Tuesday 14 November 2017

नई दिल्ली : लगातार दो सफल मीटअप करने के बाद, वेबफेअर, दिल्ली के ओखला इंडस्ट्रियल एरिया के फेस दो स्थित 91 स्प्रिंगबोर्ड सभागार में रविवार को अपने तीसरे संस्करण 'वेबफेअर 3.0' का आयोजन करने जा रहा है।

चलन के विपरीत, हिंदी भाषा में होने जा रही यह संगोष्ठी वेब इंडस्ट्री के छोटे-बड़े उद्यमियों, शोधकर्मियों और विद्यार्थियों के लिए बेहद लाभप्रद रहेगी।

गोष्ठी के दौरान ब्लॉगिंग, वेब कंटेंट, इंटरनेट मार्केटिंग, ओपन सोर्स प्लेटफॉर्म, वेब सिक्योरिटी व दूसरे अन्य अनुप्रयोगों के बारे में चर्चाएं होंगी। सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के अग्रणी विशेषज्ञ और वक्ता अपने विचारों और अनुभवों से उपस्थित लोगों को रू-ब-रू कराएंगे।

मीडियाभारती.कॉम के संपादक धर्मेंद्र कुमार, सस्ताहोस्ट के संस्थापक पंकज चौपड़ा, पर्सनलाइव आईटी सॉल्युशन की संस्थापक स्वप्निका जैन तथा प्रेरक वक्ता सूरज सुनील सिंह नगरकोटी इस मौके पर अपने संबोधन करेंगे। साथ ही, सभी वक्ता भाग लेने वाले अन्य आगतुंकों के साथ प्रश्नोत्तर सत्र में हिस्सा लेंगे। गोष्ठी के लिए पंजीकरण शनिवार तक खुले हैं।

एबी ग्रुप, सस्ताहोस्ट, 91स्प्रिंगबोर्ड और थीमियम इस गोष्ठी के प्रायोजक हैं तथा मीडियाभारती.कॉम, जीइंडियान्यूज.कॉम, द इमर्जिंग वर्ल्ड और समाचारएक्सप्रेस.कॉम इस आयोजन के दौरान मीडिया पार्टनर रहेंगे।

Monday 6 November 2017

सुनो प्रिय आज मैं तुम्हे कुछ बताना चाहता हूं हो सकता है मेरी यह बाते तुम्हे शायद बुरा लगे या जरूरत न हो जानने की फिर भी मैं तुम्हे बताना चाहता हूँ,,, तुम तो जानती हो न प्रिय हर सिक्के के दो पहलू होते है ठीक वैसे ही मेरे भी दो पहलू है,,, एक जो तुम्हारे सामने हंसते बोलते लड़ते-झगड़ते बड़ी-बड़ी आँखे दिखा कर छोटी-छोटी बातो पर बहस करते, तुमसे दूर जाने की सोच से ही डरते तुम्हारे बिन खुद की कल्पना करने मात्र से सिहर उठते,, मैं वह सब कुछ करता जो एक लड़का प्यार में करता है पर एक दूसरा पहलू ठीक इसके विपरीत है जब मैं खुद में रहता हूँ तो एकदम शांत गुमसुम किसी दुनियां दारी से कोई मतलब नहीं होता। तुम जानती हो प्रिय मैं कई-कई दिनों तक अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकता मेरे लिए वह कमरा ही सब कुछ है उस कमरे में पड़ी कुछ किताबें और उन किताबों के बीच मैं मेरे अंदर तुम्हारी यादे।

सच कहुँ तो मैं उस यादों में ही रहना चाहता हूं। किसी के होने या न होने का कोई मलाल नहीं होता। जो देखने में बिल्कुल शांत नदीं की मादिक पर जिस तरह नदियां अपने आप में अशंख्य भवर खुद में सम्माहित किये होती है बिल्कुल वैसे ही मैं भी न जाने कितने भवर ले कर जीता हूँ,, बहना चाहता तो बह जाता इस छोर से कहीं दूर पर वेदनाओं के वेग बहुत तेज होते है न प्रिय न जाने कितना कुछ बहा ले जाये इसलिए शांत हूँ। ठीक वैसे ही जैसे महादेव ने गंगा को समेट रखा है अपने जटाओं में...अगर तुम  सम्भाल लो मुझे खुद में कहीं, तो मैं सभी बांधे तोड़ तुम तक आ जाऊँ पर शायद ये सम्भव नहीं है। तुमने कभी देखा है नदियों में उफान उठते हुए हाँ बिल्कुल वैसे ही मुझमें भी एक उफान उठता है जो सिर्फ मुझको ही तबाह करता है....

प्रिय तुमने कभी सुना है रात में नदियों की कलकलाहट,, रात के पहर बहुत कुछ कहना चाहती है ये नदियां पर उस वक़्त सब उसे छोड़ कर जा चुके होते है,, हाँ तुम आती हो कभी-कभी किनारे तक मुझे जानने के लिए... पर तुमने कभी कोशिश नहीं किया मेरे गहरायी तक आने की... न कभी मैंने कोशिश की तुम्हे खुद में सम्माहित करने की... खैर तुम्हारे जाने के बाद कुछ किस्से इस चाँद को भी सुनाता पर वो भी न ठहरता बादलों में छुप जाता और सोचता एक दाग ले कर वो निरन्तर एक समान न रहता फिर ये नदी सबके पापों को ले कर कैसे बहती एक समान,, सच बताऊँ प्रिय जिम्मेदारियों और विश्वासघात के हवनकुंड में जल कर मेरी इच्छायें भी सती हो गयी है मैं भी चाहता तो महादेव की तरह समाधि ले लेता पर कुछ शेष है जो जला नहीं अभी जो रोके हुए है मुझे,, और ये शेष तब जागृत हुआ जब तुम आये,,, कभी उतर आओ इस नदीं में और देखो मेरे हृदय पर लगे आघात को या फिर जाने दो मुझे भी उस समाधि की और जहाँ कोई मोह न हो यकीन मानो मैं वहाँ भी जी सकता हूँ पर एक दर्द के साथ जो जब तक जीवन रहे तब तक रहे, अब तुम पर है तुम चाहो तो रोक लो या मिट जाने दो मुझे !!

Friday 8 September 2017

नई दिल्ली : इंटरनेट के क्षितिज पर उभरते हुए नए उद्यमियों के लिए 'दिल्ली के दिल' कनॉट प्लेस के 'इन्नोवेट' सभागार में रविवार को 'वैबफेयर मीटअप 1.0' का आयोजन किया जा रहा है।

आयोजक संस्था वैबफेयर के अनुसार हिंदी भाषा में होने जा रही यह गोष्ठी वैब इंडस्ट्री में कदम रखने जा रहे छोटे-बड़े उद्यमियों और विद्यार्थियों के लिए बेहद लाभप्रद रहेगी। गोष्ठी के दौरान ब्लॉगिंग, इंटरनेट मार्केटिंग, एसईओ, यूट्यूब व दूसरे सोशल माध्यमों के अनुप्रयोगों के बारे में चर्चाएं होंगी। सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र के अग्रणी विशेषज्ञ और वक्ता अपने विचारों और अनुभवों से उपस्थित लोगों को रूबरू कराएंगे। गोष्ठी का आयोजन देश की अग्रणी वैब होस्टिंग कंपनी सस्ताहोस्ट कर रही है।
मीडियाभारती.कॉम के संपादक धर्मेंद्र कुमार, सस्ताहोस्ट के संस्थापक पंकज चौपड़ा, स्क्रिबीफाई के संस्थापक और युवा लेखक रचित सिंह तथा रैंकवॉच में ग्रोथ हैकर अमिताभ सौंगारा इस मौके पर अपना संबोधन करेंगे। साथ ही, सभी वक्ता भाग लेने वाले अन्य आगतुंकों के साथ प्रश्नोत्तर सत्र में हिस्सा लेंगे। गोष्ठी के लिए पंजीकरण शनिवार तक खुले हैं।

नेटकॉम सिस्टम सर्विसेज, एबी ग्रुप और वेक्टर एक्सपर्ट इस गोष्ठी के प्रायोजक हैं तथा मीडियाभारती.कॉम, मनीषजे.कॉम, द इमर्जिंग वर्ल्ड और समाचारएक्सप्रेस,कॉम इस आयोजन के दैरान मीडिया पार्टनर रहेंगे।

Wednesday 23 August 2017


दूर क्षितिज में जब पहाड़ियों की ढलान से उतरते हुये सुर्य की अंतिम रश्मियों ने भी अपनी सांस तोड़ दी तो बॉल्डर की पीठ से न जाने कब से अपनी पीठ टिकाये हुये मेरा शरीर दुखने लगा था। अपने कुछ अजीज मित्रों की ऊल-जुलूल बातों से बचने के ख्याल से उनसे दृष्टि चुराकर मैं चुपचाप ढलते हुये सूर्य की अंतिम यात्रा के धीरे-धीरे करके लुप्त होते रंगों को देख रहा था और पहाड़ी वातावरण की प्यार से गुदगुदाती मदमस्त हवाओं में बॉल्डर की पीठ से अपनी पीठ टिकाये हुए अपने विचारों में गुम ही था कि एकाएक यादों के पहाड़ मेरे सामने बाहे फैलाए खड़े हो गए। कितना अच्छा दिन हुआ करता था जब हम सारे दोस्त इन पहाड़ियों पर आ कर ढलान से उतरते सुरज की अंतिम रंगों को देखा करते थे। हर त्योहार हम लोग उसी पहाड़ पर तो जा कर मनाते थे, लेकिन अब हर त्योहार पर मैं अकेला होता हूं नितांत अकेला, तुमलोगों की प्यार की अथाह खूशहू से मैं मिलो दूर तुमलोगों की यादों की कुंज में अकेला पड़ा रहता हूं। यह शहर त्योहार के दिन काटने को दौड़ता है यह शहर त्योहार के दिन भी हंसता नहीं है और ना ही रोता है। यह शहर इतना आवारा है दोस्त की कभी सोता तक नहीं मैं भी आवारा हो गया हूं दोस्त पूरी रात यू ही कट जाती है अकुलाते हुए यह जागरण, यह उनींदापन एक अजीब सी खौफ मेरे अंदर पैदा कर रहा है। जो दिल कभी एक अजीब सी सुखानुभूति से भरा होता था। वह आज यू ही धड़कता है, देह यूं ही पसीजता है, नसे यू ही खिचता है। देह की भाषा भी भूल गया है दोस्त। यहां ना दूर क्षितिज में पहाड़ियों का ढलान है और ना सुर्य की अंतिम रश्मियां अगर यहां है तो बस चौड़ी-चौड़ी सड़के उसपे भागती-दौड़ती गाड़ियां, अस्त-व्यस्त लोग, ऊंची-ऊंची इमारतें और इन इमारतों में रहते बिना वेदना वाले लोग। यही इस शहर की खासियत है दोस्त यहां ना कोई बोलने आता है औऱ ना ही छेड़ने मैं यहां नितांत अकेला पड़ा होता होता हूं। 

Wednesday 16 August 2017

Posted by Gautam singh Posted on 05:00 | No comments

तान्या




चमन मिश्रा का उपन्यास 'तान्या' नई वाली हिन्दी में लिखा गया है। यह सत्य और कल्पना दोनों का सहारा लेकर व्यापक सामाजिक जीवन की झाँकी प्रस्तुत करता है। चमन मिश्रा का  यह उपन्यास हिंदी साहित्य के इस बासी से हो रहे माहौल में भी कुछ नया व ताज़ा करने की कोशिश पूरी तरह से मरी नहीं है को दर्शाता है। यह किताब आम बोल चाल के भाषा में लिखा गया है। इस किताब की यही सबसे प्रमुख नयापन है। यूं तो इस उपन्यास का प्रत्येक अध्याय अपने आप में स्वतंत्र है, लेकिन जरा गहराई से अगर गौर करें तो यह स्पष्ट होता है कि स्वतंत्र से दिखने वाले यह उपन्यास कहीं न कहीं आपको बांध देता है। इसी क्रम में किताब के कुछ प्रमुख अध्यायों पर एक संक्षिप्त नज़र डालें, तो इसका पहला अध्याय ‘बिछड़न, इश्क और बनियागिरी’ किताब की वास्तविक भूमिका है। इसमें जीवन की आपा-धापी से कुछ समय मिलने पर लेखक ने दो प्यार करने वाले के अन्तःप्रेम को दर्शाया है जो आज के आभासी दुनिया में प्रेम करने के नए ठिकानों को दर्शाता है। तो वहीं दूसरे अध्याय पर नजर डाले तो 'दिल्ली, आशिक़ अर्नब और प्रपोज़ल' में लेखक की डायरी दूसरी तरफ मुड़ती है। दूसरे अध्याय में चीजें फ्लैशबैक में चली जाती हैं। वह स्कूल के दिनों में पहुंच जाते है। जब पहली बार तन्या ने उसे प्रपोज़ल भेजा था। इसी प्रकार प्रत्येक अध्याय एक दूसरे से क्रमवार ढंग से जुड़ते चले जाते है। किताब का एक अध्याय 'स्कॉर्पियो, वेंटिलेटर और अंतिम पत्र' इस उपन्यास की टर्निंग प्वाइंट है। जिसमें नायिका का एक्सीडेंट से लेकर अंतिम पत्र को दर्शया गया है। इस उपन्यास का अंतिम अध्याय 'प्रशांत, तान्या और अधूरा सवाल' में लेखक ने पूरे उपन्यास का निचोड़ दर्शाया है। बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक किसीको भी तान्या निराश नहीं करने वाली। किताब भाव, भाषा और विस्तार के मोर्चे पर सौ फीसदी खरी उतरी है। कुछ गुंजाइश भी है। फिर भी वर्तमान हिंदी के दौर का एक शानदार 'उपन्यास' जिसमें प्यार, दुश्मनी, दोस्ती दिखती है। इसका अंत सबसे बेहतरीन जिसपे प्रत्येक पढ़ने वाले कहे रवि और तान्या का अंत ऐसा नहीं हो सकता..! आखिर में, इस सुन्दर रचना के लिए चमन को ढेरों बधाइयां.!

