा सिंह ने बिना सभी तथ्यों की पड़ताल किए बगैर बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफ़ारिश कर दी... और उसे तुरंत राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए फ़ैक्स के जरिए मॉस्को भेज दिया... कलाम ने इस सिफ़ारिश पर रात डेढ़ बजे बिना किसी लाग लपेट दस्तख़त कर दिए... जिसके पाँच महीने बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को ग़ैरसंवैधानिक करार दे दिया जिसकी वजह से यूपीए सरकार और खुद कलाम की बड़ी किरकिरी हुई.... 



इसका जिक्र कलाम ने खुद अपनी किताब 'अ जर्नी थ्रू द चैलेंजेज़' में किया कि वो सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से इतना आहत हुए थे कि उन्होंने इस मुद्दे पर इस्तीफ़ा देने का मन बना लिया... लेकिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें ये कह कर ऐसा न करने के लिए मनाया कि इससे देश में बवंडर हो जाएगा.... डॉक्टर कलाम के मानवीय पक्षों की बात करें... तो एक बार वे ठंड के दिनों में राष्ट्रपति भवन के गार्डेन में टहल रहे थे... उन्होंने देखा कि सुरक्षा गार्ड के केबिन में हीटिंग की कोई व्यवस्था नहीं है और कड़ाके की ठंड में सुरक्षा गार्ड कांप रहा है. उन्होंने तुरंत संबंधित अधिकारियों को बुलाया और उनसे गार्ड के केबिन में जाड़े के दौरान हीटर और गर्मी के दौरान पंखा लगवाने की व्यवस्था करवाई....ऐसे ही 'एक बार उन्होने मुग़ल गार्डेन में टहलने के दौरान देखा कि एक मोर अपना मुंह नहीं खोल पा रहा है. उन्होंने तुरंत राष्ट्रपति भवन के वेटरनरी डाक्टर को बुला कर मोर की जाँच करने को लिए कहा. जाँच में पाया गया कि मोर के मुँह में ट्यूमर है जिसकी वजह से वो न तो अपना मुँह खोल पा रहा और न ही बंद कर पा रहा है... इसके अलावा मोर कुछ भी खा नहीं पा रहा था और बहुत तकलीफ़ में था... कलाम के कहने पर डाक्टर ने उस मोर की इमर्जेंसी में सर्जरी की और उसका ट्यूमर निकाल दिया.... इसके बाद उस मोर को कुछ दिनों तक आईसीयू में रखा गया और पूरी तरह ठीक हो जाने के बाद फिर मुग़ल गार्डेन में छोड़ दिया गया.... कलाम साहब सितंबर 2000 में तनज़ानिया की यात्रा पर गए... जहां उन्हें पता चला कि वहाँ जन्मजात दिल की बीमारी से पीड़ित बच्चे बिना किसी इलाज के मर रहे हैं... वहाँ से लौटने के बाद उन्होने अपने किसी सहयोगी से कहा कि किसी भी तरह इन बच्चों और उनकी माओं को तन्जानिया से हैदराबाद लाने की मुफ़्त व्यवस्था करो... उसके बाद केयर अस्पताल के प्रमुख डाक्टर सोमा राजू से बात की... और वहाँ के प्रमुख हार्ट सर्जन बच्चों का मुफ़्त इलाज करने के लिए तैयार हो गए.... इसके बाद तंजानिया से 24 बच्चों और उनकी माओं को हैदराबाद लाया गया.... और केयर फ़ाउंडेशन ने पचास लोगों के ठहरने और खाने की मुफ़्त व्यवस्था की... ये सभी लोग हैदराबाद में एक महीने रुक कर इलाज कराने के बाद सकुशल तंज़ानिया लौटे.... अपने 74 वें दिन पर जन्मदिन पर कलाम ने उन्हीं हृदय रोग से पीडित बच्चों से मुलाकात की और हर बच्चे के सिर पर हाथ फेरा साथ ही उन्हें टॉफ़ी का एक एक डिब्बा दिया जिन्हें वो दिल्ली से लाए थे....  इतना ही नहीं जब जब कलाम का कार्यकाल ख़त्म होने लगा तो उन्होंने 1971 की लड़ाई के हीरो फ़ील्डमार्शल सैम मानेक शॉ से मुलाकात की.... फ़रवरी 2007 में उनसे मिलने के बाद कलाम को लगा कि मानेक शॉ को फ़ील्डमार्शल जैसी पदवी तो दे दी गई है लेकिन उसके साथ मिलने वाले भत्ते और सुविधाएं नहीं दी गई हैं.... दिल्ली लौटने के बाद उन्होंने इस दिशा में कुछ करने का फ़ैसला किया.... और फ़ील्ड मार्शल मानेक शॉ के साथ साथ मार्शल अर्जन सिंह को भी सारे बकाया भत्तों का भुगतान कराया गया उस दिन से जिस दिन से उन्हें ये पद दिया गया था... देश और युवाओं की भलाई के लिये सदा समर्पित कलाम साहब को 27 जुलाई, 2015 में शिलांग में लेक्चर देते समय दिल का दौरा पड़ा... और वे हम सभी को छोड़कर हमेशा के लिये चले गए...  देश उनके अपूरनीय योगदान को हमेशा याद रखेगा... उनका विराट कर्तव्य समूचे देश की प्रगति में हमेशा ऊर्जा देने का काम करेगा....

