Tuesday 21 March 2017

प्रिय तम्मना

तुम जा चुकी हो मेरी जिंदगी से संदली जिस्म लेकर लेकिन मैं एक आरजू दिल में छुपाये फिर रहा हूं। कभी कह नहीं पाया तुमको इसलिए की तुम कहीं नाराज न हो जाओं मेरी गुस्ताखी से...पर अब जब तुम नहीं हो खोया रहता हूं तुम्हारे ख्यालो में... जमाने का कोई होश भी नहीं है मुझे... तेरी यादों के जज्बात इस कदर छलक रहें है मेरी आंखो में की बिना देखे तेरी तस्वीर बार-बार बना रहा हूं। धड़कन तो मेरी खामोश है... पर नजरें तुम्हें तलाश रही है। ठीक वैसे ही जैसे चांद नूर की तलाश में भटकता है। मैं भी भटक रहा हूं और भटकते-भटकते बुझ गया हूं। वह गर्दिश का सितारा जलके... जो कभी सबको रोशन किया करता था... अब वह सितारा वहां बेइंतहा दर्द से तड़प रहा है। हमारी खामोशी, हमारी आहट, हमारी आंखें, हमारी चाहत सब स्थिर हो गया है तम्मना। शांत, ठंड़ा, अकड़ा हुआ एक लाश की भांती.....

लेकिन मैं जिंदा हूं....मैं जिंदा क्यों हूं? मुझे तो मर जाना चाहिए...पर मैं मर नहीं सकता....मैं मर इसलिए नहीं सकता की तेरे ख्वाब जो सलामत है मेरे लहू के हर कतरे में...रात दिन उसे सहेज कर रखा हुआ हूं....अब किसी राह की ख्वाहिश नहीं है दिल में... हमने जब देखे थे एक रहगुज़र, साथ चलने की जो अब अलग हो गए है। जिस्म से होने वाली मोहब्बत आसान है... पर जिसे रूह से मोहब्बत हो जाए उसे अलग कैसे किया जा सकता है प्रिय। वह गुजर रही है बस तेरे वापस आने की आस में... मैं जानता हूं की तुम नहीं आओंगी पर मन कहां किसी की सुनता है यह तो चंचल है हर पल तुझसे मिलने की प्यास लिये फिरता है। सब कुछ है यहां बस तुम नहीं हो तम्मना। तुम कहीं भी रहो पर तेरे सर पर एक इल्जाम तो हमेशा रहेंगा... तेरे होंठों की लकीरों पे मेरा नाम तो हमेशा रहेंगा... तुम मुझको अपना बना या न बना लेकिन तेरे हर एक धड़कन में मेरा नाम तो हमेशा रहेगा।

वो ख्वाब जो कभी हम पाला करते थे अपने आंखों में... पानी से तस्वीर बना कर, अब कहीं भटक रहें है। तुम अक्सर कहती थी न तम्मना इश्क है वही, जो एक तरफा हो, इजहार-ए-इश्क तो ख्वाहिश बन जाती है, है अगर इश्क तो आंखों में दिखाओ, जुबां खोलने पर ये नुमाइश बन जाती है। मैं जुबान नहीं खोलता क्योंकि मैं अपने इश्क का नुमाइस नहीं करना चाहता। क्योंकि मैं जानता हूं इश्क तो महसूस और महफूज करने की चीज है नुमाइस की नहीं.... तुम जानती हो कितनी बाते याद आती है तुम्हारी.... और फिर वह तस्वीरें सी बन जाती हैं... अब उन यादों को धागे से सीने की कोशिश करते रहता हूं तम्मना। मैं उन लम्हो को फिर से जीने की कोशिश करते रहता हूं.... जो ओस से भी हलकी थी.... वह अश्कों की बूंदें, जो तुम उस दिन जाते वक्त गिराते गई थी...अब वह अश्क बार-बार मुझे बेचैन कर रही है... तुम्हारा इश्क दिखावा नहीं था प्रिय... तुम्हारा प्रेम तो उतना ही पवित्र था... शायद है... जितना पवित्र आत्मा।