Thursday 3 August 2017

Posted by Gautam singh Posted on 03:24 | No comments

प्यारी मां

प्यारी मां

तुम्हारे अथाह प्यार की खूबसूरती से मैं मिलों दूर तुम्हारे यादों के प्रकाश में यह खत लिख रहा हूं। तुम्हें खत लिखने से पहले हजारों दफा न जाने क्या-क्या लिखा और न जाने क्या-क्या मिटाया। कितना मुश्किल होता है मां अपने ही लिखे को मिटाना। तुमको पता है मां मैंने अपने दर्द को नहीं लिखा, मैंने शिकायते नहीं लिखी, लेकिन फिर भी मैंने हजारों खतों को मिटा डाला। यह खत मेरी जिन्दगी की सच्चाई है मां मुझे अपने ही लोगों ने हशिये पर ला कर खड़ा कर दिया है। मैं जिन लोगों को आंखों पर बैठाकर रखता था उन्होंने ही मेरे साथ छल किया है। मैं उनलोगों के बीच रहते-रहते एकदम खाली हो गया हूं मां। ठीक वैसे ही जैसे शराब की बोतल खाली होता है और खाली बोतल को जहां लोग फेकते है आज मुझे भी वहां फेक दिया गया है। कोई नजर तक उठा कर नहीं देखता।

सोचा था मां तुम्हें सब अच्छा-अच्छा लिखू पर नहीं लिख पा रहा हूं। जो सच है वह बता देना चाहता हूं। किताबों कि दुनिया में रहते-रहते इंसानों को पढ़ना ही भूल गया मां... कोल्ड ड्रिंक की बोतल से लेकर मंदीर की घंटी तक में मैंने शांति को खोजा है। हर रोज किताबों के बीच से कई सवाल मेरे सामने बाहें फैलाए खड़े हो जाते है मां उस वक्त मेरे पास कोई जवाब नहीं होता और मैं फिर शान्ति के प्रयास में भटकने लगता हूं, लेकिन कुछ दिखाई नहीं देता अगर कुछ दिखाई पड़ता है तो बस किताबों से भरा पड़ा एक कमरा, अगर कुछ महसूस होता है तो किताबों की गंध और उस गंद में गिरता-उठता मैं। मां मैं दिन पर दिन एक बेकार आदमी होता जा रहा हूं। मेरे पास अब न सोचने की शक्ति बची है और न ही समझने की चाह।


अब बस ऐसा लगता है मां कि मैं किसी ऐसी इमारत के रचना में लगा हूं जिसके कमजोर कारिगरियों के चलते नियती में गिरना लिखा कर लाया हो। अब मुझे नींद भी नहीं आती मां राते करवटे फेरते कट जाती है। स्लीपिंग पिल्स की तीन-तीन गोलियां भी मुझे नींद नहीं दे पाती सारी रात शान्ति के प्रयास में अकुलाते हुए कट जाती है। यह जागरण, यह उनींदापन एक अजीब सी खौफ मेरे अंदर पैदा कर रहा है। अब इतनी भी शक्ति नहीं रहा मां की अपने कमरे के बाहर वाले मैदान का मैं एक चक्कर लगा सकूं... जो दिल कभी एक अजीब सी सुखानुभूति से भरा होता था। वह आज यू ही धड़कता है, देह यूं ही पसीजता है, नसे यू ही खिचता है। देह की भाषा भी भूल गया हूं मां....


मेरा जीवन शरदचंन्द्र की उपन्यास देवदास के जैसे होते जा रही है मां जिसमें कहानी या क्लाइमेक्स की बजाय जीवन किसी की चाह में भारी होते जाता है ठीक वैसे ही मेरा जीवन उभ भरी यात्रा मात्र रह गया है। दिन की खालीपन मुझे थका देती है मां... रात में मुझे नींद नहीं आती और जब मैं किताबों से उबने लगता हूं तो रात के घोर अंधेरे में अपना लैपटॉप ऑन कर लेता हूं। गूगल पर मरने का आसान तरीके खोजने लगता हूं। फिर एका-एक मेरे अंदर अजीब सा डर सामाहित हो जाता है मैं डर के मारे नेट बंद कर देता हूं। मैं यह जातने हुए की मौत बहुत ही खूबसूरत है फिर भी डर जाता हूं। यह डर कैसा है मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है। शायद मैं डरता हूं। खुद को मारने से लेकिन अपने-आपको मारने से कही अजीब है अकेले मर जाना मां....

Saturday 29 July 2017


सोशल मीडिया पर इन दिनों एक किताब की बहुत चर्चा हो रही है। तान्या। इसको लिखा है चमन मिश्रा ने। वैसे चमन मिश्रा से मेरी पहली मुलाकात 2015 में हुई। ना तो वह मेरे क्लासमेट रहे है और न ही मेरे जूनियर, लेकिन पहली मुकालात में जो एक रिश्ता कायम हुआ हुआ वह एक अटूट बंधन सा बंधा हुआ है। चमन को जब मैंने पहली दफा देखा था, तो वह बिल्कुल शांत, गंभीर और आंखों में किताबों की आग और लिखने की तड़प दिख रही थी और वह लगातार लिखते रहे वेबसाइड, फेसबुक, न्यूजपेपर के लिए तान्या उनका पहला उपन्यास है।  चमन मिश्रा नई वाली हिंदी लिखते हैं। आसान से आसान और बोलचाल की भाषा में जटिल मुद्दों को लिखना ही नई वाली हिंदी है। दिल्ली में किराए के कमरों में रहने वाले पलायनवादी लड़कों की इश्क़ वाली कहानियां लिखते हैं। किताब की प्री-बुकिंग चल रही है। तो लॉन्च होने से पहले ही तान्या का एक हिस्सा हम आपके लिए छाप रहे हैं। ये हिस्सा अर्नब गोस्वामी के सुपर एक्सक्लुसिव से भी ज्यादा एक्सक्लुसिव है। बकबुड़बक के सिवाय किसी के पास नहीं मिलेगा।

बिछड़न, इश्क़ और बनियागिरी

“तुम कब तक यूं ही किस्तों में प्यार करते रहोगे ?”
“किस्तों में कहां…? मैं तो थोक में प्यार कर रहा हूं। वैसे जिंदगी में और भी काम हैं, इश्क़ के सिवा!”
“तुम्हारे पास हमेशा ‘और भी’ काम ही रहे हैं। इश्क़ तो टाइमपास रहा है।”
“रियली, तो पिछले तीन साल से मैं ‘टाइमपास’ ही कर रहा हूं ! यार, गुस्सा मत करो। सेमेस्टर एग्ज़ाम हो गया। अब फ्री हैं, तो बात ही करनी है।”
“मुझे नहीं करनी कोई बात। गो इन हैल।” गुस्से वाली इमोजी के साथ तान्या ने रिप्लाई किया।
“एज़ यू विश, ओके, बाय।” प्रेम में आप गुस्सा कर सकते हैं, झगड़ सकते हैं। इंतजार नहीं कर सकते! इंतजार के पल तन्हा कर देते हैं। झगड़े के बावजूद रवि ने दस मिनट बाद ही तान्या को कॉल लगा ली।
“हैल्लो...! हाऊ आर यू…? रवि ने प्यार और लाड़ का कॉकटेल बनाकर बड़ी ही रूमानियत से बात की शुरूआत की।
“हू आर यू…? डोंट डिस्टर्ब मीं…आई एम बिजी…सो प्लीज़ डोंट ट्राई टू कॉल मी अगेन।” तान्या ने जैसे झुंझलाहट, गुस्साहट, मिसमिसहाट और भड़ास की अनुभूतियों का संयोजन करके रवि से कहा हो।
“सुनो तो जान, तुम मेरे व्हाट्स-एप्प पर नहीं दिख रहीं?”
“अब कभी दिखूंगी भी नहीं। स्वार्थियों से नफरत करती हूं मैं।” तान्या ने इतना कहकर कॉल कट कर दी। आज ही रवि को आभास हुआ, कि अंग्रेजी के दो सैटेंस में कितना वज़न होता है।

ये तान्या और रवि का पहला वर्चुअल स्पेस झगड़ा नहीं था, और शायद आखिरी भी नहीं। ऐसा होता रहता था। उस दिन रवि ने कई बार कॉल लगाई। तान्या ने ना तो नंबर ब्ल़ॉक किया और ना ही फोन पिक किया। इस लव चैटिंग की शुरुआत हुई थी, बारहवीं के बाद। स्कूल के हॉस्टल से निकलने के बाद, वो दोनो अलग-अलग यूनिवर्सिटी में थे।

दो अलग-अलग राज्यों में। ज़रिया बात करने का था सिर्फ मोबाइल। मोबाइल में फेसबुक, व्हाट्स-एप्प, वी चैट और भी कई एप्प जिनसे चैटिंग संभव थी। ये वो दौर था, जब छोटे शहरों तक व्हाट्स-एप्प और फेसबुक जैसे एप्प तेज़ी से ‘पलायन’ कर रहे थे। छोटे शहरों के लड़के बैंक अकाउंट के साथ-साथ फेसबुक एकाउंट भी खोलना शुरू कर दिए थे। बंटी, विपिन और मोनू जैसे कितने ही लड़के व्हाट्स-एप्प की इमोज़ियों और फ़िचरर्स को रॉकिट साइंस समझकर दिमाग भिड़ा रहे थे। शायरी की जगह इमोजियों का कैसे इस्तेमाल किया जाता है, इसका राजधानी दिल्ली से यूपी के बस्ती तक ट्रांसफोर्मेशन हो रहा था। 10 रूपए के नाइट कूपन की जगह अब 15 एमबी डाटा लिया जाने लगा था। इस समय तक भारत में राजनीतिक प्रोपेगेंडा के लिए फेसबुक का इस्तेमाल नहीं हुआ था।
नरेंद्र मोदी की दिल्ली में धमक सुनाई देने लगी थी। चर्चाएं शुरू हो रहीं थीं, कि बीजेपी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार किसे बनाएगी। नरेंद्र मोदी का नाम आगे आने पर नीतीश कुमार बीजेपी का साथ छोड़ने की धमकी दे रहे थे। कांग्रेस के भ्रष्टाचार और पंगु शासन से त्रस्त जनता पहली बार चुनावों का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। प्राइम टाइम एंकर जनता का मूड़ भांपने के लिए गांवों का मुआयना करने के लिए निकलने लगे थे। इसी राजनीतिक सक्रियता और उथल-पुथल के दौर में लखनऊ के तान्या और रवि की तरह बहुत सारे प्रेमियों की प्रेम कहानियां फेसबुक, व्हाट्स एप्प पर पनप रहीं थीं।

“हे…!” तान्या ने तीन दिन बाद रवि को अनब्लॉक करके मैसेज किया।
“हैलो..!” रवि ने इश्क़ वाले एटीट्यूट के साथ रिप्लाई किया, लेकिन बिना इमोजी के बिना एटीट्यूट मैसेज में नहीं दिखा।
“क्या हो रहा है ? खाना हो गया...?” तान्या ने बात को आगे बढ़ाने के इरादे से पूछा।
“हां, तुम्हारा ?” ‘खाना हो गया’ ये सवाल तान्या हमेशा पूछती थी और रवि हमेशा ही झूठ बोलता था। आज भी बोल
दिया।
“मैंने भी अभी खाया है।”
“तुमने पत्रकारिता क्यों चूज़ की ?” कन्वर्सेशन को नॉर्मल-वे पर लाने के लिए तान्या ऐसे सवाल अक्सर पूछने लगती थी।
“मैथमैटिक्स कमजोर था। सोचा कुछ ऐसा किया जाए जिसमें मैथ ना हो। गूगल पर सर्च किया। उसमें पत्रकारिता का विकल्प दिखा तो चूज़ कर लिया।” बड़े मकान के छोटे कमरे के फ़र्श पर बिछे हुए पुराने गद्दे पर लेटे-लेटे रवि ने जवाब दिया। कमरा उस वक्त बिल्कुल वैसा ही था, जैसा इंजीनियर्स का अमूमन होता है। अभी तक रवि गाज़ियाबाद में सैटल नहीं हो पाया था। गोविंदपुरम् में रूम की बातचीत चल रही थी। कुछ करने को था नहीं, तो अननॉन सीनियर्स के रूम में मोबाइल चार्जिंग पर लगाकर चैटिंग कर रहा था। कमरे में दो गद्दे और दो गद्दों पर चार लड़के। गद्दों की साइड वाले दोनों लड़के आधे से थोड़े ज्यादा फ़र्श पर ही थे। सभी के चेहरे पर चैटिंग के दौरान रिप्लाई करने वाली गंभीरता दिख रही थी।

