Tuesday 31 January 2017

इंगलिस का शब्द 'HAPPY' जिसका हिंदी में अर्थ होता है खूशी... इस हैप्पी शब्द ने मुझ जैसे अनपढ़ व्यक्ति को एक भ्रमजाल में फंसा कर रख दिया है। आज के बदलते परिवेश में हमारे समाज में सब हैप्पी है। " हैप्पी सरस्वती पूजा, हैप्पी दुर्गा पूजा, हैप्पी छट पूजा, हैप्पी लक्ष्मी पूजा" और न जाने कौन-कौन से पूजा हैप्पी हो गए है। अब ज्ञान की देवी, शक्ति की देवी या धन की देवी के लिए श्रध्दा, समर्पण, आदर और प्रिय जनों के लिए मंगल कामना करने की कौन जहमत उठाए जब सब हैप्पी-हैप्पी हो जाए तो...

अब तो हैप्पी डैवॉस, हैप्पी ब्रेकअप भी हो गया है और न जाने आने वाले दिनों में कहीं हैप्पी डेथ न हो जाए... इस लिए मैं हैप्पी शब्द सूनते ही कोमा में चले जाता हूं जैसे ही मेरे फोन में पिंग-पिंग की धुन बजती है और संदेश इनबॉक्स में गिरता हैं। मैं भी अंदर से डर के चरम अवस्था में पहूंच जाता हूं। मुझे लगता है कहीं मेरे मौत को लेकर ही कोई मैसेज न आ जाए और लिखा हो हैप्पी डेथ इसलिए मैं फोन के इनबॉक्स को खोलने से पहले तीन-चार बार अपने दिल पर हैप्पी से ज्यादा वजन का पत्थर रख कर देख लेता हूं। अगर हैप्पी वाला मैसेज भी हो तो मैं उसका भार सह सकूं....

वैसे हैप्पी शब्द से मुझे कोई वैर नहीं है। यह शब्द मुझे समझ में नहीं आता तो इसका मतलब तो यह नहीं है न की वह भी इन शब्दों का प्रयोग न करे वैसे भी आज के दौर में मंगल कामणा जैसे इतने बड़े-बड़े शब्दों का प्रयोग कौन करें अब अगर मुझे मसझ में नहीं आए या मैं कोमा में चला भी जाऊं तो क्या फर्क पड़ता है क्योंकि मेरे कारण पूरा दुनिया कोमा में तो जा नहीं सकते इस लिए लिखते रहो ओर चिल्लाते रहो हैप्पी, हैप्पी....

Sunday 29 January 2017


प्रिय निधी

तुम तक मेरा खामोश सलाम पहुंचे। तुम खोमोश, मैं खामोश, ऐसा प्रतित हो रहा है जैसे पूरा दुनिया खामोश। नदियों के कलरव से लेकर पत्तियों की चरमराहट तक सब खामोश...एक लाश की भांती शांत, ठंठा और अकड़ा हुआ कितना भयानक है ये सन्नाटा! कलम भी कितनी खामोशी से चल रही है... इसके लिखे अक्षर भी कितने खामोश हो गए है। इन अक्षरों के कोहराम नहीं रहे.....घर के दरवाजे पर ठहरा हुआ, तेरी आहट का साया कच्ची नींद से अक्सर रात में, इसने हमें बार-बार जगाया है।



प्रियतमा तुम क्या गई मेरे जीवन से..., जीवन का सारा संगीत ही थम गया, हर साज चुप, हर आवाज चुप... मैं गाता भी हूं तो मेरा गीत चुप किसी तीर की तरह उसे और भी ज्यादा घायल कर देती है। अब चिड़ियों का चहचाना या कोयल का गाना कानों में अमृत नहीं विष घोलती है। पर ये बिना बोले रह भी तो नहीं सकते, इनकी हर आवाज मुझे कचोटती है... कितना अच्छा होता तुम बोलती ये खामोश रहते ये खामोशी मुझे प्रिय होती। सिर्फ तुम बोलती और सारी प्रकृति चुपरहती। तुम्हारे स्वरों में प्रकृति के हर स्वर का अनुभव कर लेता मैं। मगर सारी प्रकृति बोल रही है और तुम खामोश और स्थिर हो पत्थर की भांती...


