Monday 25 August 2014

लव जिहाद एक ऐसा नाम जिससे सारे फेसबुकिए घबरा गए है। कि मुस्लिम लडके हिन्दु लडकियों को प्यार में फुसलाकर धर्म परिवर्तन करवा देते है। इसमें कहीं प्यार भी होता है, या फिर सब कुछ सुनियोजित रणनीति का हिस्सा क्योंकि लव और जिहाद दोनों विरोधाभासी हैं। लव कभी जिहाद नहीं हो सकता और जिहाद कभी लव नहीं हो सकता है। इन सवाल को लेकर आज कल पूरे देश में बहस छिड़ी हुई है। लव जिहाद दो बेहद गंभीर शब्द है और इसको कायदे से समझने की जरूरत है। जिसने इसका गूढ़ अर्थ समझ लिया उसके लिए यह अमृत और जिसने नहीं समझा उसके लिए जहर। लव जिहाद दो शब्दों से मिलकर बना है। अंग्रेजी के शब्द 'लव' यानि प्यार, इसके लिए किसी परिभाषा की जरूरत नहीं है। यह एक गहरा और खुशनुमा एहसास है। वहीं, 'जिहाद' शब्द का जन्म इस्लाम के साथ ही हो गया था। यह अरबी भाषा का शब्द है। इस्लाम के जानकारों के मुताबिक़ किसी मकसद को पूरा करने के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देना और जी जान से कोशिश करने को अरबी में 'जिहाद' कहते हैं।

लेकिन कट्टरपंथियों और धार्मिक मूलवादियों के अभियान का हिस्सा बनकर जिहाद अपना असली अर्थ खोते जा रहा है। आज यह अपनी आंतरिक बुराइयों पर जीत हासिल करने वाले अर्थ को गंवाते जा रहे है। यहां जिहाद का मतलब है धर्म की रक्षा के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध जो की गैर मुश्लिमो के खिलाफ लड़ा जाता है। उन्हें मुश्लिम धर्म मनवाने के लिए स्वेक्षा से मान गए तो ठीक अन्यथा साम दाम दंड भेद की निति अपना कर इसलिए हिंदुस्तान में इसे अलग रूप दे कर लव जिहाद किया जाता है हमारे यहां पहले भोली भली लडकियो को अपने प्रेम जाल में फसाया जाता है फिर उससे विवाह कर धर्मान्तरित करवया जाता है।

मगर लव-जिहाद के बाद जो कुछ होगा या हो सकता है उसकी कल्पना तो कीजिए। मुस्लिम लड़के का ससुराल हिन्दू के घर में होगा और पत्नी की तरफ के सारे रिश्तेदार भी हिन्दू होंगे। थोड़ी देर के लिए लड़की को यदि मुसलमान बना भी दिया जाता है तो जो बच्चे पैदा होंगे क्या वे जिहादी मानसिकता के हो सकते हैं? बच्चे के चाचा, ताऊ, दादा-दादी मुस्लिम होंगे और वहीं मामा, मामी, मौसी, नाना-नानी, ममेरे-मौसेरे भाई हिन्दू। क्या ऐसा बच्चा किसी भी समुदाय से नफरत कर सकता है? मुझे तो नहीं लगता इससे हमारे समाज में एक नए अध्याय की शुरूआत होगी।