तुम नहीं हो और तुम्हारे बिना जिंदगी भी नहीं है... जिंदगी, मैं फिर भी हर दिन जीने की कोशिश करता हूं। एक भ्रम, मैं रोज पैदा करता हूं तुम कहीं नहीं गई हो ...तुम यहीं हो मेरे पास मेरे हर एक सांसों में मेरे हर एक धड़कन में...मेरे लहु के हर के कतरे में...कुछ भी तो नहीं हुआ है....हमदोनों के बीच सब सही तो है...पर अचानक मेरे आंखों के कोरों से आंसू छलक आते है...क्योंकि मैं अपने जिस्म से तो झूट बोल लेता हूं तम्मना... पर अपने रूह से झुट नहीं बोल पाता....वह भ्रम जो मैं खुद बूनता हू्ं तुम्हें भूलाने के लिए वह टूठ जाता है। अधूरे ख्वाबों की दहलीज़ पर खड़ा, आज भी तेरी राह तकता है, अब कोई नहीं, कहीं नहीं, दिल के पास, मेरा वजूद एक सवाल बन गया अब तो, मेरे ही 'आप' अब मेरे आसपास नहीं.....तुम जानती हो... जब भी मुझे याद उस लम्हें की आती है। मोहब्बत कसक बनके उभर आती है। मेरे आंखों से आंसू की शीतल धारा छलक पड़ती है।

अब मन करता है खामोशी की सब दीवार तोड़ दू, तुम्हें जाकर सबकुछ बोल दू.... कुछ मैं तुमसे बोलू कुछ तुम हमसे बोलो... दिल से ज़ख्म, ज़ख्म से दर्द का सफ़र बहुत हुआ, आज हम एक दूजे पर मरहम बनकर लग जाय...पर यह भी महज़ एक स्वप्न भर है। मैं किसी तरह के भ्रम में अब जीना नहीं चाहता इस लिए शायद मेरे आंखों से आंसू छलक रहें है। ये याद है तुम्हारी या यादों में तुम हो, ये ख्वाब है तुम्हारे या ख्वाबों में तुम हो, मैं नहीं जानता... तम्मना तुम्हारे शरीर की खुशबू मैं हमेशा महसूस करता हूं। अजीब सी बेकरारी रहती है। दिन भी भारी, रात भी भारी रहता है वह आईना भी मैंने तोड़ दिया इस ख्याल से कि शायद हमारी तकदीर बदल जाए...पर आईने के हर टुकड़े में सिर्फ तुम्हारी ही तस्वीर नजर आती है। तुम जानती हो मुझे अब ऐसा प्रतित होने लगा है कि प्यार कहां किसी का पूरा होता है...प्यार का तो पहला ही अक्षर ही अधूरा है। जब वह पूरा नहीं है तो हम पूरा कैसे हो सकते है....तम्मना सच्चे प्यार में निकले आंसू और बच्चे के आंसू एक समान होते है। क्योंकि दोनों जानते है दर्द क्या है पर किसी को बता नहीं पाते...ठीक वैसे ही हम जानते है दर्द कहां और कैसे है हम कह नहीं पाते.........

तुम्हारा
पारस

Thursday 16 March 2017

अम्मी आज जब तुम्हारा ऑपरेशन हो रहा था ना तो आपा, खाला बार-बार मुझे फोन पर बता रही थी कि जब तुम खुद अपने बजूद को नहीं पहचान पा रही थी तब भी तुम मुरछित अवस्था में भी हमलोगों का नाम लेकर बड़बड़ा रही थी। अम्मी मैं भी आना चाहता था पर नहीं आ सका तुम से दूर रहना भी कुछ ऐसा हैं अम्मी जैसे मेरी सांसे मुझसे दूर हो.... सूरज की रोशनी भी इन नजरों को भाती नहीं है... अक्सर रात में चांद के उजाले में तेरा चेहरा नजर आता है अम्मी.... जिसमें तुम नाराज नजर आती हो..... मैं जातना हूं तुम चाहती थी कि तुम्हारे ऑपरेशन के दरमियां हम सब वहां रहें तुम्हारे पास पर मैं नहीं आया। क्यों नहीं आया इसका कोई पूख्ता जवाब नहीं है मेरे पास...शायद मैं डरता था तुम्हारें असहन दर्द, पीड़ा, तड़प से इसलिए जाने की कुब्बत नहीं जुटा पाया पर आज जब चांद में तुम्हारा चेहरा देखा तो लगा तुम्हारा दर्द, पीड़ा और तड़प सब बड़ गए है। तुम्हारी बैचेन आंखें हमें खोजते-खोजते थक सी गई है। तुम्हारा शरीर नींद के आगोश में जाना चाहता है। पर आंखों में नींद नहीं है वह लाखों चेहरों में हमें तलाश करती है......

