Monday 27 October 2014

Posted by Gautam singh Posted on 05:55 | No comments

बचपन का सावन

बचपन इंसान के जिंदगी का सबसे हसीन और खूबशूरत पल होता है न कोई चिंता न कोई फिकर मां की गोद और पापा के कंधे न पैसे की चिंता न फियूचर की सोच। बस हर पल अपनी मस्तीयों में खोए रहना, खेलना कुदना और पढ़ना। बगैर किसी तनाव के, नन्हे होंठों पर फूलों सी खिलखीलाती हँसी, और मुस्कुराहट, वो शरारत, रूठना, मनाना, जिद पर अड़ जाना यही तो बचपन की पहचान है। सच कहें तो बचपन ही वह वक्त होता है, जब हम दुनियादारी के झमेलों से दूर अपनी ही मस्ती में मस्त रहते हैं

'ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो, बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी' मशहुर गजल गायक जगजीत सिंह की ये पंक्तियां उम्र की एक दहलीज पर किसी को भी भावुकता के समंदर में डूबोने या उतारने के लिए काफी है। लेकिन आज कल के बच्चों के जिंदगी में वो बचपन आता कहां है। नानी और दादी की गोद, पापा और दादा के कंधों की सवारी करने के उम्र में इन बच्चों के कंधों पर भारी बस्ता का बोझ टाँग दिया जाता है और बच्चों से खचाखच भरी स्कूल बस में डाल दिया जाता है। चकाचौंध संस्कृति व चमकदार सपनें बचपन की मासूमियत को जाने अनजाने में डसने लगे हैं। इन नन्हें-नन्हें मासूम चेहरों पर मुस्कान के बजाय उदासी गणित के पहाड़ों में खोने लगी और हम इसे बदले परिवेश के एक हिस्से के रूप में स्वीकार भी करने लगे हैं। बेखौफ तरीके से जीने वाला वो बचपन कहीं खोता जा रहा है।

चमचमाते अंग्रेजी स्कूलों ने बच्चों को अंग्रेजी बोलना तो सीखा दिया, मगर बुजुर्गों के प्रति संवेदनाएं और जीवन के प्रति आशाएं यह स्कूल नहीं सीखा पायें। जब वे माता-पिता की अपेक्षाओं में खरे नहीं उतर पाते तब वे हीन-भावना से ग्रस्त हो जाते हैं। परिणामस्वरूप बच्चे गलत राह की ओर अभिमुख हो जाते हैं। वे असंवदेनशील हो जाते हैं।  किशोरों में दिनोंदिन आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, जो वर्तमान समाज के लिए बहुत बड़ी चिंता का विषय है। इसीलिए वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए समाज को अपनी सोच में बदलाव की जरूरत है। ऐसे संक्रमणकाल में पल रहे बचपन को खोने से कैसे बचाएं, इस पर आज विचार करने की आवश्यकता है। चिंतन की प्रक्रियाओं में बदलाव की जरूरत है। बचपन को बचाने के लिए मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास करने की जरूरत है।  
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