कमरे के एक कोने में एक टेबल और टूट चुकी फिर भी यूज़ की जा रही एक चेयर रखी है। दूसरे कोने में रवि के दो बैग हैं। तीसरा और चौथा कोना खाली है। ये खाली कोने खुद को आज़ाद देश घोषित करते रहते हैं। महीने में एक-दो बार इंजीनियर्स का मूड़ बनता है, तो ये ‘आज़ाद मुल्क’ शराब की खाली बोतलों द्वारा कब्जा लिए जाते हैं। शराब हमेशा से साम्राज्यवादियों की फेवरिट रही है। हैंगर पर लटकी गंदी-सी जींस बिना बोले ही कह रही हो कि कुमार विश्वास की ‘कोई दिवाना कहता है’ बाद में सुनना पहले मुझे धुल दो। गंदी जींस में कोई कुमुदनी नहीं मिलेगी मचलने के लिए। कमरे में ‘ऊषा’ का फैन पूरी तरफ स्वस्थ है। फैन कमरे से सिगरेट के धुंए को बाहर निकालने में सक्षम साबित हो रहा था। लगभग सुंदर-सी दिखने वाली लड़की दरवाज़ा खोलकर अचानक से रूम के अंदर झांकने लगी।

 इस सीन को देखकर, कमरे के अंदर पहले से मौजूद तीन इंजीनियर और एक भावी पत्रकार टॉवल ढूंढने के लिए अपनी-अपनी नज़रों से कमरे को स्कैन करने लगे थे। वो बाई थी, लेकिन आंटी नहीं। सिचुएशन की गंभीरता को समझते हुए उसने दरवाजा बंद कर दिया। बाहर से ही ‘आटा ले आना’ बोल के वो चली गई।
“सुनो, फेसबुक पर नहीं व्हाट्स-एप्प पर बात करते हैं।”
“नहीं, फेसबुक पर ही करते हैं।”
“ओके, एज़ यू विश।”
क्लासेस के बाद रोज दोनों की घंटों फेसबुक, व्हाट्स-एप्प पर बातें होतीं थीं। फर्स्ट सेमेस्टर का रिजल्ट आ चुका था। तान्या के नंबर कम आए। रवि ने टॉप किया। टॉप करने का रवि का ये पहला अनुभव था। स्कूल मैं कई बार थर्ड रहा था, सैकेंड भी पर कभी फर्स्ट नहीं। आज फर्स्ट था, तो आईएमएस के रूम नंबर 201 में सैंट्रलाइज्ड एसी में बैठकर टॉपर होने की फ़ील ले रहा था। तब तक तान्या का मैसेज आ गया।
“मार्क्स तो कम आए यार।” साथ ही तान्या ने रोने वाली इमोजी भी भेजी थी।
“पढ़ाई करोगी नहीं, तो यही होगा। ये रोती हुई इमोजियां मेरे पास मत भेजा करो।” रवि ने झुंझलाहट के साथ रिप्लाई किया।
“ठीक है। अब मैं तुमसे बात नहीं कर पाऊंगी। अब मुझे सिर्फ पढ़ना है। बाय।”
इतना बोल कर तान्या ऑफलाइन हो गई। कुछ ही देर बाद उसके व्हाट्स-एप्प और फेसबुक अकांउट गायब थे। कुछ दिनों तक तान्या खुद को वर्चुअल-स्पेस से दूर करने की असफल कोशिश करती रही।

वक्त के साथ दोनों परिपक्व हो रहे थे। सेकेंड सेमेस्टर, थर्ड सेमेस्टर, फिर फोर्थ सेमेस्टर निकल गया। सेकेंड सेमेस्टर में अच्छे मार्क्स के बाद ही तान्या व्हाट्स-एप्प पर वापिस आ गई थी। डिस्टेंस रिलेशनशिप के लिए इस दौर में व्हाट्स-एप्प और फेसबुक उतने ही जरूरी हैं, जितने डेमोक्रेसी के लिए फ्रीडम ऑफ स्पीच। “सुनो, मैं दिल्ली आ रही हूं।” रात के 11 बजे तान्या ने मैसेज किया।
“क्यों…?” रवि का मैसेज ही जैसे कह रहा हो कि मत आओ।
“गेट का एग्ज़ाम देने, मिलोगे?” तान्या जानती थी, रवि मिलने की बात नहीं कहेगा इसलिए उसने खुद ही कह दी।
“क्या मिलना। इश्क़ में मिलकर क्या फायदा ?” रवि ने ना चाहते हुए भी ये रिप्लाई कर दिया।
“तुम इश्क़ में बनियागिरी क्यों करते हो यार ? मिल लोगे तो क्या हो जाएगा ?”
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Monday 24 July 2017


'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के' फिल्म दंगल में अमीर खान के मुह से यह पंक्तियां सुने हमें अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। खेल कुश्ती भी है और क्रिकेट भी लेकिन बात यह है जब यह खेल लड़के खेलें तो ठीक है लडकियां इस खेल से दूर ही रहती हैं, लेकिन मिताली और उनके टीम भले ही महिला क्रिकेट विश्व पक हार गई हो वह दुनिया के सामने एक खुले मैंदान की जाबांज खिलाड़ी है। वह सब जानती है कि हार-जीत के बीच जो कॉमन चीज है खूल को पसीने में बदल देने की तरलता। वह लोग जानती है कि दोनों टीमों के खिलाडियों ने न जाने कितनी हजारों जाते कुंहासे से भरी सुबह इसके लिए झोंक दिया है।मिताली और उनके टीम ने मेहनत के बल पर जो खूबसूरत कहानी का निर्माण किया है।

उस पर 125 करोड़ देशवासियों को गर्व है। तुमने अपने बल पर ही आज अपना तुलना सचिन, कोहली, धोनी से करने पर विवश किया है। आज तुम्हें सम्मान दे रहे हैं कल अवश्य ही वो तुम्हें भूल जाएंगे। मिताली तुमलोगों अपनी मेहनत के बल पर एक बहुत खूबसूरत कहानी का निर्माण किया है। उसे सहेजना हमलोंगो कि जिम्मेदारी है। तुम आज वहां विदेश में तिरंगे का मान बढ़ा रही हो, मगर हमारे समाज की सच्चाई यही है कि भले ही वो तुमको देखकर क्षण भर के लिए खुश हो ले, मगर वो यही चाहता है कि उसके आस पास की औरतें वो करें, जो वो बरसों से करती चली आ रही है। विश्वास करना मेरा, एक महिला को गुलामी की जंजीरों में जकड़ने वाला ये समाज कभी नहीं चाहेगा कि बगावत करके उनके घर की लड़कियां, बहू, बेटियां तुम्हारे बताए हुए रास्ते पर चलने का प्रयास करें।

Tuesday 18 July 2017

Posted by Gautam singh Posted on 00:00 | No comments

आनंद मरा नहीं करते!

बाबू मोशाय! जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं।

"अरे ओ बाबू मोशाय! हम तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर उस ऊपर वाले के हाथों में हैं, कब, कौन, कहां उठेगा ये कोई नहीं जनता।"

आनंद मरा नहीं, आनंद कभी मरते नहीं। ये संवाद दरअसल दर्शन है जीवन का। एवरग्रीन एक्टर 'राजेश खन्ना' यानी काका उनका जीवन रंगमंच जैसा ही तो रहा। सितारों की ज़िन्दगी में जब तक तालियों की गढ़गढ़ाहट शामिल होती है तब तक उन्हें कुछ नहीं सूझता, लेकिन जब ये तालियों का शोर धीमा पड़ने लगता है तो मानो उनके जीवन के रंग भी फीके पड़ जाते हैं। उनका यह डॉयलोक उनके उस दर्द को दर्शाते है। "इज्जते, शोहरते, उल्फते, चाहते सबकुछ इस दुनिया में रहता नहीं आज मैं हूं जहां कल कोई औऱ था। ये भी एक दौर है वह भा एक दौर था।" जब तक स्टेज सजा था तब तक लोगों की भीड़ भी लगी हुई थी, जैसे ही मज़मा ख़त्म हुआ, काका अकेले रह गए। काका ही सिर्फ ऐसे अदाकार थे जिन्हें 'सुपरस्टार' का ख़िताब मिला।

काका अपने मासूम और सुंदर अभिनय में प्रेम रचते। उस दौर में राजेश खन्ना ने जो लोकप्रियता हासिल की, आज के जमाने में उसके आसपास भी कोई नहीं पहुंच सकता। तब के युवा खासतौर पर उनके जैसे कपड़े बनवाया करते उनके जैसे बाल रखते, उनके ऊपर फिल्माये गानों को गुनगुनाते। लड़कियों में उनको लेकर ऐसी दीवानगी थी कि उनकी एक झलक पाने लिए घंटों इंतजार करतीं। उस दौर में लड़कियां उन्हें खून से खत लिखा करती और उनकी फोटो से शादी तक कर लिया करती। काका की सफेद रंग की कार जहां रुकती थी, लड़कियां उस कार को ही चूमा करती। लिपिस्टिक के निशान से सफेद रंग की कार गुलाबी हो जाया करती थी। आज काका हमारे बीच नहीं है, उनके 'फैन्स' उनसे जुदा नहीं हो सकते! उनके फैन्स उनके ही रहेंगे यही तो काका ने पंखे वाले विज्ञापन में कहा था। काका भले ही ना हो लेकिन फ़िल्मों में निभाए गए अपने किरदारों से वह हमेशा अपने चाहने वालों के बीच बने रहेंगे। वैसे भी ‘आनंद’ मरा नहीं करते! वह तो उदासी में जीवन को अर्थ देते हैं।

Sunday 14 May 2017

'मदर्स डे' यानी एक खास दिन मां के नाम यू तो हर दिन मां का होता है। इसे हम किसी एक दिन में समेटकर नहीं रख सकते, लेकिन फिर भी अगर ऐसा एक दिन मिलता है तो इसे क्यों न मनाया जाए? आज मदर्स डे है। संडे भी है और कुछ दोस्त भी साथ है तो हम लोगों ने सोचा आज क्यों न मां के लिए एक खत लिखा जाए? वैसे अब खत तो लिखा नहीं जाता पर हम लोग खत लिख रहें संडे वाली खत। अपने मां के नाम, मां के बिना हम जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।

यह रिश्ता बिल्कुल खास है। इसमें एक ऐसा अहसास, अपनापन और मिठास है, जो इसे औरों से अलग करता है। क्योंकि दूनिया की सारी मां एक सी होती हैं। प्यार करने वाली दुलार करने वाली छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखने वाली मां। हर छोटी-छोटी गलती पर पापा से मार से बचाने वाली। बीमार पड़ने पर सारी रात खुद जगकर हमें अपनी आंचल तले सुलाने वाली।

डीयर मम्मी 

कुछ दिन पहले आपकी चिट्टी मिली। मैंने आपकी चिट्टी को कई बार पढ़ा, लेकिन मैं उसे जितना बार पढ़ता हूं उतना ही गहरे ख्यालात में उतर जाता हूं। ख्यालात बचपन के, ख्य़ाल आपके प्यार के, आपके दुलार के, आपके आंचल में छिपकर सपने सजाने वाली अहसार के, जमीर को सुकून देने वाली आपकी उस स्पर्श के, चिलचिलाती धूप में आपके हाथों की ठंडक के, आपको छूकर आती शीतल हवा के, कड़कती धूप में चैन के।

आपके हाथों से खाने का निवाला खाना, आपकी ममता भरी डांट के बाद ढेर सारा दुलार... रात की गहराई में आपकी ममता की रोशनी...दर्द में भी चांद की चांदनी सी आपकी मुस्कुराहट और भी बहुत कुछ याद आ जाती है मां। आपने जैसे कई बातें पहली बार खत में मुझे बताई, ऐसी ही एक बात मैं आपको बताना चाहता हूं। छोटेसा जब मैं आप लोगों से दूर हॉस्टल में रहता था। जब आप मुझसे मिलने आया करती थी, या मुझे घर से हॉस्टल छोड़ने जाती, जब आप छोड़ कर वापस आती थी। तो उस दिन मुझे रोना आता था। क्यूं आता था इसका कोई जवाब नहीं है। न मुझे तब समझ आया था न अब समझ में आ रहा है जब मैं ये खत आपको लिख रहा हूं।


जब मैं घर से हॉस्टल के लिए जा रहा था तब मैं जितना घर, मोहल्ला, खेल के मैदान, दीदी, भाई के लिए रोया था उतना ही आपके लिए भी रोया था। मुझे याद है, जब आपका फोन आता है तो सबसे पहले यही पुछती हो कि तुम ठीक हो, यहां सब ठीक है। तबीयत तो ठीक है न कोई दिक्कत तो नहीं कुल इतनी सी बातचीत से लगता है कि दुनिया में सब ठीक है और मैं आराम से सो सकता हूं। जब मैं परेशान होता हूं तो आपका बस इतना कहना कि सब अच्छे के लिए होता है। यह बात सूनकर ही मैं सारी परेशानियों को भूल जाता हूं।