Tuesday 19 August 2014

किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो लो उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल मेें प्यार, जीना इसी का नाम है। राज कपूर पर फिल्माया गया यह गीत हमलोगों के जीवन पर विल्कुल सटीक बैठता है। राजकपूर भारतीय सिनेमा जगत का एक ऐसा नाम है, जो पिछले आठ दशकों से फिल्मी आकाश पर जगमगाता रहा है। और आने वाले कई दशकों तक जगमगाते रहेगें। राजकपूर सभी प्रकार के अभिनय को बखुबी पर्दे पर अदा करते थे। चाहे वो सीधे साधे गांव वाले का चरित्र हों या फिर मुम्बइया चोल वासी स्मार्ट युवा का। वे सभी चरित्रो को बखुवी निभाते थे। राजकपूर फिल्म की विभिन्न विधाओं से बखुबी परिचित थे। हिन्दी फिल्मों में राजकपूर को ही पहला शोमैन माना जाता है। उनकी फिल्मों में मौज-मस्ती, प्रेम, हिंसा, से लेकर अध्यात्म और समाज सब कुछ मौजूद रहता था। राजकपूर का जन्म 14 दिसंबर 1924 को पेशावर पाकिस्तान में हुआ था। इनके पिता पृथ्वी राज कपूर अपने समय के मशहूर रंगकर्मी और फिल्म अभिनेताओं में से एक थे। जिस कारण अभिनय उन्हें विरासत में मिला था। राजकपूर का बचपन में नाम रणवीर राज कपूर था। राजकपूर की स्कूली शिक्षा कोलकाता में हुई, लेकिन पढ़ाई में उनका मन कभी नही लगा और यही कारण रहा कि 10वीं कक्षा की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। इस मनमौजी ने विद्यार्थी जीवन में किताबें बेचकर खूब केले, पकोडे़ और चाट खाई।

सन् 1929 में जब पृथ्वी राज कपूर मुंबई आए तो उनके साथ मासूम राजकपूर भी आ गए। राज कपूर के पिता ने एक दिन कहा था, कि राजू, नीचे से शरूआत करोगें तो उपर तक जाओगे। राजकपूर ने पिता की यह बात गांठ बांध ली और जब उन्हें 17 वर्ष की उम्र में रणजीत मूवीटोन में साधारण एप्रेंटिस का काम मिला, तो उन्होंने वजन  उठाने से लेकर पोंछा लगाने का भी काम किया। 1930 के दशक में बाॅम्बे टाॅकीज क्लैपर-बाॅय और पृथ्वी थियेटर में बतौर अभिनेता काम किया। राज कपूर बाल कलाकार के रूप में 1935 में ‘इकबाल, हमारी बात, और गौरी 1943 में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने आए। राज कपूर ने 1946 में आई फिल्म बाल्मीकि और अमर प्रेम में कृष्ण की भूमिका निभाई थी। इन सारे फिल्मों में काम  करने के बावजूद भी एक आग थी कि स्वंय निर्माता-निर्देशक बनकर अपने से फिल्म का निर्माण करे, उनकी यह सपना 24 साल के उम्र में फिल्म ‘आग‘के साथ पूरा हुआ। इस फिल्म में राजकपूर खुद मुख्य भूमिका के रूप में आए। उसके बाद 1949-50 में राजकूपर रीवा चले गए और कृष्णा से रीवा में ही शादी कर ली। वहां से आने के बाद राजकपूर के मन में खुद का स्टूडियों बनाने का विचार आया और चेम्बूर में चार एकड़ जमीन लेकर 1950 में आरके स्टूडियों की स्थापना की और फिल्म ‘आवारा‘ बनाई जिसमें रूमानी नायक के रुप में  ख्याति पाई, लेकिन उसके बाद आई फिल्म ‘आवारा‘ में उनके द्वारा निभाया गया चार्ली चैपलिन का किरदार सबरे प्रसिद्ध रहा। उसके बाद उन्होंने ‘श्री 420, जागते रहो, और मेरा नाम जोकर‘ जैसे कई सफल फिल्में बनाई। राजकपूर अपने दोनो भाई शम्मी, शशी के साथ-साथ तीनों बेटे रणधीर, ऋषि और राजीव कपूर को लेकर भी कई सफल फिल्में बनाई।