 

महान स्वतंत्रता सेनानी, समाजवादी चिंतक सत्याग्रह के प्रबल पक्षधर गोवा की लड़ाई के सबसे बड़े महानायक बागी और दिग्गज राजनेता डा. राममनोहर लोहिया की 54वीं पुण्यतिथि है... डॉक्टर लोहिया समाजवाद के ऐसे महापुरूष थे... जिनकी समाजवाद की भरिभाषा तले अतीत से लेकर मौजूदा वक्त की राजनीति फल फूल रही है... लेकिन विचार कभी मरा नहीं करते... भले ही उनकी परिभाषा महज शब्दों तक सीमित हो लेकिन उसका असर लोगों के सामाजिक न्याय के प्रति राजनीतिज्ञों मजबूर करता रहेगा... लोहिया एक ऐसे बागी क्रान्तिकारी पुरूष थे जिन्होने गांधी लोहिया पटेल नेहरू मार्क्स किसी बख्शा नहीं न गांधी को नहीं बख्शा.... 



उन्होने संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू पर सीधे सीधे सवाल खड़ा किया कि इस देश का साधारण आदमी तीन आने पर गुजारा करता है, और प्रधानमंत्री पच्चीस हजार रूपए क्यों खर्च करता है... उन्होने सामान्य आदमी के खर्चों को प्रधानमंत्री के खर्चों से तुलना करने की कोशिश ही नहीं की बल्कि इसे एक मुद्दा बनाया... जो आज भी लोहिया के तीन पापों में दर्ज किया जाता है... जिसमें पहला पंडित नेहरू के खिलाफ बोलना 2 अंग्रेजी के खिलाफ बोलना और तीसरा सवर्णजाति के वर्चस्व के खिलाफ बुलंद आवाज.... ध्यान रहे कि खुद सवर्ण जाति से ही आते थे बावजूद जातिगत वर्चस्व का विरोध किया... लेकिन इन तीन अपराधों के लिये सवर्ण जाति के अंग्रेजी बोलने वाले बुद्धिजीवियों नें डॉक्टर लोहिया को कभी माफ नहीं किया... लोहिया खुद अमीर घराने से आते थे... बावजूद इसके उन्होने आर्थिक गैरबराबरी से चिढ़ और सामाजिक आर्थिक समानता स्थापित करने की जिद जिंदगी भर पाली... डॉ लोहिया भारतीय नारी के प्रतीक के रूप में सावित्री को नहीं बल्कि द्रोपदी को माना... इन सभी वजहों से आजतक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया का असली चेहरा हम सब के बीच नहीं आ पाया...  डॉ लोहिया ऐसे राष्ट्रवाद की कल्पना के महापुरूष थे जो राष्ट्रवाद को अन्तर्राष्ट्रीयता से जोड़ता है... लोहिया की परिभाषा राजनीति अल्पकालिक धर्म है... 