बहुत दिनों से सोचा था तुम्हें एक खामोशी भरा खत लिखू पर अब खत लिखा भी नहीं जाता..... तुम्हारे बिना लिखना ही अच्छा लगता है। हर बार ये शब्द ही तो होते है... हमारे सेतु बस गिने चुने सीमायें ओढ़े....एक आहट धुंधली-धुंधली हां और ना के बीच डोलती हुई....वो कुछ जो लिखा ही नहीं गया हो अब तलक...जो कहा ही नहीं गया हो अब तलक पर उभर रहा है। इस तरफ भी और शायद उस तरफ भी अदृश्य इस छोर से उस छोर तक महसूस होता हुआ महफूज होता हुआ कुछ पनप रहा है शायद। इन खामोशियों के बीच जिसको मैं समझ रहा हूं और तुम भी समझ रही हो...

तुम्हारे आने की आहट ने मुझे बार-बार बेचैन किया है...तुम्हारी यादे अब बे-मौसम बारिश की तरह हो गई है। जो मुझे किसान की तरह कभी भी बर्वाद कर देती है और तुम भी सरकार की तरह मुझे कोई मुआवजा नहीं देती....तुम्हारी बेवफाई ने मेरी दुनिया में गदर मचा रखा है। मेरी दुनिया के हर चौराहे पर तेरी ही बेवफाई का चर्चा है। हर कोने से एक ही प्रशन चिख-चिख कर पुछ रहा है कि तुम बेवफा क्यों हुई....पर मैं जानता हूं तुम बेवफा नहीं हो सकती...वो लड़की बेवफा कैसे हो सकती है जिसने मुझ जैसे बेवकूफ को जीना और लड़ना सिखाया है। जिसने दिल्ली जैसे शहर में अपना बनाया हो....अगर तुम बेवफा नहीं हो तो फिर कौन बेवफा है....मैं....नहीं शायद वह आईना बेवफाई कर रहा है जो कभी हमने देखा था... हम दोनों ने एक रेखाचित्र खींचा था.. इस शहर में चलते हुए जब भी इस शहर से निकलना चाहता हूं कोई न कोई यादे मुझे लौटा लाती है। मैं तुम्हें हर लैंप पोस्ट पर खड़ा पाता हूं। हर बस से लेकर मेट्रो की सीट पर तुम्हीं बैठे लगती हो। कितना कुछ छूट गया हमारे मिलने में न?

अब तुम नहीं हो पर तुम्हारी यादो पर पेहरा कैसे लगाऊ...ये यादे कभी भी आकर मुझे तन्हा और खामोश कर देता है। उस तन्हाई और खामोशी में कितनी तड़प, आह, पिड़ा और लाचारी है यह मैं तुम्हें कैसे बतांऊ पर मैं तुम्हें लिख रहा हूं क्यों लिख रहा हूं और क्या लिख रहा हूं नहीं पता....लेकिन फिर भी लिख रहा हूं क्योंकि तुम्हारे बिना लिखना ही अच्छा लगता है। अल्फाज तुम तक पहुंचने के कदमों के निशान लगते हैं। डर लगता है कोई पीछे पीछे हमारी बात न सून ले।

अब हम दो भागों में बंट गए हैं। तुम पूने और मैं दिल्ली, तुम वहां मैं यहां। मैं बस यही लिखना चाहता हूं कि कम से कम पढ़ना तो रोना मेरे लिए। मेरे खामोशी और लाचारी के लिए। मैं भी रोना चाहता हूं। अपने सर्टिफिकेट पर खड़े अरमानों की इमारत की छत पर जाकर। मैं चाहू तो तुम्हें फोन या मैसज कर सकता हू फिर सोचता हूं तुम्हारे लिए लिखने से अच्छा है 'तुम्हे' लिखूं। हो सकता है ये खत तुम तक पहुंचे या न पहुंचे... कभी इतना वक्त लग जाए कि सियाही ही मिटने लगे। किसे पता ये खत तुम तक पहुंचने से पहले डाकिया पढ़ ले। बड़ा जालिम होगा वो। देखो यहां भी मैं लाचार हूं, बेबस हूं... शायद इसीलिए तो खामोश हूं... इन्ही खामोशियों में सोचता हूं क्या तुम ये सब जान पाओगी कभी...तुम्हारे ख्याल भी इतने खामोश होते हैं कि मैं जाने-अनजाने हां-ना के बीच झूलने लगता हूं। तुम तो मेरे बेवसी को समझ लोगे न। मैं किससे कहूं। तुम्हारी बातें भी खुद से कहता हूं। खुद को समझाते समझाते थक गया हूं। तुम समझती हो न!