तुम जानती हो अम्मी तेरी वो बाते, हमारी वो छोटी-छोटी लड़ाईयां, शाम ढ़लते ही वह सुकून भरे दो पल, रात को परियों की कहानियां सब बहुत याद आ रही है। अम्मी तुम्हारी नाराजगी बेचैनी आंखों में झलक रही है.... वो तुम्हीं थी जिसने मुझे ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाया, वो तुम्हीं थी जिसने मुझे हर मुसीबत से बचाया। पर आज जब तुम मुसीबत में थी मैं नहीं था तुम्हारे पास.... तुमने कुछ कहा भी नहीं....अम्मी तुम जानती हो... तुम्हारे आंचल में छिपकर सपने सजाना... ज़मीर को सुकून देने वाला तुम्हारी वो स्पर्श... चिलचिलाती धूप में तुम्हारे हाथों की ठंडक... तुमको छूकर आती हवा, कड़कती धूप में चैन.... बहुत कुछ याद आ रहा है अम्मी। तुम तो तकलीफ में भी मुस्कराती थी और हर गम को खुशी से सह जाती थी.....कभी मैंने तुम्हारें आंखों में आंसू की एक बुंद तक नहीं देखी है अम्मी.... पर उस रात जब मैं छत पर उस चांद को देख रहा था ना... जहां तुम नजर आती हो... मुझे वहां तुम्हारे आंखों में आंसू दिखें अम्मी यह आंसू मुझे बेचैन कर रहे है...तुम रोती भी हो मैंने कभी नहीं देखा था। पर आज तुम रो रही थी....

अम्मी तुम जानती हो तुम्हारे हाथों से खाने का निवाला खाना, तेरी ममता भरी डांट के बाद ढेर सारा दुलार... रात की गहराई में तेरी ममता की रोशनी...दर्द में भी चांद की चांदनी सी तेरी मुस्कुराहट… सब आज कहीं खोया सा लग रहा है। वह बिंदी भी जो तुम माथे पर चांद नूमा सजाए रखती थी वह मुझे कहीं दिखाई नहीं दे रही है। वहां तुम्हारे चेहरे पर सिसकने का दर्द दिखाई दे रहा था अम्मी.... जब मैं न जुबां था ना तब भी तुम मेरी हर खामोशी को पहचान लेती थी पर मैं तुम्हारे इस चुभन को नहीं पहचान पाया। तुम जानती हो आज वह चांद मुझे कोस रहा था अम्मी वह मुझे हिकारत भरी नजरों से देख रहा था... वह मुझे बार-बार याद दिला रहा था कि जब मैं बीमार होता तो तुम रात-रात भर अपने आंचल में छुपाए रखती थी... पर आज जब तुमको हमारी जरूरत थी तो हम वहां नहीं थे...वह चांद आज मुझे बहुत कुछ कहना चाह रहा था पर शायद तुमने उसे बोलने से रोक दिया....वह चाहते हुए भी नहीं बोला बस मुझसे नजरे फेर ली... तुमने आज चांद को क्यों नहीं बोलने दिया उसे बोलने देती अम्मी....


पर तुमने बोलने नहीं दिया शायद... ख़ुदा ने ये सिफ़त दुनिया की हर औरत को बख्शी है, कि वो पागल भी हो जाए तो बेटे याद रहते हैं। जानती हो अम्मी आज मैं तुम्हें एक बात बताऊं... मैं जब भी घर से आता हूं तुम हिदायत देती हो न... नहाकर पूजा कर लेना फिर कुछ और काम करना। शुरू में तो बुरा लगता था लेकिन अब आदत हो गई है। हालांकि अब भी मैं मन्दिर वंदिर नहीं जाता हूं। तुमको पता है जब मैं छुट्टी पर घर आता हूं तो मैं नहा कर पूजा-वूजा नहीं करता... लगता है कि तुम्हारे घर पे रहते हुए पूजा करने की क्या जरूरत तुम तो हो ही ना। इस बार जब घर आऊंगा तो एक दो थप्पड़ जड़ देना आज तक तुमने सही से पीटाई भी तो नहीं की। अगर तुम्हारे मार से मुझे रोना आ जाए तो चुप मत कराना। बस थोड़ी देर चैन से रो लेने देना। बहुत साल के आंसू हैं बहुत देर तक निकलें शायद।