आपको एक बात बताउं मैं जब भी घर से आता हूं तो आप हिदायत देती है नहाकर पूजा कर लेना फिर कुछ और करना। शुरू में तो बुरा लगता था, लेकिन अब भी मैं पूजा-वूजा नहीं करता पर हां नहा जरूर लेता हूं कुछ भी करने से पहले आपको पता है जब भी मैं छुट्टी पर घर आता हूं तो मैं नहाता भी नहीं, लगता है कि आपको घऱ पर रहते हुए नहाने की क्या जरूरत है। इस बार जब घर आऊंगा तो तबीयत से लगाइयेगा दो-चार थप्पड़ क्योंकि मैं आपकी बातों नहीं मानता अगर आपके मार से रोना आ जाए तो चुप मत करना बस थोड़ी देर तक चैन से रो लेने देना बहुत दिन के आंसू हैं बहुत देर तक निकले शायद।

Tuesday 9 May 2017

महाराणा प्रताप मेवाड़ के महान हिंदू शासक थे। सोलहवीं शताब्दी के राजपूत शासकों में महाराणा प्रताप ऐसे शासक थे, जो अकबर को लगातार टक्कर देते रहे। अकबर और महाराणा प्रताप में किसे महान कहना चाहिए। यह सवाल लोगों को सैकड़ो सालों से परेशान करते रहा है। बुद्धि जीवियों और इतिहासकारों में इस सवाल को लेकर अलग-अलग राय है। दोनों अपनी जगह महान थे। दोनों से हम आज बहुत कुछ सीख सकते हैं, बशर्ते हमें मालूम हो कि हुआ क्या था।

कहा जाता है कि राजस्थान के मध्यकालीन इतिहास का सबसे चर्चित हल्दीघाटी युद्ध मुगल शासक अकबर ने नहीं बल्कि महाराणा प्रताप ने जीता था। हल्दीघाटी का युद्ध मुगल बादशाह अकबर और महाराणा प्रताप के बीच 18 जून, 1576 ई. को लड़ा गया था। अकबर और राणा के बीच यह युद्ध महाभारत युद्ध की तरह विनाशकारी सिद्ध हुआ था। साल 1576 में हुए इस भीषण युद्ध में अकबर को नाको चने चबाने पड़े और आखिर जीत महाराणा प्रताप की हुई। यह दावा राजस्थान सरकार की ओर से किया गया है।

महाराणा प्रताप सिंह (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत 1597 तदानुसार- 9 मई, 1540 ई. से 29 जनवरी, 1597 ई तक) उदयपुर, मेवाड में शिशोदिया राजवंश के राजा थे। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उनका जन्म राजस्थान के कुम्भलगढ़ में महाराणा उदयसिंह एवं माता राणी जीवत कंवर के घर हुआ था।


कहा जाता है कि अकबर हमलावर था। मेवाड़ पर हमला करके उस पर अधिकार जमाना चाह रहा था। राणा प्रताप मेवाड़ के लोकप्रिय शासक थे। यह उन दिनों की बात है जब अकबर भारत पर अपना शासन फैलाने में लगा हुआ था। वह अपने बाप-दादा के समय की परंपरा को तोड़कर अपने आप को बादशाह घोषित कर दिया था। जहां बाबार और हुमायूं सुल्तान थे, तो वहीं अकबर बादशाह था। बादशाह यानि सर्वोपरि एक ऐसा राजा जो किसी खलीफा के अधिन नहीं।

अकबर पश्चिम एशिया से अपना संबंध खत्म कर भारत में अपनी जड़े जमा ली थी और वह पूरे भारत पर साशन करना चाहता था पर मेवाड़ के राणा, प्रताप सिंह को अकबर की अधीनता स्वीकार न थी। प्रताप के पहले भी कभी मेवाड़ के किसी शासक ने किसी का आधिपत्य नहीं माना था को महाराणा कैसे मान लेते।

पर अकबर की निगाहें मेवाड़ पर था। अकबर ने कई बार दूत भेजकर मेवाड़ को अपने खेमे में मिलाने की कोशिश की। लेकिन महाराणा को ऐसी दोस्ती जरा भी पसंद नहीं था जिसमें अकबर को बादशाह मानना पड़े, यह प्रताप को नागवार था। सो हर बार मुग़ल दूत अपना सा मुंह लेकर वापस लौटा। अंतत: अकबर ने आमेर के राजा मानसिंह के नेतृत्व में फ़ौज भेजकर मेवाड़ पर कब्ज़ा करने की ठानी। 1576 के हल्दीघाटी युद्ध में 20,000 राजपूतों को साथ लेकर राणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के 80,000 की सेना का सामना किया।

हमारे इतिहास में जितनी महाराणा प्रताप की बहादुरी की चर्चे होते है, उतनी ही प्रशंसा उनके घोड़े चेतक को भी मिली। कहा जाता है कि चेतक कई फीट उंचे हाथी के मस्तक तक उछल सकता था। हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक, अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक की ऊंचाई तक बाज की तरह उछल गया था। फिर महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। जब मुग़ल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26 फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुग़ल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका। प्रताप के साथ युद्ध में घायल चेतक को वीरगति मिली थी।

कहा जाता है कि अगर आप भारत को एक सूत्र में बांधने के काम को महान मानते हैं तो अकबर ने इसके लिए काफ़ी कोशिश की। अगर आप वीरता से आक्रमणकारी को पीछे धकेलने को महान काम मानते हैं तो प्रताप का कोई सानी न था।

Monday 1 May 2017

Posted by Gautam singh Posted on 04:40 | No comments

अरे हम शर्मिंदा है



कश्मिर के पुलवामा के सरकारी डिग्री कॉलेज में आईएसआईएस का झंडा फहराया गया और हमारी सरकार चुपचाप देखती रही। हम क्यों नहीं पाकिस्तान से सिखे आतंकी देश है वह लेकिन फिर भी वहां के लोग वही का जयकारा लगाते है भले ही वह बॉलीवुड से कमाते हो लेकिन गुण पाकिस्तान का ही गाते है अरे बेशर्मो अगर पाकिस्तान से कुछ सिखना है तो यह सिखों की वह अपने देश के प्रति कितना इमानदार है। एक गद्दार वतन के लोग अपने वतन के लिए। यह विडंबना है अपने देश का स्कॉलरशिप भारत का चाहिए, आरक्षण भारत का चाहिए रोटी भारत का चाहिए लेकिन झंडा पाकिस्तान और आईएसआईएस का लहरायेंगे। बाकी जो थोड़ा बहुत कमी रह जाता है तो वह पूरा कर देते है हमारे यहां के धर्म गुरु अगर भगवान ने धर्म दिया है तो अक्ल भी दी है खुद पढ़ों किसी धर्म गुरु के पास जाने की जरूरत नहीं है। वह कोई भगवान नहीं वह भी हमारे तरह इंसान ही है। हमसे और आपसे ज्यादा विवेकशिल नहीं है। वहां हमारे सैनिक सहीद हो जाते है और हमारे देश के गृहमंत्रि कह देते है हम कड़े शब्दों में निंदा करते है।

अरे अगर निंदा ही करना है तो फिर मनमोहन सिंह में क्या बूराई था। अरे हम शर्मिंदा है की आप हमारे गृहमंत्री है कोई हमारे घर में घुसकर हमारे सैनिको को मार कर चला जाता है और आप बस इतना कहते है कि हम कड़े शब्दों में निंदा करते है। आपलोग कुछ करेंगे भी नहीं, क्योंकि आपलोगों की तो रोटियां इसी से चलती है। कभी कांग्रेस, कभी बीजेपी कभी आप सभी बारी-बारी से अपनी रोटियां सेकते रहिये। हमारे प्रधानसेवक कहते है हम प्राउड फिल करते है अपने सैनिको पर तो प्राउड का क्या हम पुंगी बजाए। वक्त बदल रहा है प्रधानसेवक महोदय यह बड़ी-बड़ी बाते करने से कुछ नहीं होगा अब करके दिखाइये। अब अगर नहीं किया ना प्रधानसेवक महोदय तो आपको भी लोग उतार फेकेंगे।

आज के युवा पढ़ा लिखा है वह अब फ्री पानी और रोटी के नाम पर खुस नहीं होने वाले है। सब बदल कर रख देगा आपका। चाहे वह कोई भी पार्टी हो क्या फर्क पड़ता है वह कांग्रेस है या बीजेपी है। कांग्रेस के लोग बीजेपी में चले जाते है तो वह शुद्ध हो जाते है क्या बीजेपी में गंगा जल रखा हुआ जो कांग्रेस छोड़ते ही वह शुद्ध हो जाते है। लोग तो वही है चेहरे तो वही है बस पार्टी बदल जाती है। कहां से विकास होगा इस देश का करोड़ों के थाली में जिसको रुपये जाहिए कहां से विकास होगा देश का। वैसे भी आपसे किसीने ने विकास की उम्मीद की भी नहीं थी बस आप सत्ता में इसलिए आये की लोग आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के साथ-साथ भष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में मजबूती चाहते थे। यह तो तय है की पांच साल में विकसित करने के लिए आपको कम से कम ब्रह्मा होना पड़ेगा। वो आपसे बस का है नहीं।

Monday 10 April 2017

यादें रोई, सपने रोये, या दिल रोया पता नही!! कल रात सिसकीयां सुनाई दे रही थी सीने में, धडकन की तरह....अब सोचता हूं यादों पर भी कोई शरहद होती तो कितना अच्छा होता कम से कम खबर तो होती कि सफ़र कितना तय करना है। तुम जानते हो सारा दिन गुजर रहा था खुद को समेटने में....फिर तेरी यादों की हवा चली और हर दिन के तरह हम फिर से बिखर गये.... जब भी मैं इस शहर से निकलना चाहता हूं कोई न कोई रास्ता लौटा लाता है। मैं तुम्हें हर लैंप पोस्ट पर खड़ा पाता हूं। हर बस से लेकर मेट्रो की सीट पर तुम्हीं बैठे लगती हो। तुम जानती हो वक्त मेरी तबाही पर हंसता है। अब मैं वक़्त की दहलीज़ पे ठहरा हुआ पल सा हो गया हूं। लोग कहते है वक़्त और हालात दोनो ही बदल जाते हैं मंज़िलें रह जाती हैं, और लोग बिछड़ जाते हैं....बड़ा ही मिठा नशा है तेरी यादों का.... वक़्त गुजरता जा रहा है और हम आदी होते जा रहे है।


कभी चांद को देखा है तुमने? कभी चांद को पूजा है? चांद अपने चाहने वालों को कितना परेशान करता है... कितना सताता है... ठीक तुम भी वैसे ही हो गई हो। जब चकोर चांद को हसरत भरी नज़रों से देखता है, तो चांद बादलों के पीछे छुप जाता है। जब चांद को देखकर व्रत खोलना होता है... तो चांद देर से निकलता है। जब चांद को देखकर ईद मनानी होती है... तो चांद जानबूझ कर इतराता है। चांद को पाना किसी के बस की बात नहीं.. फिर भी चांद को चाहने वालों की चाहत कम नहीं होती.... तुम भी उसी चांद की तरह हो.. और मैं उसी चांद को पूजता हूं... लाख चाह कर भी मैं उस चांद को छू नहीं सकता... बस चांद की चांदनी को देख सकता हूं... महसूस कर सकता हूं, पर अपना नहीं बना सकता... क्योंकि सुबह होते ही यह चांद मेरा साथ छोड़ देता है तुम्हारे तरह। तुम नदी के पानी में चांद की परछाई सी हो जिसे मैं देख तो सकता हूं, पर छू नहीं सकता। अगर मैं पानी में चांद को छूने भी गया तो चांद की जो अक्स अभी दिख रहा है... वह भी नहीं दिखेगा... लहरो के साथ वह भी घूल जाएगा और मेरे डूबने के आसार बढ़ जाएंगे। इसलिए मैं चांद को सपने में भी छूने की कोशिश नहीं करता।


तुम जानती हो उस चांद को बस तकना ही मेरी फितरत हो गई है। कोई रास्ता भी नहीं है, दुआओं के अलावे और कोई सुनता भी तो नहीं यहां... खुदा के सिवा... अब मुझे उल्फत की जंजीरों से डर लगता हैं, जो जुदा करते हैं, किसी को किसी से, उस हाथ की लकीरों से भी डर लगने लगा है। कभी-कभी जी चाहता है कि हाथ के सारे लकीरों को मैं मिटा दूं पर नहीं मिटाता मैं सोचता हूं कि इसी लकीरों के बीच कही वह लकीर भी छुपी हो जिसमें लिखा हो तुम वापस लौट आओंगी...पर मैं यह जानता हूं कि यह मात्र एक भ्रम भर है पर मैं इस भ्रम में जीना चाहता हूं जो कम से कम मुझे झुठा दिलासा तो दिलाता है तुम्हारे वापस आने का.... जिससे मैं बेवफाई की तपिश से बच कर इश्क की घटाओं में बैठ तो जाता हूं, मैं जब भी उदासी से घबराने लगता हूं तेरे ख़याल की छांव में बैठ जाता हूं। मैं तुम्हारे लिए अजनबी हो सकता हूं। मैं तुम्हारे लिए अब खुशियों से ज्यादा गम की परछाई हो सकता हूं। मुझे नहीं पता बुरा मैं हो गया हूं या बुरा वक्त हो गया है।


तुम जानती हो अब हर आहट पर तेरी ही तलाश रहती है मुझे... मुस्कान तो आती है होटो पर तुम्हें याद करते वक्त...लब तक थरथरा जाते हैं। तुम्हारे जाने के बाद छोड़ दिया है मैंने अपने दिल का साथ और थाम लिया है तन्हाई का हाथ तुम ही बताओं इस तन्हाई से हाथ न मिलाता तो क्या करता। कोई मिलता भी तो नहीं हमसे यहां हमारा बनकर.... मैं तुम्हारी यादों को किसी कोने में छुपा नहीं सकता, तुम्हारे चेहरे की चहक चाहकर भी भुला नहीं पाता हूं। नसीब की खेल भी कितना अजीब होता है न, जो नहीं होता है नसीब में लोग उसी को टूट कर चाहते है। अब तूम जो नहीं हो तो बिन तेरे शामें उदास रहती है मेरे, ढूंढें तुझे कहां-कहां आंखें....तुम जानती हो अब बस इक चांद ही नहीं है जो पूछे तेरा पता, जी चाहता है तुम्हारी हर यादों को सिमेट लू जो भी मिलता है उसे किनारा बनकर इन आखों में छिपा लू हर ख्वाब टूट के बिखरा कांच की तरह, बस एक इंतज़ार है तुम्हारा साथ सहारा बनकर चलने का......