राजकपूर की सिने कैरियर में उनकी जोड़ी नरगिस के साथ बहुत पसंद की गई। इन दोनो की पहली फिल्म तो ‘आग‘ थी, लेकिन फिल्म ‘आवारा‘ के निमार्ण के दौरान नरगिस का झुकाव राजकपूर की ओर बढ़ गया, जिस वजह से नरगिस ने केवल राजकपूर की फिल्मों में काम करने का फैसला किया। और नरगिस ने महबूब खान की फिल्म ‘आन‘ में काम करने से इन्कार कर दिया। इस जोड़ी ने 9 वर्ष में 17 फिल्में बनाई, 1956 में आई फिल्म चोरी चोरी इन दोनो जोड़ी की आखरी फिल्म थी। उसके बाद राजकपूर ने 60 के दशक में ‘जिस देश में गंगा बहती है और संगम‘ जैसीे सफल फिल्म बनाई। 1960 में राजकपूर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार फिल्म ‘अनाडी के लिये मिला। 1962 में फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है‘ में पुनः सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार तथा 1965 में फिल्म ‘संगम, 1975 में मेरा नाम जोकर‘ और 1983 में प्रेम रोग के लिये सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार मिला, लेकिन राजकपुूर का महत्वाकांक्षी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर‘ जिसे  बनाने में राजकपूर ने बहुत ज्यादा खर्च किया, लेकिन यह फिल्म बाॅक्स आॅफिस पर औंधे मुह गिरी। इसके बाद 80 के दशक में प्रेम रोग जैसी फिल्मों का निमार्ण किया जिसके लिये राजकपूर को एक बार फिर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार मिला, 1985 में आई फिल्म राम तेरी गंगा मैली हो गई उनकी आखरी फिल्म थी। 1987 में राजकपूर को दादा साहब फालके पुरस्कार भी दिया गया।1971 में भारत सरकार ने राजकपूर को कला क्षेत्र में अहम योगदान के लिय उन्हें पद्ा भूषण से सम्मानित किया।



Sunday 17 August 2014

कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना, ज़िंदगी के सफर में गुज़र जाते हैं जो मुक़ाम, चिंगारी कोई भड़के,  पिया तू अब तो आजा, आजा आजा मैं हूं प्यार तेरा.., ओ हसीना जुल्फों वाली, चुरा लिया है तुमने जो दिल को'। और ओ मेरे सोना रे सोना.. जैसे सुपरहिट मधुर संगीत से श्रोताओं का दिल जीतने वाले संगीत के जादूगर पंचम दा के नाम से मशहूर आर डी बर्मन (राहुल देव बर्मन) हिंदी फिल्म संगीत की दुनिया में सर्वाधिक प्रयोगवादी एवं प्रतिभाशाली संगीतकार के रूप में आज  याद किए जाते है। जिन्हें भारतीय फिल्म जगत के हर संगीतकार अपना गुरु मानते है। संगीत के साथ प्रयोग करने में माहिर आरडी बर्मन पूरब और पश्चिम के संगीत का मिश्रण करके नई धुन तैयार करते थे। उनके पिता सचिन देव बर्मन को पूरब और पश्चिम के संगीत का मिश्रण रास नहीं आता था।

आरडी बर्मन का जन्म 27 जून, 1939 को कोलकाता में हुआ था। इनके पिता सचिन देव बर्मन जो जाने माने फिल्मी संगीतकार थे। उन्होंने बचपन से ही आर डी वर्मन को संगीत की दांव-पेंच सिखाना शुरु कर दिया था। महज नौ बरस की उम्र में उन्होंने अपना पहला संगीत ”ऐ मेरी टोपी पलट के" को दिया, जिसे फिल्म “फ़ंटूश” में उनके पिता ने इस्तेमाल किया। छोटी सी उम्र में पंचम दा ने “सर जो तेरा चकराये.. की धुन तैयार कर लिया जिसे गुरुदत्त की फ़िल्म “प्यासा” में ले लिया गया। राहुल देव बर्मन ने शुरुआती दौर की शिक्षा बालीगुंगे सरकारी हाई स्कूल, कोलकाता से प्राप्त की। अपने सिने करियर की शुरूआत आरडी बर्मन ने अपने पिता के साथ बतौर सहायक संगीतकार के रूप में की। फिल्म जगत में पंचम दा के नाम से विखयात आरडी बर्मन ने अपने चार दशक से भी ज्यादा लंबे सिने करियर में लगग ३०० हिंदी फिल्मों के लिए संगीत दिया। इसके अलावा बंगला, तेलूगु, तमिल, उड़िया और मराठी फिल्मों में भी अपने संगीत के जादू से उन्होंने श्रोताओं को मदहोश किया।