Saturday 11 March 2017

होली, एक ऐसा उत्सव जो जीवन के आनंद पर नृत्य करता है। जीवन जो खुद एक रंग है। होली पर इस देश में जितने रंग खेले जाते है। उतने तो पूरी कायनात में देखे भी नहीं जाते विद्वानों का रंग बेरोजगारों का रंग जितना हिंदूओं का रंग, उतना ही मुस्लमानों का रंग, जितना इश्क का रंग उतना ही फरेब का रंग, जितना राजा का रंग, उतना ही रंक का रंग, जितना मंदिरों का रंग, उतना ही मस्जिदें का रंग, जितना आरती का रंग, उतना ही अजान का रंग ये सिर्फ त्योंहारों की किस्सागोई नहीं है ना ही किसी संतुलन की मजबूरी होली तो कहानी है जीवन की। जीवन जो खुद एक रंग है।  होली राग-रंग का उत्सव है। राग यानी गीत, संगीत... और रंग यानी जीवन... दोस्ती के रंग... प्रेम का रंग.... धर्म और दर्शन के रंग... हंसी ठिठोली के रंग...  इन रंगो को उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ पूरे शबाब पर होती है।


इसी समय शिशिर ऋतु विदा हो रही होती है और वसंत का आगमन होता है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से ही नए साल की शुरुआत भी होती है। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का मीठा संगीत सुनाई देने लगता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति संकोच और रूढ़ियां भूलकर ढोलक-झांझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। हमारे पुराणों की कहानियां भी जीवन के इन्हीं रंगो से गढ़ी गई हैं। इन कस्से-कहानियों में लोक मान्यताएं और कल्याणकारी संदेश भरे पड़े है।


पौराणिक मान्यताओं की नजर से होली का त्योहार एक ऐसे किस्से के मद्दे नजर मनाया जाता है जहां अटूट श्रद्धा पवित्र भक्ति बुराई का अंत और अच्छाई की जीत है। होली में जितनी मस्ती और धूम मचती है। उतनी तो किसी त्योहार में देखी भी नहीं जाती...इस दिन सारे लोग अपने पुराने गिले-शिकवे भूल कर एक दूसरे से गले मिलते हैं और गुलाल लगाते हैं। इस दिन हर उम्र के लोगों के लिए उल्लास का माहौल होता है।होली के दिन दिल खिल जाते हैं, रंगों में रंग मिल जाते हैं...ऐसा सिर्फ देश में नहीं, बल्कि विदेशों में भी होता है। दरअसल, जहां भी भारतीय मूल के लोग हैं, वहां यहां की परम्परा फलती-फूलती ही है। और, फिर होली तो ऐसी मस्ती भरा त्योहार है कि इसमें विदेशी मन भी देसी रंग में नहाने के लिए तैयार हो जाता है।

Friday 10 March 2017


मार्च का महीना आते ही तुम्हरी यादे सामने बाहें फैलाए खड़ी हो जाती है। यह महीना ऐसा ही है, जाने कितनी यादें जुड़ी हैं इस महीने से... जहां एक ओर वर्ष की अंतिम ऋतु शिशिर की विदाई हो रही होती है, तो वही साल के पहले ऋतु वसंत का आगमन हो रहा होता है। पलास के फूल खिल रहे् होते है, आम के पेड़ मे मंजरी लग रही होती है। ठीक उसी वक्त तुम मेरे जीवन में आई थी। खुद को मेरे वजूद का हिस्सा बनाने, याद है तुम घर से नकाब में निकली थी...गली के सारे लोग हमारे फिराक में थे पर तुमने उनको चकमा दे दिया था...इनकार था उनको हमारी मोहब्बत से...पर हमें तो एक पल का इंतज़ार भी दुश्वार हो गया था। वो सस्ता सा छोटा घरौंदा जहां हम दोनों बाहों में बाहें डाल कर जहां भर का सुकून पाया करते थे। खुद को वेदना के अथाह सागर वाले इस संसार में...वो चांद जिसे देख हम सारी रात जगा करते थे वो सब आज भी वहीं है सैफ़ी।