Saturday 1 April 2017


प्रिय तान्या

पुरे आठ साल ग़ुज़र गई है तुम्हारी ख़ामोशी पढ़ते हुए। ख़ामोशी में चाहे जितना बेगाना-पन हो, लेकिन एक आहट जानी-पहचानी सी लगती है तान्या। तुम जानती हो सच्चाई तो बस खामोशी में है। शब्द तो मैं लोगों के अनुसार बदल लेता हूं। जुबां न भी बोले तो मुश्किल नहीं होता है प्रिय, लेकिन फिक्र तब होती है जब, खामोशी भी बोलना छोड़ दे। इश्क के चर्चे भले ही सारी दुनिया में होते होंगे पर दिल तो खामोशी से ही टूटते है न। तुमने कभी महसूस किया है खामोशी कितना कुछ कहती है। कान लगाकर नहीं कभी दिल लगा कर सुनों यह कितना शोर मचाती है। ये हाथ की लकीरें भी कितनी अजीब होती हैं न। होते तो हैं हाथ के अंदर पर काबू से बाहर। एक तेरी खामोशी ही जला देती है इस पागल दिल को… बाकी सब बाते अच्छी है तेरी तस्वीर में… मुझे कभी-कभी लगता है हमारी मोहब्बत जरूर अधूरी रह गयी होगी पिछले जन्म मे, वरना इस जन्म की तेरी ख़ामोशी मुझे इतना बेचैन न करती....

तुम जानती हो तान्या तुम्हारी खामोशी की भी एक जुबान है। ये खामोशी जिस से पल भर में सन्नाटा हो जाता है उसी ख़ामोशी का शोर कई बार अकेले में तड़पाने लगता है। यह खामोशी अब बर्दाश्त के बाहर होने लगी है प्रिय। कभी सावन के शोर ने मदहोश किया था मौसम, अब ऐसा लगता है पतझड़ में हर दरख़्त खामोश खड़ा है। तुम जानती हो तुमने जो वह सुफेद कलर का पैंट और ब्लू शर्ट दिया था न उपहार में... उसको मैंने अभी तक रखा है संभाल कर... जिस दिन तुम गई थी न उस दिन ही मैंने उस पैंट और शर्ट को रख दिया था। अटैची में प्लास्टिक के कवर में डाल कर उस वक्त उस पैंट पर कोई दाग नहीं था प्रिय। पर आज जब उस अटैची को खोला तो देखा उस पैंट पर दाग उभर गए है। यह पैंट और शर्ट ही तो था इकलौता गवाह हमारे मोहब्बत का... पर अब वह भी दगा दे गया है तुम्हारी तरह....शायद दगा इसलिए दे गया कि वह तुम्हारा ही दिया था अब जब तुम नहीं हो मेरे साथ तो वह कैसे रह पाता।

 जैसे तुम चली गई बिना कुछ बोले वैसे ही पैंट भी चला गया बिना कुछ कहें खामोशी से... मैंने रोकना भी चाहा था तुमको पर तुम नहीं रुकी... शायद जाना तुम्हारा शौक था...वो शौक तुम पूरा कर गई मेरी हसरते तोड़ कर...अब हर जज़्बात को कोरे कागज पर उतार देता हूं इसलिए की वह खामोश भी रहता है और किसी से कुछ कहता भी नहीं। तुम जानती हो तान्या मोहब्बत के जिस राहों में कभी दिल शोर मचाया करता था, आज वह गलियों से खामोश निकला करता है। यह जरूरी भी नहीं हर बात लफ्जों की गुलाम हो खामोशी भी तो खुद की जुबान होती है न शायद वो जुबां जिसे हम समझते हैं। तुम जानती हो प्रिय यह खामोशी ही मेरी कमजोरी बन गई है। जिस खामोशी से मुझे लगाव था आज वह शोर मचा रही है। कानो के पर्दे फाड़ देने वाले....तुम्हें कह न पाए कभी दिल के जज़्बात और इस तरह से तुम से दूरी बन गयी प्रिय।

तुम जानती हो तन्या मैं लिखता इसलिए हूं कि शब्द चाहे जितने हो मेरे पास, जो तुम तक न पहुंचे, तो सब व्यर्थ हैं...! प्रिय मैं हर शब्द तुम तक पहुचाना चाहता हूं तुम्हारे कानों को खामोशी से बनी नज्म सुनाना चाहता हूं। शायद इसलिए लिखता हूं और अब इसे ऐसे ही रहने दो प्रिय जो समंदर जैसे खामोश हैं और उसे खामोश ही रहने दो.. अगर ज़रा भी मचल गया तो सारा शहर ले डूबेगा। तुम जानती हो मैं सोचता हूं काश कुछ लम्हों को हम अपनी गिरफ्त में रख पाते, तो आज अपने सर पे तेरे हाथ की न कमी पाते। जिन्दगी की रहगुजर में कोई कमी सी रह गई, मिले तो थे कई सौगातें बस तेरी कमी रह गई। वो ख़्वाब जो दिन रात हम खुली आंखों से देखा करते थे, उन ख़्वाब को बस, शब भर जीने की तम्मना रह गई। तुम जानती हो न तान्या अश्कों के बह जाने की रवायत का मैं कायल नहीं था, फिर न जाने पलकों पे क्यों यह नमी सी आ जाती है। तुम तो चली गई हो पर गुफ्तगूं की तरह मेरी खामोशियां भी बोलती हैं। हर लफ्ज़ गुफ्तगू करता है.. हर लफ्ज़ तुम्हारा ही तो है। बार-बार टूटता है। हज़ार बार टूटता है और टूट कर तुम्हारी कल्पनाओं में खो जाता है। अब ना खुशियों की रौनक ना गमों का कोई शोर आहिस्ता-आहिस्ता ही सही जो तेरी यादों में कट जायेगा ये सफ़र....

तुम्हारा
 मैं...

Tuesday 21 March 2017

प्रिय तम्मना

तुम जा चुकी हो मेरी जिंदगी से संदली जिस्म लेकर लेकिन मैं एक आरजू दिल में छुपाये फिर रहा हूं। कभी कह नहीं पाया तुमको इसलिए की तुम कहीं नाराज न हो जाओं मेरी गुस्ताखी से...पर अब जब तुम नहीं हो खोया रहता हूं तुम्हारे ख्यालो में... जमाने का कोई होश भी नहीं है मुझे... तेरी यादों के जज्बात इस कदर छलक रहें है मेरी आंखो में की बिना देखे तेरी तस्वीर बार-बार बना रहा हूं। धड़कन तो मेरी खामोश है... पर नजरें तुम्हें तलाश रही है। ठीक वैसे ही जैसे चांद नूर की तलाश में भटकता है। मैं भी भटक रहा हूं और भटकते-भटकते बुझ गया हूं। वह गर्दिश का सितारा जलके... जो कभी सबको रोशन किया करता था... अब वह सितारा वहां बेइंतहा दर्द से तड़प रहा है। हमारी खामोशी, हमारी आहट, हमारी आंखें, हमारी चाहत सब स्थिर हो गया है तम्मना। शांत, ठंड़ा, अकड़ा हुआ एक लाश की भांती.....

लेकिन मैं जिंदा हूं....मैं जिंदा क्यों हूं? मुझे तो मर जाना चाहिए...पर मैं मर नहीं सकता....मैं मर इसलिए नहीं सकता की तेरे ख्वाब जो सलामत है मेरे लहू के हर कतरे में...रात दिन उसे सहेज कर रखा हुआ हूं....अब किसी राह की ख्वाहिश नहीं है दिल में... हमने जब देखे थे एक रहगुज़र, साथ चलने की जो अब अलग हो गए है। जिस्म से होने वाली मोहब्बत आसान है... पर जिसे रूह से मोहब्बत हो जाए उसे अलग कैसे किया जा सकता है प्रिय। वह गुजर रही है बस तेरे वापस आने की आस में... मैं जानता हूं की तुम नहीं आओंगी पर मन कहां किसी की सुनता है यह तो चंचल है हर पल तुझसे मिलने की प्यास लिये फिरता है। सब कुछ है यहां बस तुम नहीं हो तम्मना। तुम कहीं भी रहो पर तेरे सर पर एक इल्जाम तो हमेशा रहेंगा... तेरे होंठों की लकीरों पे मेरा नाम तो हमेशा रहेंगा... तुम मुझको अपना बना या न बना लेकिन तेरे हर एक धड़कन में मेरा नाम तो हमेशा रहेगा।

वो ख्वाब जो कभी हम पाला करते थे अपने आंखों में... पानी से तस्वीर बना कर, अब कहीं भटक रहें है। तुम अक्सर कहती थी न तम्मना इश्क है वही, जो एक तरफा हो, इजहार-ए-इश्क तो ख्वाहिश बन जाती है, है अगर इश्क तो आंखों में दिखाओ, जुबां खोलने पर ये नुमाइश बन जाती है। मैं जुबान नहीं खोलता क्योंकि मैं अपने इश्क का नुमाइस नहीं करना चाहता। क्योंकि मैं जानता हूं इश्क तो महसूस और महफूज करने की चीज है नुमाइस की नहीं.... तुम जानती हो कितनी बाते याद आती है तुम्हारी.... और फिर वह तस्वीरें सी बन जाती हैं... अब उन यादों को धागे से सीने की कोशिश करते रहता हूं तम्मना। मैं उन लम्हो को फिर से जीने की कोशिश करते रहता हूं.... जो ओस से भी हलकी थी.... वह अश्कों की बूंदें, जो तुम उस दिन जाते वक्त गिराते गई थी...अब वह अश्क बार-बार मुझे बेचैन कर रही है... तुम्हारा इश्क दिखावा नहीं था प्रिय... तुम्हारा प्रेम तो उतना ही पवित्र था... शायद है... जितना पवित्र आत्मा।

तुम नहीं हो और तुम्हारे बिना जिंदगी भी नहीं है... जिंदगी, मैं फिर भी हर दिन जीने की कोशिश करता हूं। एक भ्रम, मैं रोज पैदा करता हूं तुम कहीं नहीं गई हो ...तुम यहीं हो मेरे पास मेरे हर एक सांसों में मेरे हर एक धड़कन में...मेरे लहु के हर के कतरे में...कुछ भी तो नहीं हुआ है....हमदोनों के बीच सब सही तो है...पर अचानक मेरे आंखों के कोरों से आंसू छलक आते है...क्योंकि मैं अपने जिस्म से तो झूट बोल लेता हूं तम्मना... पर अपने रूह से झुट नहीं बोल पाता....वह भ्रम जो मैं खुद बूनता हू्ं तुम्हें भूलाने के लिए वह टूठ जाता है। अधूरे ख्वाबों की दहलीज़ पर खड़ा, आज भी तेरी राह तकता है, अब कोई नहीं, कहीं नहीं, दिल के पास, मेरा वजूद एक सवाल बन गया अब तो, मेरे ही 'आप' अब मेरे आसपास नहीं.....तुम जानती हो... जब भी मुझे याद उस लम्हें की आती है। मोहब्बत कसक बनके उभर आती है। मेरे आंखों से आंसू की शीतल धारा छलक पड़ती है।

अब मन करता है खामोशी की सब दीवार तोड़ दू, तुम्हें जाकर सबकुछ बोल दू.... कुछ मैं तुमसे बोलू कुछ तुम हमसे बोलो... दिल से ज़ख्म, ज़ख्म से दर्द का सफ़र बहुत हुआ, आज हम एक दूजे पर मरहम बनकर लग जाय...पर यह भी महज़ एक स्वप्न भर है। मैं किसी तरह के भ्रम में अब जीना नहीं चाहता इस लिए शायद मेरे आंखों से आंसू छलक रहें है। ये याद है तुम्हारी या यादों में तुम हो, ये ख्वाब है तुम्हारे या ख्वाबों में तुम हो, मैं नहीं जानता... तम्मना तुम्हारे शरीर की खुशबू मैं हमेशा महसूस करता हूं। अजीब सी बेकरारी रहती है। दिन भी भारी, रात भी भारी रहता है वह आईना भी मैंने तोड़ दिया इस ख्याल से कि शायद हमारी तकदीर बदल जाए...पर आईने के हर टुकड़े में सिर्फ तुम्हारी ही तस्वीर नजर आती है। तुम जानती हो मुझे अब ऐसा प्रतित होने लगा है कि प्यार कहां किसी का पूरा होता है...प्यार का तो पहला ही अक्षर ही अधूरा है। जब वह पूरा नहीं है तो हम पूरा कैसे हो सकते है....तम्मना सच्चे प्यार में निकले आंसू और बच्चे के आंसू एक समान होते है। क्योंकि दोनों जानते है दर्द क्या है पर किसी को बता नहीं पाते...ठीक वैसे ही हम जानते है दर्द कहां और कैसे है हम कह नहीं पाते.........