तुम्हारा
 मैं...

Monday 16 January 2017

मैंने कभी सोचा नहीं था कि मुझे इतनी जल्दी अध्यात्म के बारे में पढ़ने या लिखने का मौका मिलेगा और इसेक पीछे का कारण यह भी रहा था की मुझे अध्यात्म से ज्यादा लगाव नहीं रहा क्योंकि उम्र के जिस दहलिज पर मैं खड़ा हूं वहां अध्यातम जैसे भारी-भरकम पहाड़ नुमा लगने वाला यह शब्द मुझे हमेशा डराते रहता। यही कारण भी रहा की अध्यात्म से मैं हमेशा भागता रहा। या फिर उम्र का तकाजा भी हो सकता है क्योंकि उम्र की जिस दहलिज पर मैं खड़ा हूं वहां मेरे जैसे न के बराबर ही बच्चे होंगे जिसका अध्यात्म की ओर रूझान रहा हो क्योंकि अध्यात्म एक दर्शन है, चिंतन धारा है, विधा है, हमारी संस्कृति की परंपरागत विरासत है। ऋषियों, मनीषियों के चिंतन का निचोड़ है, उपनिषदों का दिव्य प्रसाद है। आत्मा, परमात्मा, जीव, माया, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, सृजन-प्रलय की अबूझ पहेलियों को सुलझाने का प्रयत्न है अध्यात्म।

अब इतने भारी भरकम पहाड़ नुमा शब्दों से हम जैसे युवा जिसका चंचल मन न जाने क्या-क्या सपने बुनते हो और फिर अपने ही बुने सपने में फसकर उलझ जाता हो। वह अध्यात्म को कैसे समझ सकता। जो कॉलेज के कैंन्टीन से बाहर आते-जाते लड़कियों को देखकर नयन सूख की प्राप्ती करता और हर लड़कियों में अपना महबूब तलाशता फेसबूक जैसे बदनाम गलियों के हर चौराहे पर भटकते रहता और अपने महबूब की तलाश में दिल की सारी बाते परत दर परत उस पर लिख देता। जो लड़का हमेशा समाज में समानता की बात करता वह कैसे अध्यात्म से जुड़ सकता जिसका कोई विचार धारा नहीं जो खुद मौका परस्त रहा हो कभी बाबा गांधी को मानता तो कभी बाबा मार्क्स को और जरूरत पड़ने पर हिटलर को भी अपना आदर्श मानने से न हिचकचाता।


लड़कियों को देख कर बाबरा फिरता उसके लिए कहानी या कविता लिखता जिसे कहानी और कविताएं पढ़ना अच्छा लगता उस लड़के के लिए आध्यात्म ठीक वैसे ही जैसे एक डाकू को संत बनाना। मैं अध्यात्म से भागते रहता। जब कोई अध्यात्म की बात करता तो मुझे खुन्नस आती और मुझे लगता है। इस फिरस्त में मैं अकेला लड़का नहीं हूं जिसे अध्यात्म से फुन्नस हो अगर आप देखेंगे तो बहुत सारे लोग मिल जाएगें क्योंकि मैं इन धर्म-संस्कृति को मानने बाले लड़का नहीं रहा हूं। मैं अत्यंत अकाश में सबको उड़ते देखने वाला चाह लिए बड़ा हुआ इस लिए भी अध्य़ात्म मेरे लिए बिल्कुल अगल था, लेकिन जब हम अपने ही बूने जंजाल में फंसते जाते है और जब उस जाल से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखाता तब एक रास्ता बाकी रह जाता है अध्यात्म का और यही वह राह है जहां हम हर तरह के बोझ उतारे जा सकते हैं। बोझ मंसूबों के, बोझ मन के, बोझ आत्मा के अध्यात्म ही वह शक्ति है जहां हम अपने आप को पहचानते पाते हैं।