Thursday 22 December 2016

कभी देखा, सुना या महसूस किया है खानाबदोश की खामोशी को...गरिबी की चादर लपेटे हाड़ तक कपकपा देने वाली सर्द भरी रातों में टिमटिमाते तारे और खुले आसमां के बीच दिलो और दिमाग को जमा देने वाले ठंड में कैसे जीते है। कभी उनके अंदर उठते गहरे समंदर के लहरो को कभी देखने की कोशिश की है। कैसे बेबस आंखे सर्द में डुबी खौफनाक सन्नाटे के बीच रात में खुले आसमान में शुन्य की ओर निहारती है। कैसे जरा-जरा सांस लेते हुए प्रतीत होता है। सुनों कभी तुमने महसूस किया है उनकी खानाबदोश गरिबी को, उनकी बेबसी को, उनके तड़प को, उनकी आह को, उनकी असहन पीड़ा को... तुम्हें क्या पड़ी है उनके इस सारी तकलीफों को महसूस करने की... क्योंकि तुम सोचते हो, गरिबी, उदासी, बेबसी, आह, तड़प ये सब तो खुदा की दी हुई तकलिफ है और उसने तो तुम से कुछ कहा भी नहीं है अपने परेशानियों के बारे तो तुम क्यों खामखाह उनके तरफ झाकोंगे लेकिन कभी देखो महसूस करों खानाबदोश की खामोशीयों को कितना कुछ कहता है। कितना चिल्लाता है। किताना आंसू टपकाता है। खानाबदोश की बेबस खामोशी.... 
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