तुम्हारा
पारस

Thursday 16 March 2017

अम्मी आज जब तुम्हारा ऑपरेशन हो रहा था ना तो आपा, खाला बार-बार मुझे फोन पर बता रही थी कि जब तुम खुद अपने बजूद को नहीं पहचान पा रही थी तब भी तुम मुरछित अवस्था में भी हमलोगों का नाम लेकर बड़बड़ा रही थी। अम्मी मैं भी आना चाहता था पर नहीं आ सका तुम से दूर रहना भी कुछ ऐसा हैं अम्मी जैसे मेरी सांसे मुझसे दूर हो.... सूरज की रोशनी भी इन नजरों को भाती नहीं है... अक्सर रात में चांद के उजाले में तेरा चेहरा नजर आता है अम्मी.... जिसमें तुम नाराज नजर आती हो..... मैं जातना हूं तुम चाहती थी कि तुम्हारे ऑपरेशन के दरमियां हम सब वहां रहें तुम्हारे पास पर मैं नहीं आया। क्यों नहीं आया इसका कोई पूख्ता जवाब नहीं है मेरे पास...शायद मैं डरता था तुम्हारें असहन दर्द, पीड़ा, तड़प से इसलिए जाने की कुब्बत नहीं जुटा पाया पर आज जब चांद में तुम्हारा चेहरा देखा तो लगा तुम्हारा दर्द, पीड़ा और तड़प सब बड़ गए है। तुम्हारी बैचेन आंखें हमें खोजते-खोजते थक सी गई है। तुम्हारा शरीर नींद के आगोश में जाना चाहता है। पर आंखों में नींद नहीं है वह लाखों चेहरों में हमें तलाश करती है......

तुम जानती हो अम्मी तेरी वो बाते, हमारी वो छोटी-छोटी लड़ाईयां, शाम ढ़लते ही वह सुकून भरे दो पल, रात को परियों की कहानियां सब बहुत याद आ रही है। अम्मी तुम्हारी नाराजगी बेचैनी आंखों में झलक रही है.... वो तुम्हीं थी जिसने मुझे ऊंगली पकड़ कर चलना सिखाया, वो तुम्हीं थी जिसने मुझे हर मुसीबत से बचाया। पर आज जब तुम मुसीबत में थी मैं नहीं था तुम्हारे पास.... तुमने कुछ कहा भी नहीं....अम्मी तुम जानती हो... तुम्हारे आंचल में छिपकर सपने सजाना... ज़मीर को सुकून देने वाला तुम्हारी वो स्पर्श... चिलचिलाती धूप में तुम्हारे हाथों की ठंडक... तुमको छूकर आती हवा, कड़कती धूप में चैन.... बहुत कुछ याद आ रहा है अम्मी। तुम तो तकलीफ में भी मुस्कराती थी और हर गम को खुशी से सह जाती थी.....कभी मैंने तुम्हारें आंखों में आंसू की एक बुंद तक नहीं देखी है अम्मी.... पर उस रात जब मैं छत पर उस चांद को देख रहा था ना... जहां तुम नजर आती हो... मुझे वहां तुम्हारे आंखों में आंसू दिखें अम्मी यह आंसू मुझे बेचैन कर रहे है...तुम रोती भी हो मैंने कभी नहीं देखा था। पर आज तुम रो रही थी....

अम्मी तुम जानती हो तुम्हारे हाथों से खाने का निवाला खाना, तेरी ममता भरी डांट के बाद ढेर सारा दुलार... रात की गहराई में तेरी ममता की रोशनी...दर्द में भी चांद की चांदनी सी तेरी मुस्कुराहट… सब आज कहीं खोया सा लग रहा है। वह बिंदी भी जो तुम माथे पर चांद नूमा सजाए रखती थी वह मुझे कहीं दिखाई नहीं दे रही है। वहां तुम्हारे चेहरे पर सिसकने का दर्द दिखाई दे रहा था अम्मी.... जब मैं न जुबां था ना तब भी तुम मेरी हर खामोशी को पहचान लेती थी पर मैं तुम्हारे इस चुभन को नहीं पहचान पाया। तुम जानती हो आज वह चांद मुझे कोस रहा था अम्मी वह मुझे हिकारत भरी नजरों से देख रहा था... वह मुझे बार-बार याद दिला रहा था कि जब मैं बीमार होता तो तुम रात-रात भर अपने आंचल में छुपाए रखती थी... पर आज जब तुमको हमारी जरूरत थी तो हम वहां नहीं थे...वह चांद आज मुझे बहुत कुछ कहना चाह रहा था पर शायद तुमने उसे बोलने से रोक दिया....वह चाहते हुए भी नहीं बोला बस मुझसे नजरे फेर ली... तुमने आज चांद को क्यों नहीं बोलने दिया उसे बोलने देती अम्मी....


पर तुमने बोलने नहीं दिया शायद... ख़ुदा ने ये सिफ़त दुनिया की हर औरत को बख्शी है, कि वो पागल भी हो जाए तो बेटे याद रहते हैं। जानती हो अम्मी आज मैं तुम्हें एक बात बताऊं... मैं जब भी घर से आता हूं तुम हिदायत देती हो न... नहाकर पूजा कर लेना फिर कुछ और काम करना। शुरू में तो बुरा लगता था लेकिन अब आदत हो गई है। हालांकि अब भी मैं मन्दिर वंदिर नहीं जाता हूं। तुमको पता है जब मैं छुट्टी पर घर आता हूं तो मैं नहा कर पूजा-वूजा नहीं करता... लगता है कि तुम्हारे घर पे रहते हुए पूजा करने की क्या जरूरत तुम तो हो ही ना। इस बार जब घर आऊंगा तो एक दो थप्पड़ जड़ देना आज तक तुमने सही से पीटाई भी तो नहीं की। अगर तुम्हारे मार से मुझे रोना आ जाए तो चुप मत कराना। बस थोड़ी देर चैन से रो लेने देना। बहुत साल के आंसू हैं बहुत देर तक निकलें शायद।

Saturday 11 March 2017

होली, एक ऐसा उत्सव जो जीवन के आनंद पर नृत्य करता है। जीवन जो खुद एक रंग है। होली पर इस देश में जितने रंग खेले जाते है। उतने तो पूरी कायनात में देखे भी नहीं जाते विद्वानों का रंग बेरोजगारों का रंग जितना हिंदूओं का रंग, उतना ही मुस्लमानों का रंग, जितना इश्क का रंग उतना ही फरेब का रंग, जितना राजा का रंग, उतना ही रंक का रंग, जितना मंदिरों का रंग, उतना ही मस्जिदें का रंग, जितना आरती का रंग, उतना ही अजान का रंग ये सिर्फ त्योंहारों की किस्सागोई नहीं है ना ही किसी संतुलन की मजबूरी होली तो कहानी है जीवन की। जीवन जो खुद एक रंग है।  होली राग-रंग का उत्सव है। राग यानी गीत, संगीत... और रंग यानी जीवन... दोस्ती के रंग... प्रेम का रंग.... धर्म और दर्शन के रंग... हंसी ठिठोली के रंग...  इन रंगो को उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ पूरे शबाब पर होती है।


इसी समय शिशिर ऋतु विदा हो रही होती है और वसंत का आगमन होता है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से ही नए साल की शुरुआत भी होती है। होली का त्योहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का मीठा संगीत सुनाई देने लगता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। किसानों का ह्रदय ख़ुशी से नाच उठता है। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति संकोच और रूढ़ियां भूलकर ढोलक-झांझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है। हमारे पुराणों की कहानियां भी जीवन के इन्हीं रंगो से गढ़ी गई हैं। इन कस्से-कहानियों में लोक मान्यताएं और कल्याणकारी संदेश भरे पड़े है।


पौराणिक मान्यताओं की नजर से होली का त्योहार एक ऐसे किस्से के मद्दे नजर मनाया जाता है जहां अटूट श्रद्धा पवित्र भक्ति बुराई का अंत और अच्छाई की जीत है। होली में जितनी मस्ती और धूम मचती है। उतनी तो किसी त्योहार में देखी भी नहीं जाती...इस दिन सारे लोग अपने पुराने गिले-शिकवे भूल कर एक दूसरे से गले मिलते हैं और गुलाल लगाते हैं। इस दिन हर उम्र के लोगों के लिए उल्लास का माहौल होता है।होली के दिन दिल खिल जाते हैं, रंगों में रंग मिल जाते हैं...ऐसा सिर्फ देश में नहीं, बल्कि विदेशों में भी होता है। दरअसल, जहां भी भारतीय मूल के लोग हैं, वहां यहां की परम्परा फलती-फूलती ही है। और, फिर होली तो ऐसी मस्ती भरा त्योहार है कि इसमें विदेशी मन भी देसी रंग में नहाने के लिए तैयार हो जाता है।

Friday 10 March 2017


मार्च का महीना आते ही तुम्हरी यादे सामने बाहें फैलाए खड़ी हो जाती है। यह महीना ऐसा ही है, जाने कितनी यादें जुड़ी हैं इस महीने से... जहां एक ओर वर्ष की अंतिम ऋतु शिशिर की विदाई हो रही होती है, तो वही साल के पहले ऋतु वसंत का आगमन हो रहा होता है। पलास के फूल खिल रहे् होते है, आम के पेड़ मे मंजरी लग रही होती है। ठीक उसी वक्त तुम मेरे जीवन में आई थी। खुद को मेरे वजूद का हिस्सा बनाने, याद है तुम घर से नकाब में निकली थी...गली के सारे लोग हमारे फिराक में थे पर तुमने उनको चकमा दे दिया था...इनकार था उनको हमारी मोहब्बत से...पर हमें तो एक पल का इंतज़ार भी दुश्वार हो गया था। वो सस्ता सा छोटा घरौंदा जहां हम दोनों बाहों में बाहें डाल कर जहां भर का सुकून पाया करते थे। खुद को वेदना के अथाह सागर वाले इस संसार में...वो चांद जिसे देख हम सारी रात जगा करते थे वो सब आज भी वहीं है सैफ़ी।


तुम जा चुकी हो मेरी जिंदगी से... खुद को मेरे लहू के हर कतरे में छोड़ कर... तुम्हें तो ठीक से बिछड़ना भी नहीं आया... तुम कहती हो भूल जाना मेरे परिचय को मगर याद नहीं एक भी सांस तो ऐसी नहीं मेरे सीने में जो किसी दर्द से आबाद या बर्बाद नहीं भूल तो जाते तुम्हें.... लेकिन डबडबाई हुई झील सी आंखें मुझे भूलने नहीं दे रही है। वो नजर कहां से लाऊं जो तुम्हें भुला दे वो दवा कंहा से लाऊं जो इस दर्द को मिटा दे... जो लिखा है तकदिर में वो हो कर रहेगा... मैं वह तकदिर कहां से लाऊं जो हम दोनों को मिला दे.... कभी हम ख्वाब देखा करते थे अपने वनों में स्वर्ग का... अब वहां आत्मा विरचती है जहां कभी हमारा स्वर्ग हुआ करता था...पर अब भटक रही है क्यों भटक रही है मेरे पास इसका कोई संतोष जनक जवाब नहीं है और मैं तुम्हारे बारे में कोई राय भी नहीं बनाना चाहता....बस मैं इतना ही जानता हूं सैफ़ी... तुम्हारे प्रेम के संदूक में मेरे लिए जो जगह खाली थी... शायद वह स्पेस आज भी है...  मैं तुम्हारे उस संदूक के तंबू की तिरपाल तक भी नहीं पहुंच पाया पर... मैंने बहुत कुछ सीखा है तुमसे और बड़ी ही गहरी स्वीकृति से क्या सीखा पता नहीं...शायद विश्वास, शायद निष्ठा, शायद प्रेम....शायद पता नहीं....

पर अब रात होते ही वह चांद हमें दुहाई देने लगता है...जो कभी हमारे प्यार का इकलौता गवाह हुआ करता था....मेरा मज़हब सिर्फ प्रेम था और तुम इसके अकेली सिद्धांत हुआ करती थी। तुम्हें पता है सैफ़ी आज भी संभाल के रखा है मैंने वो कागज का टुकड़ा जिसमें तुमने लिखा था मुझे तुमसे मोहब्बत है। तो क्या तुम्हारा प्रेम दिखावा था? नहीं तुम्हारा प्रेम दिखावा नहीं हो सकता... तुम प्यार करती थी या शायद करती हो...क्योंकि तुम्हें प्रेम में उतना ही यकीन था जितना की कोई इंसान मौत पर करता है। ये तुम्हारी निष्ठा है प्रेम के प्रति पर मैंने कभी इस निष्ठा को पहचाना ही नहीं.... पर अब जब तुम नहीं हो...यह एक टीस बन कर दिल में चुभने लगा है... दिल से उठी यह टीस अब स्याही बनकर कलम से गुजर जाती है, वो सुफेद सफे के लिबास पर नज़्म बनकर बीछ जाती है। अब जब भी कोई आईना सामने आता है उसमें भी तेरी ही तस्वीर नजर आती है। न चाहते हुए भी उसे छोड़कर आना पड़ता है... आज बस तुम्हें बस एक बात बताना चाहता हूं सैफ़ी... तुम इम्तिहान में ना आने वाले सवाल जैसे बन गई हो दूर होकर भी पास लगती हो....


