Tuesday 19 August 2014

किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो लो उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल मेें प्यार, जीना इसी का नाम है। राज कपूर पर फिल्माया गया यह गीत हमलोगों के जीवन पर विल्कुल सटीक बैठता है। राजकपूर भारतीय सिनेमा जगत का एक ऐसा नाम है, जो पिछले आठ दशकों से फिल्मी आकाश पर जगमगाता रहा है। और आने वाले कई दशकों तक जगमगाते रहेगें। राजकपूर सभी प्रकार के अभिनय को बखुबी पर्दे पर अदा करते थे। चाहे वो सीधे साधे गांव वाले का चरित्र हों या फिर मुम्बइया चोल वासी स्मार्ट युवा का। वे सभी चरित्रो को बखुवी निभाते थे। राजकपूर फिल्म की विभिन्न विधाओं से बखुबी परिचित थे। हिन्दी फिल्मों में राजकपूर को ही पहला शोमैन माना जाता है। उनकी फिल्मों में मौज-मस्ती, प्रेम, हिंसा, से लेकर अध्यात्म और समाज सब कुछ मौजूद रहता था। राजकपूर का जन्म 14 दिसंबर 1924 को पेशावर पाकिस्तान में हुआ था। इनके पिता पृथ्वी राज कपूर अपने समय के मशहूर रंगकर्मी और फिल्म अभिनेताओं में से एक थे। जिस कारण अभिनय उन्हें विरासत में मिला था। राजकपूर का बचपन में नाम रणवीर राज कपूर था। राजकपूर की स्कूली शिक्षा कोलकाता में हुई, लेकिन पढ़ाई में उनका मन कभी नही लगा और यही कारण रहा कि 10वीं कक्षा की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। इस मनमौजी ने विद्यार्थी जीवन में किताबें बेचकर खूब केले, पकोडे़ और चाट खाई।

सन् 1929 में जब पृथ्वी राज कपूर मुंबई आए तो उनके साथ मासूम राजकपूर भी आ गए। राज कपूर के पिता ने एक दिन कहा था, कि राजू, नीचे से शरूआत करोगें तो उपर तक जाओगे। राजकपूर ने पिता की यह बात गांठ बांध ली और जब उन्हें 17 वर्ष की उम्र में रणजीत मूवीटोन में साधारण एप्रेंटिस का काम मिला, तो उन्होंने वजन  उठाने से लेकर पोंछा लगाने का भी काम किया। 1930 के दशक में बाॅम्बे टाॅकीज क्लैपर-बाॅय और पृथ्वी थियेटर में बतौर अभिनेता काम किया। राज कपूर बाल कलाकार के रूप में 1935 में ‘इकबाल, हमारी बात, और गौरी 1943 में छोटी भूमिकाओं में कैमरे के सामने आए। राज कपूर ने 1946 में आई फिल्म बाल्मीकि और अमर प्रेम में कृष्ण की भूमिका निभाई थी। इन सारे फिल्मों में काम  करने के बावजूद भी एक आग थी कि स्वंय निर्माता-निर्देशक बनकर अपने से फिल्म का निर्माण करे, उनकी यह सपना 24 साल के उम्र में फिल्म ‘आग‘के साथ पूरा हुआ। इस फिल्म में राजकपूर खुद मुख्य भूमिका के रूप में आए। उसके बाद 1949-50 में राजकूपर रीवा चले गए और कृष्णा से रीवा में ही शादी कर ली। वहां से आने के बाद राजकपूर के मन में खुद का स्टूडियों बनाने का विचार आया और चेम्बूर में चार एकड़ जमीन लेकर 1950 में आरके स्टूडियों की स्थापना की और फिल्म ‘आवारा‘ बनाई जिसमें रूमानी नायक के रुप में  ख्याति पाई, लेकिन उसके बाद आई फिल्म ‘आवारा‘ में उनके द्वारा निभाया गया चार्ली चैपलिन का किरदार सबरे प्रसिद्ध रहा। उसके बाद उन्होंने ‘श्री 420, जागते रहो, और मेरा नाम जोकर‘ जैसे कई सफल फिल्में बनाई। राजकपूर अपने दोनो भाई शम्मी, शशी के साथ-साथ तीनों बेटे रणधीर, ऋषि और राजीव कपूर को लेकर भी कई सफल फिल्में बनाई।


राजकपूर की सिने कैरियर में उनकी जोड़ी नरगिस के साथ बहुत पसंद की गई। इन दोनो की पहली फिल्म तो ‘आग‘ थी, लेकिन फिल्म ‘आवारा‘ के निमार्ण के दौरान नरगिस का झुकाव राजकपूर की ओर बढ़ गया, जिस वजह से नरगिस ने केवल राजकपूर की फिल्मों में काम करने का फैसला किया। और नरगिस ने महबूब खान की फिल्म ‘आन‘ में काम करने से इन्कार कर दिया। इस जोड़ी ने 9 वर्ष में 17 फिल्में बनाई, 1956 में आई फिल्म चोरी चोरी इन दोनो जोड़ी की आखरी फिल्म थी। उसके बाद राजकपूर ने 60 के दशक में ‘जिस देश में गंगा बहती है और संगम‘ जैसीे सफल फिल्म बनाई। 1960 में राजकपूर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार फिल्म ‘अनाडी के लिये मिला। 1962 में फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है‘ में पुनः सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार तथा 1965 में फिल्म ‘संगम, 1975 में मेरा नाम जोकर‘ और 1983 में प्रेम रोग के लिये सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार मिला, लेकिन राजकपुूर का महत्वाकांक्षी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर‘ जिसे  बनाने में राजकपूर ने बहुत ज्यादा खर्च किया, लेकिन यह फिल्म बाॅक्स आॅफिस पर औंधे मुह गिरी। इसके बाद 80 के दशक में प्रेम रोग जैसी फिल्मों का निमार्ण किया जिसके लिये राजकपूर को एक बार फिर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार मिला, 1985 में आई फिल्म राम तेरी गंगा मैली हो गई उनकी आखरी फिल्म थी। 1987 में राजकपूर को दादा साहब फालके पुरस्कार भी दिया गया।1971 में भारत सरकार ने राजकपूर को कला क्षेत्र में अहम योगदान के लिय उन्हें पद्ा भूषण से सम्मानित किया।



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