बतौर संगीतकार महमूद की फ़िल्म आर डी बर्मन की पहली फिल्म छोटे नवाब 1961 आई लेकिन इस फिल्म के जरिए वह कुछ खास पहचान नहीं बना पाए। इस बीच पिता के साथ बतौर  सहायक संगीतकार उन्होंने बंदिनी 1963, तीन देवियां 1965, और गाइड जैसी फिल्मों के लिए भी संगीत दिया। उनकी पहली सफल फिल्म 1966 में प्रदर्शित निर्माता निर्देशक नासिर हुसैन की फिल्म तीसरी मंजिल के सुपरहिट गाने आजा आजा मैं हूं प्यार तेरा.. और ओ हसीना जुल्फों वाली.. जैसे सदाबहार गानों के जरिए वह बतौर संगीतकार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे।  लेकिन आर डी बर्मन ने इसका श्रेय गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को दिया।


सत्तर के दशक के आरंभ में आर डी बर्मन भारतीय फिल्म जगत के एक लोकप्रिय संगीतकार बन गए. उन्होंने लता मंगेशकर, आशा भोसले , मोहम्मद रफी और किशोर कुमार जैसे बड़े फनकारों से अपने फिल्मों में गाने गवाए। 1972 पंचम दा के सिने करियर के लिए अहम साबित हुआ। इस वर्ष उनकी सीता और गीता, मेरे जीवन साथी, बांबे टू गोवा परिचय और जवानी दीवानी जैसी कई फिल्मों में उनका संगीत छाया रहा। 1975 में सुपरहिट फिल्म शोले के गाने महबूबा महबूबा.. गाकर पंचम दा ने अपना एक अलग समां बांधा। यादों की बारात, हीरा पन्ना, अनामिका आदि जैसे बड़े फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया। आर डी वर्मन की बतौर संगीतकार अंतिम फिल्म 1942 लव स्टोरी रही। बॉलीवुड में अपनी मधुर संगीत लहरियों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने वाले महान संगीतकार आरडी बर्मन जनवरी, 1994 को इस दुनियां को अलविदा कह गए।


Saturday 16 August 2014

Posted by Gautam singh Posted on 06:19 | No comments

वो एक ख्वाब थी

वो एक ख्वाब थी, एहसास थी, हुस्न का इतिहास थी, जिसकी आंखों में कशिश थी।  होठों पर कंपन था, जुल्फों में हरकत थी। एक नया रंग एक नया रूप जिसे कोई छु न सके। अपनी दिलकश अदाओं से रूपहले पर्दे को रोशन करने वाली महान अदाकारा मधुबाला जिनका जन्म दिल्ली शहर के मध्य वर्गीय मुस्लिम परिवार में 14 फरवरी 1933 को हुआ था। इनका असली नाम मुमताज बेगम देहलवी था। इनके पिता अताउल्ला खान दिल्ली में एक कोचमेंन के रूप में कार्य करते थे। मधुबाला के जन्म के कुछ दिनों बाद उनका पूरा परिवार दिल्ली से मुंम्बई आ गया। मधुबाला बचपन के दिनों से ही अभिनेत्री बनने का सपने देखा करती थी। यही कारण रहा कि, 1942 में मधुबाला को बतौर बाल कलाकार बेबी मुमताज के नाम से फिल्म ‘बसंत‘ में काम करने का मौका मिला।

निर्माता-निर्देशक केदार शर्मा की 1947 में आई फिल्म नीलकमल से मधुबाला ने बतौर अभिनेत्री के रूप में अभिनय शरू किया। लेकिन उनको पहचान 1949 में बाँम्बे टाकीज के बैनर तले बनी फिल्म महल से मिली। इस फिल्म में फिल्माया गया गीत ‘आऐगा आने वाला........‘जिसे सिने दर्शक आज तक नहीं भुल पाये है। 1950 से 1957 तक का वक्त मधुवाला के सिने कैरियर के लिये बुरा साबित हुआ। इस दौरान उनकी कई फिल्में बाँक्स आँफिस पर असफल रही, लेकिन 1958 में उनकी प्रदर्शित फिल्म फागुन, हावडा ब्रिज, कालापानी और चलती का नाम गाड़ी की सफलता ने एक बार फिर मधुबाला को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया। जहां एक ओर फिल्म हावड़ाब्रिज में क्लब डांसर की भूमिका अदा कर दर्षकों का मन मौहा। तो वहीं दूसरी ओर फिल्म चलती का नाम गाड़ी में हास्य से भरे अभिनय से दर्शकों को हंसाते-हंसाते लोटपोट कर दिया।