मेरे लहु का एक कतरा भी तो ऐसा नहीं जिसमें तुम नहीं हो... प्यार पर बस तो नहीं है मेरा, लेकिन फिर भी तू बता की तुझे प्यार करू या नहीं....तेरी जुदाई भी हमें प्यार करती है सैफ़ी... तुम्हारी यादे मुझे बार-बार बेकरार कर देती है...वह दिन जो तेरे साथ गुजरे थे.... अब नज़रे बार-बार उसे तलाश करती है। मैं लिखता हूं सिर्फ तुम्हें अपने वजूद में जिंदा रखने के लिए... मेरे हर एक सांसो में तुम ही तुम हो...जानती हो सैफ़ी तुझे लगता है जिस-जिस ने मुहब्बत किया है खुदा ने अपने वजूद को बचाने के लिए उनको जुदा कर दिया है। तुम बेवफा नहीं हो और न ही 'मैं' बेवफा हूं ये तो वक्त का सितम था जो उस दिन हमदोनों के ऊपर तुफान बनकर आया था.... वो आया और हम दोनों को उड़ा ले गया दो राहों में... पर यादों की यही एक बात अच्छी होती है सैफ़ी... चाहे यादे खुशी की हो या फिर तकलीफ की हमेशा साथ होती है कम से कम तुम्हारे तरह तन्हा तो नहीं छोड़ती तुम्हें याद है तुमने इस महीने को मिस्टिरीअस मार्च नाम दिया था और यह है भी बिलकुल किसी मिस्ट्री जैसा, कभी समझ नहीं आने वाला, खट्टे मीठे पलों वाला...बिटरस्वीट मिस्टिरीअस मार्च! 

Friday 24 February 2017

प्रिय निधी

सर्द, सीलन और स्मृतियों के दौरान तुम्हारी यादे हां और न के बीच डोल रही है, लेकिन तुम्हारी यादों में अब वो स्नेह नहीं जो विघ्नों के सहारे बहा करता था। वह मोह नहीं जो पीड़ा की नाव पर स्वप्नलोक की दुनिया में घर बनाया करता था, लेकिन एक चेहरा धुंधला-धुंधला जो कुछ कहना चाह रहा है पर कह नहीं पाता। तुम्हारे शब्दों की यह चुभन मैं सह भी तो नहीं पा रहा। जो शायद तुमने कभी लिखी थी। यहां वहां भटकते हुए उपवन में पीर उदासी के सावन में जो तुम सुनाना चाहती थी...पर सुना नहीं पाई...जो अब जख्म बनकर रिसने लगा है। मेरे आखों में.... राते डूब जाती है। तुम्हारे दर्द पालते-पालते कोई आहट नहीं फिर भी एक आवाज की साया कच्ची नींद से अक्सर रात में इसने मुझे बार-बार जगाया है। उस आवाज में अब वह सूर नहीं वह ताल नहीं जो पहले हुआ करता था। अगर अब कुछ है तो सिर्फ दर्द, पीड़ा, आह, तड़प, लाचारी और बेबसी जो मुझे बार-बार सर्द, सीलन और स्मृतियों की गंध के बीच बेचैन कर रहा है।

तुम सच में जा चुकी हो पर तुम्हारी यादों पर मैं पेहरा नहीं लगा पा रहा हूं। तुम्हारी यादे बार-बार आ जाती है। तुम्हारे यादों को मिटाने के लिए मैंने तुम्हारे दिए हर खत और गिफ्ट को रात के घोर अंधेरे में विश्वविद्यालय के बाहर कुड़े के ढ़ेर में फेक आया था। पर आज लक्ष्मीनगर में अपने कमरे की छत पर जाकर उन गिफ्टों और खतों की ओर निहारता हूं उसे खोजता हूं। नाम कुछ ऐसे लिख दिये हो तुमने मेरे वजूद पर कि मैं जब भी तुम्हें भुलना चाहता हूं। अपना वजूद ही मिटने लगता है। जब तुम थी मैं बांटा करता था दर्द, पीड़ा, आह, तड़प, लाचारी, बेबसी की दबा पर आज अपने ही दुकान पर आ कर खड़ा हो गया हूं।


मैं जानता हूं मेरे हर लफ्ज़ तुम्हें खंजर से भी गहरा जख्म दिया करते थे, लेकिन तुमने कभी उन जख्मों की प्रवाह नहीं की तुम्हारे चांद नुमा चेहरे को चाहने वाले हजारों आश्कि तुम्हारे दिल के सकरी गलियों में तौलिया लपेटे खड़े थे पर तुमने कभी उन सबको नजर तक उठा कर नहीं देखा... ये तुम्हारी निष्ठा थी मेरे प्रेम के प्रति...पर मैं तुम्हारे इस निष्ठा से हमेशा दूर भागता रहा। मैं भी तुम्हें उतना ही चाहता था जितना शायद तुम...पर मेरे पास तुम्हारे स्वप्नलोक की दुनिया के लिए वक्त नहीं था और शायद आज भी नहीं है। किताबों के बीच रहने वाला व्यक्ति ऐसे ही हो जाता है। प्रेमहीन, भावहीन, तर्कहीन, संवेदनाहीन, कल्पनाहीन जो किसी के फीलिंग, इमोसन को नहीं समझता बिल्कुल दैत्यनुमा जो मैं था और शायद आज भी हूं।

पर अब जब तुम मेरी जिंदगी से जा चुकी हो। खुद को मेरे दिल में ही छोड़ कर, मुझे तो ठीक से बिछड़ना भी नहीं आया....तुम्हारी वो बातें जो तुम मुझे बताना चाहती थी जख्म बनकर रिसने लगी है। जिस तन्हाई और खामोशी से मुझे लगाव था। आज वहीं खामोशी कितनी शोर मचा रही है। कानों के परदे फाड़ देने वाली शोर जिसे सहन करना आसान नहीं...अब ऐसा प्रतीत होने लगा है। जैसे मैं पागल हो रहा हूं। कभी-कभी सोचता हूं कि तुम्हारे बिना पागलपन के इस ओर रखने वाली सीमित कर देने वाली रेखा कितनी पतली सी हो गई है। शायद उतनी पतली जितनी घृणा और प्रेम के बीच होता है या फिर स्नेह और वैराग्य के बीच में या यातना और क्रूरता में होती है। ठीक उतनी ही रह गई है।



तो क्या मैं सच में पागल हो जाउंगा...कल रात मैंने तुम्हारी सारी बाते कमरे की दीवार पर लिख डाले तुम्हें यह एक तमाशा लग सकता है, लेकिन ये शब्द ही तो होते थे हमारे बीच की सेतु गिने चुने सीमाएं ओढ़े वो कुछ जो लिखा ही नहीं गया हो अब तलक... जो कहा ही नहीं गया अब तलक पर रिस रहा है। जो पहले कुछ पनपते थे शब्दों के अंधियारे में इस ओर भी शायद उस ओर भी....सच बताऊं तो मैं अंधियारे में जाना ही नहीं चाहता कल्पना में भी नहीं क्योंकि मैं जानता हूं कि अंधियारे के बाद उजाला होता है और उजाला कभी झूठ नहीं बोलता यह सब सच बयां कर देता है।

इस लिए मैं अंधियारे से डरता हूं... तुम्हारे रिक्त पड़े प्रेम के स्पेस को मैंने यादों के ढेर से भर रखा है। प्रेम की महक की जगह दर्द, पीड़ा, आह, तड़प की महक आने लगी है। प्रिय  तुम तो जानती हो इश्क करने वालों को कैसे बेअदबी, बेरुमानियत, लाचारी, बदनसीबी की चौखट पर दम तोड़ने पड़ते है। यह सच है तुम्हारा प्रेम दिखावा नहीं था और सच मैं प्रेम नुमाइस की वस्तु नहीं है। यह तो बस महसूस और महफूज करने की चीज है। पर क्या करें जिंदगी है...और जिंदगी के अपने ही बुने हुए जंजाल हैं... काश जिंदगी उस लौ की मानिंद ना होती जिसमें जलने का दस्तूर होता है...और जीये जाने की बंदिश होती है...वैसे भी जिंदगी में इतनी ख्वाहिशें होती हैं कि हर ख्वाहिश पर दम निकलता है... दम के साथ अरमानो की भीड़ भी निकलती है। ये अधूरी कहानी, अधूरे अरमान तुम्हारे साथ गुज़रे उन हसीन लम्हों के ग़ुबार हैं। कभी देखना ये तुम्हारी यादों के हर पड़ाव पर मिलेंगे, हर एक रहगुज़र पर उड़ रहे हैं... उन्हें देखकर धबराना मत... मैं वहीं हूं, रास्ते वही हैं, और वो चांद जो हम साथ देखा करते थे, वही है... कुछ नहीं है तो बस मेरी तुम...
Posted by Gautam singh Posted on 01:53 | No comments

पाती से प्रेम


एक खत ले कर आया हूं कोई तो पढ़ दे जरा....नहीं समझे...अजी खत माफ कीजियेगा जनाब आज के जमाने में खत-लिखना और पढ़ना शायद बहुत मुश्किल हो गया है। पर कहते है न 'मोहब्बते पैगाम से खत यार की आती है, प्यार की हर बात से रू-ब-रू हो जाती है, वह दिदारे हुस्न से इनकार तो नहीं करते...और एक हम है जो बस खत का इंतजार करते है।' खत कह लीजिये या पैगाम या फिर चिटृठी इनकी तो अब महत्व ही खत्म हो गया है... पहले जैसे ही पैगाम की बात आती.. तो लोग झट से कलम कागज ले कर बैठ जाते थे, और अपने दिल का हाल उसमें बयां कर देते थे, लेकिन आजकल इनकी जगह दूरभाष ने ले ली है, अगर मोबाईल के भाषा में कहुं तो एसएमएस या वट्सअप ने चिट्ठी का रूप ही बदल दिया है।... पहले दरवाजे पर टकटकी लगाए आंखे एक अदद चिट्ठी का इंतज़ार करते रहते थे।

पर अब ऐसा नहीं है, लेकिन मन करता है कि साइकिल की घंटी सुनाई पड़े और दौड़कर दरवाजे पर चले आयें, शायद कोई चिट्ठी आई हो, शायद कोई संदेशा आया हो, जिसे किसी अपनों ने भेजा हो जिसमें हाल-ए-दिल बयां की हो लेकिन अब न तो साइकिल की घंटी सुनाई पड़ती है और न ही डाकिया बाबू नजर हाते हैं.....जहां पहले एक कोरा कागज भी दिल का हाल बयां कर देता था..... तो वहीं आज एक Blank SMS पर लड़ाई हो जाती है... मैं ये नहीं कहता कि खत के साथ-साथ प्यार भी खत्म हो गया है... प्यार तो आज भी उन SMS में छुपा है जो दूर बैठे प्रेमियों को पास ले आता है... बच्चों को माता-पिता से जोड़ता है और सरहद पर जवानों को अपने घर वालों से मिला देता है....ऐहसास तो वही है.....पर तरीका नया...


मुझे अभी भी याद आता है वह जमाना जब सरहद पर से हमारे देश के जवानों की चिट्ठी उनके घर पहुंचते थे तो पूरा घर आंसुओं में ढूब जाता था, खत में लिखे हर शब्द में जवान का प्यार और घरवालों की यादें सिमट के रह जाती...और फिर जब जवानों के घर से चिट्ठी आती तो वो अपनी थकान के साथ-साथ अपनी सारे तकलीफे भी भूल जाते थे... अब तकनिकी दुनिया ने उन सुनहरे दिनों को कहीं पीछे छोड़ दिया...जब हफ्तों इंतजार के बाद एक खत आया करता था....दूर देश से आये अपने प्रिय जनों की इस खत में इतना कुछ होता था कि पढ़ते-पढ़ते कभी आंखे नम हो जाती थी, तो कभी सारे जहान की खुशियां एक चिट्ठी में सिमट आती थी...बेशक फोन ने संवाद में दुरियों की खाई पाट दी है, लेकिन रिश्तों की कद्र में कमी और नजदियों में दूरियों का अहसार बढ़ा दिया है। फोन हमें सहुलियत तो देता है, लेकिन प्रेम में जरूरी उत्साह, इंतजार और सपनों से प्रेरित होने वाली उत्सुकता को कहीं न कहीं छीन लेता है।

Monday 6 February 2017

Posted by Gautam singh Posted on 03:33 | No comments

तब जब तुम थी

तब जब तुम थी मैं बेचा करता था, तड़प, आह, बेचैनी और हर दर्द की दवा पर आज जब तुम नहीं हो वक्त मुझे अपनी ही दुकान पर ले आया है। कल रात मैंने तुम्हारी सारी बाते कमरे की दीवार पर लिख डाले...तुम इसे एक तमाशा कह सकती हो पर नाम कुछ ऐसे लिख दिये हो तुमने मेरे वजूद पर की मैं भूलना नहीं चाहता... मेरे जुबान तीखे थे जो तुम्हे खंजर से भी गहरा जख्म दिया करता था, लेकिन तुमने उस जख्मों पर हमेशा मरहम भी खुद लगाया।

तुम्हारे चांद नुमा चेहरे को चाहने वाले हजारों आश्कि तुम्हारे दिल के सकरी गलियों में तौलिया लपेटे खड़े थे पर तुमने कभी उनको भाव नहीं दिया। पर मेरे पास तुम्हारे स्वप्नलोक की दुनिया के लिए वक्त नहीं था। अब जब तुम मेरी जिंदगी से जा चुकी हो... खुद को मेरे दिल में ही छोड़ कर, तुझे तो ठीक से बिछड़ना भी नहीं आया...पर तुम्हारे पास इसके अलावे कोई और ऑप्सन नहीं था। तुम्हारे ख्वाब और तुम्हारी दुनिया के लिए मेरे पास वक्त नहीं था किताबों के बीच रहने वाला इंसान ऐसे ही हो जाते है तर्कहीन, भावनाहीन, प्रेमहीन, कल्पनाहीन, संवेदनहीन जो किसी के फिलिंगस, इमोसन को नहीं समझता बिल्कुल दैत्यनुमा जो मैं था और शायद आज भी हूं।

Tuesday 31 January 2017

इंगलिस का शब्द 'HAPPY' जिसका हिंदी में अर्थ होता है खूशी... इस हैप्पी शब्द ने मुझ जैसे अनपढ़ व्यक्ति को एक भ्रमजाल में फंसा कर रख दिया है। आज के बदलते परिवेश में हमारे समाज में सब हैप्पी है। " हैप्पी सरस्वती पूजा, हैप्पी दुर्गा पूजा, हैप्पी छट पूजा, हैप्पी लक्ष्मी पूजा" और न जाने कौन-कौन से पूजा हैप्पी हो गए है। अब ज्ञान की देवी, शक्ति की देवी या धन की देवी के लिए श्रध्दा, समर्पण, आदर और प्रिय जनों के लिए मंगल कामना करने की कौन जहमत उठाए जब सब हैप्पी-हैप्पी हो जाए तो...