तुम जा चुकी हो मेरी जिंदगी से... खुद को मेरे लहू के हर कतरे में छोड़ कर... तुम्हें तो ठीक से बिछड़ना भी नहीं आया... तुम कहती हो भूल जाना मेरे परिचय को मगर याद नहीं एक भी सांस तो ऐसी नहीं मेरे सीने में जो किसी दर्द से आबाद या बर्बाद नहीं भूल तो जाते तुम्हें.... लेकिन डबडबाई हुई झील सी आंखें मुझे भूलने नहीं दे रही है। वो नजर कहां से लाऊं जो तुम्हें भुला दे वो दवा कंहा से लाऊं जो इस दर्द को मिटा दे... जो लिखा है तकदिर में वो हो कर रहेगा... मैं वह तकदिर कहां से लाऊं जो हम दोनों को मिला दे.... कभी हम ख्वाब देखा करते थे अपने वनों में स्वर्ग का... अब वहां आत्मा विरचती है जहां कभी हमारा स्वर्ग हुआ करता था...पर अब भटक रही है क्यों भटक रही है मेरे पास इसका कोई संतोष जनक जवाब नहीं है और मैं तुम्हारे बारे में कोई राय भी नहीं बनाना चाहता....बस मैं इतना ही जानता हूं सैफ़ी... तुम्हारे प्रेम के संदूक में मेरे लिए जो जगह खाली थी... शायद वह स्पेस आज भी है...  मैं तुम्हारे उस संदूक के तंबू की तिरपाल तक भी नहीं पहुंच पाया पर... मैंने बहुत कुछ सीखा है तुमसे और बड़ी ही गहरी स्वीकृति से क्या सीखा पता नहीं...शायद विश्वास, शायद निष्ठा, शायद प्रेम....शायद पता नहीं....

पर अब रात होते ही वह चांद हमें दुहाई देने लगता है...जो कभी हमारे प्यार का इकलौता गवाह हुआ करता था....मेरा मज़हब सिर्फ प्रेम था और तुम इसके अकेली सिद्धांत हुआ करती थी। तुम्हें पता है सैफ़ी आज भी संभाल के रखा है मैंने वो कागज का टुकड़ा जिसमें तुमने लिखा था मुझे तुमसे मोहब्बत है। तो क्या तुम्हारा प्रेम दिखावा था? नहीं तुम्हारा प्रेम दिखावा नहीं हो सकता... तुम प्यार करती थी या शायद करती हो...क्योंकि तुम्हें प्रेम में उतना ही यकीन था जितना की कोई इंसान मौत पर करता है। ये तुम्हारी निष्ठा है प्रेम के प्रति पर मैंने कभी इस निष्ठा को पहचाना ही नहीं.... पर अब जब तुम नहीं हो...यह एक टीस बन कर दिल में चुभने लगा है... दिल से उठी यह टीस अब स्याही बनकर कलम से गुजर जाती है, वो सुफेद सफे के लिबास पर नज़्म बनकर बीछ जाती है। अब जब भी कोई आईना सामने आता है उसमें भी तेरी ही तस्वीर नजर आती है। न चाहते हुए भी उसे छोड़कर आना पड़ता है... आज बस तुम्हें बस एक बात बताना चाहता हूं सैफ़ी... तुम इम्तिहान में ना आने वाले सवाल जैसे बन गई हो दूर होकर भी पास लगती हो....


मेरे लहु का एक कतरा भी तो ऐसा नहीं जिसमें तुम नहीं हो... प्यार पर बस तो नहीं है मेरा, लेकिन फिर भी तू बता की तुझे प्यार करू या नहीं....तेरी जुदाई भी हमें प्यार करती है सैफ़ी... तुम्हारी यादे मुझे बार-बार बेकरार कर देती है...वह दिन जो तेरे साथ गुजरे थे.... अब नज़रे बार-बार उसे तलाश करती है। मैं लिखता हूं सिर्फ तुम्हें अपने वजूद में जिंदा रखने के लिए... मेरे हर एक सांसो में तुम ही तुम हो...जानती हो सैफ़ी तुझे लगता है जिस-जिस ने मुहब्बत किया है खुदा ने अपने वजूद को बचाने के लिए उनको जुदा कर दिया है। तुम बेवफा नहीं हो और न ही 'मैं' बेवफा हूं ये तो वक्त का सितम था जो उस दिन हमदोनों के ऊपर तुफान बनकर आया था.... वो आया और हम दोनों को उड़ा ले गया दो राहों में... पर यादों की यही एक बात अच्छी होती है सैफ़ी... चाहे यादे खुशी की हो या फिर तकलीफ की हमेशा साथ होती है कम से कम तुम्हारे तरह तन्हा तो नहीं छोड़ती तुम्हें याद है तुमने इस महीने को मिस्टिरीअस मार्च नाम दिया था और यह है भी बिलकुल किसी मिस्ट्री जैसा, कभी समझ नहीं आने वाला, खट्टे मीठे पलों वाला...बिटरस्वीट मिस्टिरीअस मार्च!