पचास के दशक में ही मधुबाला को यह अहसास हुआ की वह हृदय की बीमारी से ग्रसित हो चुकी है। इस दौरान उनकी कई फिल्में निर्माण के दौर से गुजर रहीं थी। जिसके कारन मधुबाला को लगा यदि उनकी बिमारी के बारे में फिल्म जगत को पता चल जाएगा तो इससे फिल्म निर्माता को नुकसान होगा। इसलिये उन्होंने यह बात किसी से नहीं बताई। के आँसिफ की फिल्म मुगले आजम के निर्माण में लगभग दस साल लगे। इस दौरान मधुबाला की तबीयत भी काफी खराब रहने लगा, इसके वाबजूद भी फिल्म की शूटिंग जारी रखी क्योंकी मधुबाला का मानना था कि अनारकली के किरदार को निभाने का मौका बार बार नहीं मिलता। जब 1960 में मुगले आजम प्रदर्शित हुयी तो फिल्म में मधुबाला के अभिनय को देख दर्शक मन मुग्घ हो गए। लेकिन बदकिस्तमती से इस फिल्म के लिये मधुबाला को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरूस्कार नहीं मिला लेकिन सिने दर्शकों का आज भी मानना है की मधुबाला को उस फिल्म के लिये फिल्म फेयर आवार्ड मिलना चाहिये था।


मधुबाला के सिने कैरियर में उनकी जोड़ी  अभिनेता दिलीप कुमार के साथ काफी पसंद की गई। बी. आर. चोपडा की फिल्म नया दौर में पहले दिलीप कुमार के साथ नायिका की भूमिका में मधुबाला का चयन किया गया और इस फिल्म की शूटिंग मुंबई में की जानी थी । बाद में निर्माता को लगा फिल्म की शूटिंग भोपाल में भी करनी जरूरी है। लेकिन मधुबाला के पिता ने मधुवाला को मुंबई से बाहर जाने की इजाजत नहीं दी। उन्हें लगा की मुंबई से बाहर जाने पर मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच का प्यार और परवान चढ़ेगा और वे इसके लिये राजी नही थे। बाद में बी. आर. चोपडा को इस फिल्म में मधुबाला की जगह पर वैयजंतीमाला को लेना पड़ा। मधुबाला के पिता अताउल्ला खान बाद में इस मामले को अदालत ले गये और इसके बाद उन्होंने मधुबाला को दिलीप कुमार के साथ काम करने पर रोक लगा दी। और फिर दिलीप कुमार और मधुबाला की जोड़ी अलग हो गई।

चलती का नाम गाड़ी और झुमरू के निर्माण के दौरान ही मधुबाला किशोर कुमार के काफी करीब आ गयी थी। साठ के दशक में मधुबाला की तबीयत ज्यादा खराब रहने लगी जिसके कारन उन्होंने फिल्मों में काम करना काफी कम कर दिया था। जब मधुबाला लंदन इलाज कराने के लिये जाने वाली थी तो मधुबाला के पिता ने किशोर कुमार को सुचित किया कि शादी लंदन से आने के बाद ही हो पाएगी, लेकिन मधुबाला को यह लग रहा था, कि शायद लंदन में होने वाली आपरेशन के बाद जिंदा न बचे, यह बात उन्होंने किशोर कुमार को बताइ इसके बाद किशोर कुमार ने मधुबाला की इच्छा को पूरा करने के लिये शादी कर लिया। शादी के बाद मधुबाला की तबीयत और ज्यादा खराब रहने लगी हालांकि इस बीच ‘पासपोर्ट, झुमरू, व्बाँय फ्रेंड, हाफ टिकट और शराबी जैसे कुछ फिल्में प्रदर्शित हुई। अपनी दिलकष अदाओं से लगभग दो दषक सिने प्रेमियों को मदहोश करने वाली महान अभिनेत्री मधुबाला 23 फरवरी 1969 को इस दुनियां को अलविदा कह गई।


