Wednesday 23 August 2017


दूर क्षितिज में जब पहाड़ियों की ढलान से उतरते हुये सुर्य की अंतिम रश्मियों ने भी अपनी सांस तोड़ दी तो बॉल्डर की पीठ से न जाने कब से अपनी पीठ टिकाये हुये मेरा शरीर दुखने लगा था। अपने कुछ अजीज मित्रों की ऊल-जुलूल बातों से बचने के ख्याल से उनसे दृष्टि चुराकर मैं चुपचाप ढलते हुये सूर्य की अंतिम यात्रा के धीरे-धीरे करके लुप्त होते रंगों को देख रहा था और पहाड़ी वातावरण की प्यार से गुदगुदाती मदमस्त हवाओं में बॉल्डर की पीठ से अपनी पीठ टिकाये हुए अपने विचारों में गुम ही था कि एकाएक यादों के पहाड़ मेरे सामने बाहे फैलाए खड़े हो गए। कितना अच्छा दिन हुआ करता था जब हम सारे दोस्त इन पहाड़ियों पर आ कर ढलान से उतरते सुरज की अंतिम रंगों को देखा करते थे। हर त्योहार हम लोग उसी पहाड़ पर तो जा कर मनाते थे, लेकिन अब हर त्योहार पर मैं अकेला होता हूं नितांत अकेला, तुमलोगों की प्यार की अथाह खूशहू से मैं मिलो दूर तुमलोगों की यादों की कुंज में अकेला पड़ा रहता हूं। यह शहर त्योहार के दिन काटने को दौड़ता है यह शहर त्योहार के दिन भी हंसता नहीं है और ना ही रोता है। यह शहर इतना आवारा है दोस्त की कभी सोता तक नहीं मैं भी आवारा हो गया हूं दोस्त पूरी रात यू ही कट जाती है अकुलाते हुए यह जागरण, यह उनींदापन एक अजीब सी खौफ मेरे अंदर पैदा कर रहा है। जो दिल कभी एक अजीब सी सुखानुभूति से भरा होता था। वह आज यू ही धड़कता है, देह यूं ही पसीजता है, नसे यू ही खिचता है। देह की भाषा भी भूल गया है दोस्त। यहां ना दूर क्षितिज में पहाड़ियों का ढलान है और ना सुर्य की अंतिम रश्मियां अगर यहां है तो बस चौड़ी-चौड़ी सड़के उसपे भागती-दौड़ती गाड़ियां, अस्त-व्यस्त लोग, ऊंची-ऊंची इमारतें और इन इमारतों में रहते बिना वेदना वाले लोग। यही इस शहर की खासियत है दोस्त यहां ना कोई बोलने आता है औऱ ना ही छेड़ने मैं यहां नितांत अकेला पड़ा होता होता हूं। 
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