और धर्म दीर्घकालिक राजनीति... लोहिया कहा करते थे कि इस देश में तीन तरह के गांधी वादी हैं... 1 सरकारी गांधी वादी इसमें उनका इशारा पंडित नेहरू पर था.. नंबर 2 मठाधीश गांधीवाधी... इसका इशारा जानेमाने स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी और आन्दोलनकारी विनोवा भावे की तरफ था... तीसरा 3 कुजाति गांधी वादी... जिसका मतलब आउट कॉस्ट यानि जिसे जाति से निकाल दिया गया है... कुजाति गांधी वादी का अहम मकसद उनका अपने आप से था... उनका कहना था कि अगर गांधी वाद को कोई बचाएंगा तो वो कुजाति गांधीवादी होगा... बाकी तो सरकारी तो गांधी को मरवा देंगे... लोहिया नास्तिक विचारधारा वाले व्यक्तित्व थे वे किसी की पूजा नहीं करते थे... लोहिया जाति व्यवस्था को गैर बराबरी मानते थे और इसका पुरजोर तरीके से विरोध करते थे... फिर भी उन्होने पिछड़ों के लिये आरक्षण की बात भी कही... लोहिया ने अंग्रेजी को सामंती भाषा करार दिया था... लोहिया अंग्रेजी के खिलाफ नहीं थे बल्कि अंग्रेजी के प्रभुत्व के खिलाफ थे... उनका मानना था कि अंग्रेजी पर पकड़ रखने वाले सवर्ण वर्ग के लोग प्रभुत्व रखते हैं... लोहिया हिन्दी के भी समर्थक नहीं थे... लोहिया का मानना था कि अंग्रेजी को हटाओ बाकी अन्य भारतीय भाषाओं को लाओ  लोहिया हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान के भी पक्षधर नहीं थे.... लोहिया रसूखदारी की तरफ कभी नहीं गए... जब देश आजाद हुआ सभी गांधी वादी गांधी को छोड़कर सरकार और देश चलाने में जुट गए उस वक्त लोहिया ही वो शख्स थे जो गांधी के साथ कदम से कदम मिलाकर उनके साथ चल रहे थे.... लोहिया हमेशा मानते थे कि अमीर और गरीब के बीच एक से दश का अनुपात हो चाहिए इससे ज्यादा कभी नहीं... इससे बात तो साफ है कि लोहिया पूंजीवाद के सख्त खिलाफ थे... उस दौर में लोहिया इतने प्रभावशाली साबित हुए कि उनसे एमएफ हुसैन और स्वामीनाथ जैसे पेन्टर्स प्रभावित हुए... इतना ही नहीं इनसे प्रभावित होकर अनन्तमूर्ति और देवारूड़ु महादेव जैसे उपान्यासकारों ने उपान्यास लिखे... हिन्दी की श्रेष्ठ कविताएं भी लिखी गई.... लोहिया इतने क्रान्तिकारी थे कि उन्होने महज चार साल में भारतीय संसद को अपने मौलिक राजनीतिक विचारों से झकझोर कर रख दिया था... इसमें चाहे नेहरू के प्रतिदिन 25 हजार रूपए खर्च की बात हो... या कांग्रेस को उखाड़ फेंकने का आह्वाहन हो जिसमें उन्होने कहा कि जिंदा कौमें पांच साल तक का इंतजार नहीं करती.. या महीयसी प्रधानमंत्री इंदिरागंधी को गूंगी गुड़िया कहने का साहस हो... लोहिया को मानने वाला शख्स यह जरूर कहता है... जब लोहिया बोलता था... 



तो दिल्ली का तख्ता डोलता है... सन 1962 में लोहिया फूलपुर में नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ने चले गए... जहां उन्होने भाषण में कहा कि मैं पहाड़ से टकराने आया हूं... मैं जूनता हूं कि पहाड़ से पार नहीं पा सकता लेकिन उसमें एक दरार भा कर दी तो चुनाव लड़ना सफल हो जाएगा... नेहरू के खिलाफ भले ही लोहिया चुनाव हार गए... लेकिन 1967 में जब हर तरफ कांग्रेस का जलवा था, तब राम मनोहर लोहिया इकलौते ऐसे शख़्स थे जिन्होंने कहा था कि कांग्रेस के दिन जाने वाले हैं और नए लोगों का जमाना आ रहा है... आलम ये रहा कि उस दौर में नौ राज्यों में कांग्रेस हार गई थी... लोहिया की मौत के बाद उनकी विरासत और उनके नाम के सिक्के यूपी और बिहार की राजनीति में खूब चले... नतीजा ये रहा कि लालू, नितीश मुलायम रामविलास पासवास, और सरीखे नेताओं ने लोहिया की विरासत से अपनी सियासत को खूब चमकाया... लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को अयोध्या जिले के अकबर पुर में हुआ था...  लोहिया ने जर्मनी से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की थी. लेकिन ये कम ही लोग जानते होंगे कि वे अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, मराठी और बांग्ला धड़ल्ले से बोल लेते थे, लेकिन वे हमेशा हिंदी में बोलते थे, ताकि आम लोगों तक उनकी बात ज्यादा से ज्यादा पहुंच सके.... लोहिया अपनी ज़िंदगी में किसी का दख़ल भी बर्दाश्त नहीं करते थे... लेकिन महात्मा गांधी ने उनके निजी जीवन में दख़ल देते हुए उनसे सिगरेट पीना छोड़ देने को कहा था. लोहिया ने बापू को कहा था कि सोच कर बताऊंगा. और तीन महीने के बाद उनसे कहा कि मैंने सिगरेट छोड़ दी.... लोहिया जीवन भर रमा मित्रा के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहे. रमा मित्रा दिल्ली के मिरांडा हाउस में प्रोफेसर थीं. दोनों के एक दूसरे को लिखे पत्रों की किताब भी प्रकाशित हुई. "लोहिया ने अपने संबंध को छिपाकर नहीं रखा... लोग जानते थे, लेकिन उस दौर में निजता का सम्मान किया जाता था. लोहिया जी ने जीवन भर अपने संबंध को निभाया और रमा जी ने उसे आगे तक निभाया... अगर लोहिया के अहम योगदानों में गोवा के भारत में विलय का जिक्र न किया जाए तो शायद यह किस्सा अधूरा रह जाएगा... राममनोहर लोहिया ने 18 जून, 1946 को मडगांव में 451 वर्षो की पुर्तगाली सालाजारशाही औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ गोमंतकों में संघर्ष करने का जज्बा पैदा किया... इसकी यही वजह है कि गोवावासी स्वयं को डा. लोहिया का ऋणी मानते हैं, और लोहिया कहा करते थे-मेरा गोवा पर नहीं, बल्कि गोवा का मुझ पर ऋण है... 