हिन्दुस्तान सूफी संगीतों का केन्द्र रहा है। यहां पर दरगाहों से लेकर फिल्म इंडस्ट्री और पांच सितारा होटलों तक सूफी संगीत की मघुर धूने सुनने को मिलती है। वैसे तो सूफी संगीत अंदर से महसूस करने की चीज होती है। लेकिन वर्तमान परिद्वश्य में दिखने और बिकने की चीज बन गई है। सूफी लिवास, सूफी आवाज, सूफीयाना चेहरे, सूफी गीत, सूफी संगीत और न जाने क्या-क्या ? ये हिन्दुस्तानी सूफी गायक वो पाकिस्तानी सूफी गायक। लेकिन सच्चाई तो यह है, कि इस सूफी शब्द ने एक नए किस्म की सांस्कृतिक भ्रम के मोड़ पर ला कर सबको खड़ा कर दिया है। हमारे यहां के लोग सूफी संगीत को ज्यादा पसंद करते है। वहीं हमारे देश के ज्यादातर लोगों में यह भ्रम है, कि यह सूफी संगीत की धारा पाकिस्तान से चलकर हिन्दुस्तान को आती है। पर लोगों को यह पता नहीं कि अजमेर शरीफ और दिल्ली की निजामुद्दीन दरगाह जहां से ही दुनियां भर के लोगों के बीच सूफी संगीत को भिगोती जाती रही है। शायद लोगों को यह भी पता नहीं कि सूफी संगीत की असली जड़े और उनकी नींव हिन्दुस्तान से ही जुड़ी है। भले ही आज पाकिस्तान में नजाकत अली खान, नुसरत फतेह अली खान, सलामत अली खान और आबिदा परविन जैसे नामी गिरामी सूफी गायक मौहजूद हो, लेकिन सच तो यह है, कि ये सारे लोग हिन्दुस्तान के थे। जो विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए थे।

 वैसे तो सूफी को गाने और समझने वालों के लिए कोई सरहद, मजहब या देश की सीमा नहीं होती । लेकिन वत्तमान समय में हिन्दुस्तान में ही हिन्दुस्तानी सूफी गायक बेगाने हो गए है। आज यहां की आलम यह है कि पाकिस्तान से गायक आकर गा रहे है, और अपने ही देश के सूफी गायक बेगाने हो कर भटक रहे है। फिल्म इंडस्ट्री से लेकर पांच सितारा होटल या फिर किसी दरगाहों पर गाने के लिए  पाकिस्तान से गायकों को बुलाया जाता रहा है, और अपने ही देश के सूफी गायकों को नजर-अंदाज कर दिया जाता रहा है। वहीं अगर हम आकडे देखे तो पाकिस्तान में सबसे ज्यादा हिन्दुस्तानी सूफी गायकों को बुलाया जाता रहा है। इसके पीछे का कारण यह रहा है, कि बाहर की चीजें हमेशा ही सब को लुभाती है। सच्चाई तो यह है, कि आज हमारे देश में व्यावसायिकता ज्यादा हावी होती जा रही है। लेकिन अगर आज भी यहां की मीडिया और फिल्म इंडस्ट्री सूफी कलाकारों को प्रमोट करे तो यहां भी बरकत सिद्वु वडाली ब्रदर्स जैसे गायक आज भी देश में है जो बेहतरीन सूफी कलाम गाते है। फिल्म इंडिस्ट्री हो या पांच सितारा होटल उन सबों को चाहिए की हिन्दुस्तानी सूफी गायकों की हौसला अफजाई करे न की नजर अंदाज करे। कहते है 'न  दरिया देखे मगर समंदर नहीं देखा पर तुने कभी झाककर अपने अंदर नहीं देखा।



यह लेख मशहूर सूफी गायक हंस राज हंस के सक्षात्कार को सुनने के बाद लिखा गया है।