अब तो हैप्पी डैवॉस, हैप्पी ब्रेकअप भी हो गया है और न जाने आने वाले दिनों में कहीं हैप्पी डेथ न हो जाए... इस लिए मैं हैप्पी शब्द सूनते ही कोमा में चले जाता हूं जैसे ही मेरे फोन में पिंग-पिंग की धुन बजती है और संदेश इनबॉक्स में गिरता हैं। मैं भी अंदर से डर के चरम अवस्था में पहूंच जाता हूं। मुझे लगता है कहीं मेरे मौत को लेकर ही कोई मैसेज न आ जाए और लिखा हो हैप्पी डेथ इसलिए मैं फोन के इनबॉक्स को खोलने से पहले तीन-चार बार अपने दिल पर हैप्पी से ज्यादा वजन का पत्थर रख कर देख लेता हूं। अगर हैप्पी वाला मैसेज भी हो तो मैं उसका भार सह सकूं....

वैसे हैप्पी शब्द से मुझे कोई वैर नहीं है। यह शब्द मुझे समझ में नहीं आता तो इसका मतलब तो यह नहीं है न की वह भी इन शब्दों का प्रयोग न करे वैसे भी आज के दौर में मंगल कामणा जैसे इतने बड़े-बड़े शब्दों का प्रयोग कौन करें अब अगर मुझे मसझ में नहीं आए या मैं कोमा में चला भी जाऊं तो क्या फर्क पड़ता है क्योंकि मेरे कारण पूरा दुनिया कोमा में तो जा नहीं सकते इस लिए लिखते रहो ओर चिल्लाते रहो हैप्पी, हैप्पी....

Sunday 29 January 2017


प्रिय निधी

तुम तक मेरा खामोश सलाम पहुंचे। तुम खोमोश, मैं खामोश, ऐसा प्रतित हो रहा है जैसे पूरा दुनिया खामोश। नदियों के कलरव से लेकर पत्तियों की चरमराहट तक सब खामोश...एक लाश की भांती शांत, ठंठा और अकड़ा हुआ कितना भयानक है ये सन्नाटा! कलम भी कितनी खामोशी से चल रही है... इसके लिखे अक्षर भी कितने खामोश हो गए है। इन अक्षरों के कोहराम नहीं रहे.....घर के दरवाजे पर ठहरा हुआ, तेरी आहट का साया कच्ची नींद से अक्सर रात में, इसने हमें बार-बार जगाया है।



प्रियतमा तुम क्या गई मेरे जीवन से..., जीवन का सारा संगीत ही थम गया, हर साज चुप, हर आवाज चुप... मैं गाता भी हूं तो मेरा गीत चुप किसी तीर की तरह उसे और भी ज्यादा घायल कर देती है। अब चिड़ियों का चहचाना या कोयल का गाना कानों में अमृत नहीं विष घोलती है। पर ये बिना बोले रह भी तो नहीं सकते, इनकी हर आवाज मुझे कचोटती है... कितना अच्छा होता तुम बोलती ये खामोश रहते ये खामोशी मुझे प्रिय होती। सिर्फ तुम बोलती और सारी प्रकृति चुपरहती। तुम्हारे स्वरों में प्रकृति के हर स्वर का अनुभव कर लेता मैं। मगर सारी प्रकृति बोल रही है और तुम खामोश और स्थिर हो पत्थर की भांती...


बहुत दिनों से सोचा था तुम्हें एक खामोशी भरा खत लिखू पर अब खत लिखा भी नहीं जाता..... तुम्हारे बिना लिखना ही अच्छा लगता है। हर बार ये शब्द ही तो होते है... हमारे सेतु बस गिने चुने सीमायें ओढ़े....एक आहट धुंधली-धुंधली हां और ना के बीच डोलती हुई....वो कुछ जो लिखा ही नहीं गया हो अब तलक...जो कहा ही नहीं गया हो अब तलक पर उभर रहा है। इस तरफ भी और शायद उस तरफ भी अदृश्य इस छोर से उस छोर तक महसूस होता हुआ महफूज होता हुआ कुछ पनप रहा है शायद। इन खामोशियों के बीच जिसको मैं समझ रहा हूं और तुम भी समझ रही हो...

तुम्हारे आने की आहट ने मुझे बार-बार बेचैन किया है...तुम्हारी यादे अब बे-मौसम बारिश की तरह हो गई है। जो मुझे किसान की तरह कभी भी बर्वाद कर देती है और तुम भी सरकार की तरह मुझे कोई मुआवजा नहीं देती....तुम्हारी बेवफाई ने मेरी दुनिया में गदर मचा रखा है। मेरी दुनिया के हर चौराहे पर तेरी ही बेवफाई का चर्चा है। हर कोने से एक ही प्रशन चिख-चिख कर पुछ रहा है कि तुम बेवफा क्यों हुई....पर मैं जानता हूं तुम बेवफा नहीं हो सकती...वो लड़की बेवफा कैसे हो सकती है जिसने मुझ जैसे बेवकूफ को जीना और लड़ना सिखाया है। जिसने दिल्ली जैसे शहर में अपना बनाया हो....अगर तुम बेवफा नहीं हो तो फिर कौन बेवफा है....मैं....नहीं शायद वह आईना बेवफाई कर रहा है जो कभी हमने देखा था... हम दोनों ने एक रेखाचित्र खींचा था.. इस शहर में चलते हुए जब भी इस शहर से निकलना चाहता हूं कोई न कोई यादे मुझे लौटा लाती है। मैं तुम्हें हर लैंप पोस्ट पर खड़ा पाता हूं। हर बस से लेकर मेट्रो की सीट पर तुम्हीं बैठे लगती हो। कितना कुछ छूट गया हमारे मिलने में न?

अब तुम नहीं हो पर तुम्हारी यादो पर पेहरा कैसे लगाऊ...ये यादे कभी भी आकर मुझे तन्हा और खामोश कर देता है। उस तन्हाई और खामोशी में कितनी तड़प, आह, पिड़ा और लाचारी है यह मैं तुम्हें कैसे बतांऊ पर मैं तुम्हें लिख रहा हूं क्यों लिख रहा हूं और क्या लिख रहा हूं नहीं पता....लेकिन फिर भी लिख रहा हूं क्योंकि तुम्हारे बिना लिखना ही अच्छा लगता है। अल्फाज तुम तक पहुंचने के कदमों के निशान लगते हैं। डर लगता है कोई पीछे पीछे हमारी बात न सून ले।

अब हम दो भागों में बंट गए हैं। तुम पूने और मैं दिल्ली, तुम वहां मैं यहां। मैं बस यही लिखना चाहता हूं कि कम से कम पढ़ना तो रोना मेरे लिए। मेरे खामोशी और लाचारी के लिए। मैं भी रोना चाहता हूं। अपने सर्टिफिकेट पर खड़े अरमानों की इमारत की छत पर जाकर। मैं चाहू तो तुम्हें फोन या मैसज कर सकता हू फिर सोचता हूं तुम्हारे लिए लिखने से अच्छा है 'तुम्हे' लिखूं। हो सकता है ये खत तुम तक पहुंचे या न पहुंचे... कभी इतना वक्त लग जाए कि सियाही ही मिटने लगे। किसे पता ये खत तुम तक पहुंचने से पहले डाकिया पढ़ ले। बड़ा जालिम होगा वो। देखो यहां भी मैं लाचार हूं, बेबस हूं... शायद इसीलिए तो खामोश हूं... इन्ही खामोशियों में सोचता हूं क्या तुम ये सब जान पाओगी कभी...तुम्हारे ख्याल भी इतने खामोश होते हैं कि मैं जाने-अनजाने हां-ना के बीच झूलने लगता हूं। तुम तो मेरे बेवसी को समझ लोगे न। मैं किससे कहूं। तुम्हारी बातें भी खुद से कहता हूं। खुद को समझाते समझाते थक गया हूं। तुम समझती हो न!


तुम्हारा
 मैं...

Monday 16 January 2017

मैंने कभी सोचा नहीं था कि मुझे इतनी जल्दी अध्यात्म के बारे में पढ़ने या लिखने का मौका मिलेगा और इसेक पीछे का कारण यह भी रहा था की मुझे अध्यात्म से ज्यादा लगाव नहीं रहा क्योंकि उम्र के जिस दहलिज पर मैं खड़ा हूं वहां अध्यातम जैसे भारी-भरकम पहाड़ नुमा लगने वाला यह शब्द मुझे हमेशा डराते रहता। यही कारण भी रहा की अध्यात्म से मैं हमेशा भागता रहा। या फिर उम्र का तकाजा भी हो सकता है क्योंकि उम्र की जिस दहलिज पर मैं खड़ा हूं वहां मेरे जैसे न के बराबर ही बच्चे होंगे जिसका अध्यात्म की ओर रूझान रहा हो क्योंकि अध्यात्म एक दर्शन है, चिंतन धारा है, विधा है, हमारी संस्कृति की परंपरागत विरासत है। ऋषियों, मनीषियों के चिंतन का निचोड़ है, उपनिषदों का दिव्य प्रसाद है। आत्मा, परमात्मा, जीव, माया, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, सृजन-प्रलय की अबूझ पहेलियों को सुलझाने का प्रयत्न है अध्यात्म।

अब इतने भारी भरकम पहाड़ नुमा शब्दों से हम जैसे युवा जिसका चंचल मन न जाने क्या-क्या सपने बुनते हो और फिर अपने ही बुने सपने में फसकर उलझ जाता हो। वह अध्यात्म को कैसे समझ सकता। जो कॉलेज के कैंन्टीन से बाहर आते-जाते लड़कियों को देखकर नयन सूख की प्राप्ती करता और हर लड़कियों में अपना महबूब तलाशता फेसबूक जैसे बदनाम गलियों के हर चौराहे पर भटकते रहता और अपने महबूब की तलाश में दिल की सारी बाते परत दर परत उस पर लिख देता। जो लड़का हमेशा समाज में समानता की बात करता वह कैसे अध्यात्म से जुड़ सकता जिसका कोई विचार धारा नहीं जो खुद मौका परस्त रहा हो कभी बाबा गांधी को मानता तो कभी बाबा मार्क्स को और जरूरत पड़ने पर हिटलर को भी अपना आदर्श मानने से न हिचकचाता।


लड़कियों को देख कर बाबरा फिरता उसके लिए कहानी या कविता लिखता जिसे कहानी और कविताएं पढ़ना अच्छा लगता उस लड़के के लिए आध्यात्म ठीक वैसे ही जैसे एक डाकू को संत बनाना। मैं अध्यात्म से भागते रहता। जब कोई अध्यात्म की बात करता तो मुझे खुन्नस आती और मुझे लगता है। इस फिरस्त में मैं अकेला लड़का नहीं हूं जिसे अध्यात्म से फुन्नस हो अगर आप देखेंगे तो बहुत सारे लोग मिल जाएगें क्योंकि मैं इन धर्म-संस्कृति को मानने बाले लड़का नहीं रहा हूं। मैं अत्यंत अकाश में सबको उड़ते देखने वाला चाह लिए बड़ा हुआ इस लिए भी अध्य़ात्म मेरे लिए बिल्कुल अगल था, लेकिन जब हम अपने ही बूने जंजाल में फंसते जाते है और जब उस जाल से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखाता तब एक रास्ता बाकी रह जाता है अध्यात्म का और यही वह राह है जहां हम हर तरह के बोझ उतारे जा सकते हैं। बोझ मंसूबों के, बोझ मन के, बोझ आत्मा के अध्यात्म ही वह शक्ति है जहां हम अपने आप को पहचानते पाते हैं।