डा. लोहिया का मानना था कि गोवा भारत का अभिन्न अंग है और बगैर इसकी स्वतंत्रता के भारत की आजादी अधूरी है। तमाम नागरिक स्वतंत्रता एवं प्रतिबंधों के बावजूद डा. लोहिया गोवा आए और गोवावासियों को अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ने की प्रेरणा दी। कई बार उनकी गिरफ्तारियां हुईं, लेकिन पुर्तगाली निजाम उनके हौसले को पस्त नहीं कर सका। और गोवा मुक्ति संघर्ष में डा. लोहिया की अग्रणी भूमिका होने की वजह से गोवा मुक्ति संघर्ष समूचे भारत की लड़ाई बन गई... देश के चारों दिशाओं से सेनानियों का जत्था गोवा मुक्ति संग्राम में शामिल होने लगा... 18 जून सन 1946 को जलाई गई अलख धीरे-धीरे विशाल आकार लेती चली गई... देश के अनगिनत मुक्ति योद्धा शहीद हुए। अनेकों ने पीड़ादायक यातनाएं सहीं। कई लोगों को जेल में बंदी बनाया गया। इस तरह गोवा के स्वतंत्रता सेनानियों ने त्याग भावना के साथ अपने खून-पसीने तथा आंसूओं के अघ्र्य से 19 दिसंबर, 1961 को सैकड़ों वर्षो की दासता से गोवा मुक्त हुआ। गोवा के स्वतंत्र होते ही भारत की अधूरी स्वतंत्रता को पूर्णत्व प्रदान हुआ। भारत की स्वतंत्रता के चौदह वर्षो बाद गोवा को 451 वर्षो की पुर्तगाली दासता से मुक्ति मिली.... लोहिया की जिंदगी के अलावा मौत भी कम विवादास्पद नहीं रही उनका प्रोस्टेड ग्लैंड्स बढ़ गया था... जिसके ऑपरेशन के लिये उन्हें सरकारी विलिंग्डन अस्पताल में भर्ती किया गया था... उनकी मौत के बारे में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी ऑटो बायोग्राफी बियांड द लाइन्स में लिखा है...कि "मैं राम मनोहर लोहिया से अस्पताल में मिलने गया था. उन्होंने मुझसे कहा कुलदीप मैं इन डॉक्टरों के चलते मर रहा हूं.... 



कुलदीप आगे लिखते हैं कि लोहिया की बात सच ही निकली क्योंकि डॉक्टरों ने उनकी बीमारी का गलत इलाज कर दिया था. और 12 अक्टूबर सन 1967 को उनकी मौत हो गई.... मौत के बाद सरकार ने दिल्ली के सभी सरकारी अस्पतालों के निरीक्षण हेतु एक समिति नियुक्त की... समिति की रिपोर्ट का एक हिस्सा 26 जनवरी, 1968 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित हुआ था, इसमें समिति ने दावा किया था, "अगर अस्पताल के अधिकारी आवश्यक और अनिवार्य सावधानी से काम लेते तो लोहिया का दुखद निधन नहीं होता.... उनके सहयोगी रहे शिवानंद तिवारी ने एक बयान दिया था कि लोहिया की मौत एक बड़ा मुद्दा बना था लेकिन बाद में वो बात दबा दी गई. 1977 में केंद्र सरकार में राजनारायण स्वास्थ्य मंत्री बने तो उन्होंने लोहिया की मौत के कारणों की जांच करने के लिए विशेषज्ञों की समिति नियुक्त की थी, लेकिन अस्पताल में तब सारे कागज़ ग़ायब थे.... आज यही अस्पताल राम मनोहर लोहिया अस्पताल के रूप में जाना जाता है.."