Saturday 29 July 2017


सोशल मीडिया पर इन दिनों एक किताब की बहुत चर्चा हो रही है। तान्या। इसको लिखा है चमन मिश्रा ने। वैसे चमन मिश्रा से मेरी पहली मुलाकात 2015 में हुई। ना तो वह मेरे क्लासमेट रहे है और न ही मेरे जूनियर, लेकिन पहली मुकालात में जो एक रिश्ता कायम हुआ हुआ वह एक अटूट बंधन सा बंधा हुआ है। चमन को जब मैंने पहली दफा देखा था, तो वह बिल्कुल शांत, गंभीर और आंखों में किताबों की आग और लिखने की तड़प दिख रही थी और वह लगातार लिखते रहे वेबसाइड, फेसबुक, न्यूजपेपर के लिए तान्या उनका पहला उपन्यास है।  चमन मिश्रा नई वाली हिंदी लिखते हैं। आसान से आसान और बोलचाल की भाषा में जटिल मुद्दों को लिखना ही नई वाली हिंदी है। दिल्ली में किराए के कमरों में रहने वाले पलायनवादी लड़कों की इश्क़ वाली कहानियां लिखते हैं। किताब की प्री-बुकिंग चल रही है। तो लॉन्च होने से पहले ही तान्या का एक हिस्सा हम आपके लिए छाप रहे हैं। ये हिस्सा अर्नब गोस्वामी के सुपर एक्सक्लुसिव से भी ज्यादा एक्सक्लुसिव है। बकबुड़बक के सिवाय किसी के पास नहीं मिलेगा।

बिछड़न, इश्क़ और बनियागिरी

“तुम कब तक यूं ही किस्तों में प्यार करते रहोगे ?”
“किस्तों में कहां…? मैं तो थोक में प्यार कर रहा हूं। वैसे जिंदगी में और भी काम हैं, इश्क़ के सिवा!”
“तुम्हारे पास हमेशा ‘और भी’ काम ही रहे हैं। इश्क़ तो टाइमपास रहा है।”
“रियली, तो पिछले तीन साल से मैं ‘टाइमपास’ ही कर रहा हूं ! यार, गुस्सा मत करो। सेमेस्टर एग्ज़ाम हो गया। अब फ्री हैं, तो बात ही करनी है।”
“मुझे नहीं करनी कोई बात। गो इन हैल।” गुस्से वाली इमोजी के साथ तान्या ने रिप्लाई किया।
“एज़ यू विश, ओके, बाय।” प्रेम में आप गुस्सा कर सकते हैं, झगड़ सकते हैं। इंतजार नहीं कर सकते! इंतजार के पल तन्हा कर देते हैं। झगड़े के बावजूद रवि ने दस मिनट बाद ही तान्या को कॉल लगा ली।
“हैल्लो...! हाऊ आर यू…? रवि ने प्यार और लाड़ का कॉकटेल बनाकर बड़ी ही रूमानियत से बात की शुरूआत की।
“हू आर यू…? डोंट डिस्टर्ब मीं…आई एम बिजी…सो प्लीज़ डोंट ट्राई टू कॉल मी अगेन।” तान्या ने जैसे झुंझलाहट, गुस्साहट, मिसमिसहाट और भड़ास की अनुभूतियों का संयोजन करके रवि से कहा हो।
“सुनो तो जान, तुम मेरे व्हाट्स-एप्प पर नहीं दिख रहीं?”
“अब कभी दिखूंगी भी नहीं। स्वार्थियों से नफरत करती हूं मैं।” तान्या ने इतना कहकर कॉल कट कर दी। आज ही रवि को आभास हुआ, कि अंग्रेजी के दो सैटेंस में कितना वज़न होता है।

ये तान्या और रवि का पहला वर्चुअल स्पेस झगड़ा नहीं था, और शायद आखिरी भी नहीं। ऐसा होता रहता था। उस दिन रवि ने कई बार कॉल लगाई। तान्या ने ना तो नंबर ब्ल़ॉक किया और ना ही फोन पिक किया। इस लव चैटिंग की शुरुआत हुई थी, बारहवीं के बाद। स्कूल के हॉस्टल से निकलने के बाद, वो दोनो अलग-अलग यूनिवर्सिटी में थे।

दो अलग-अलग राज्यों में। ज़रिया बात करने का था सिर्फ मोबाइल। मोबाइल में फेसबुक, व्हाट्स-एप्प, वी चैट और भी कई एप्प जिनसे चैटिंग संभव थी। ये वो दौर था, जब छोटे शहरों तक व्हाट्स-एप्प और फेसबुक जैसे एप्प तेज़ी से ‘पलायन’ कर रहे थे। छोटे शहरों के लड़के बैंक अकाउंट के साथ-साथ फेसबुक एकाउंट भी खोलना शुरू कर दिए थे। बंटी, विपिन और मोनू जैसे कितने ही लड़के व्हाट्स-एप्प की इमोज़ियों और फ़िचरर्स को रॉकिट साइंस समझकर दिमाग भिड़ा रहे थे। शायरी की जगह इमोजियों का कैसे इस्तेमाल किया जाता है, इसका राजधानी दिल्ली से यूपी के बस्ती तक ट्रांसफोर्मेशन हो रहा था। 10 रूपए के नाइट कूपन की जगह अब 15 एमबी डाटा लिया जाने लगा था। इस समय तक भारत में राजनीतिक प्रोपेगेंडा के लिए फेसबुक का इस्तेमाल नहीं हुआ था।
नरेंद्र मोदी की दिल्ली में धमक सुनाई देने लगी थी। चर्चाएं शुरू हो रहीं थीं, कि बीजेपी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार किसे बनाएगी। नरेंद्र मोदी का नाम आगे आने पर नीतीश कुमार बीजेपी का साथ छोड़ने की धमकी दे रहे थे। कांग्रेस के भ्रष्टाचार और पंगु शासन से त्रस्त जनता पहली बार चुनावों का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। प्राइम टाइम एंकर जनता का मूड़ भांपने के लिए गांवों का मुआयना करने के लिए निकलने लगे थे। इसी राजनीतिक सक्रियता और उथल-पुथल के दौर में लखनऊ के तान्या और रवि की तरह बहुत सारे प्रेमियों की प्रेम कहानियां फेसबुक, व्हाट्स एप्प पर पनप रहीं थीं।

“हे…!” तान्या ने तीन दिन बाद रवि को अनब्लॉक करके मैसेज किया।
“हैलो..!” रवि ने इश्क़ वाले एटीट्यूट के साथ रिप्लाई किया, लेकिन बिना इमोजी के बिना एटीट्यूट मैसेज में नहीं दिखा।
“क्या हो रहा है ? खाना हो गया...?” तान्या ने बात को आगे बढ़ाने के इरादे से पूछा।
“हां, तुम्हारा ?” ‘खाना हो गया’ ये सवाल तान्या हमेशा पूछती थी और रवि हमेशा ही झूठ बोलता था। आज भी बोल
दिया।
“मैंने भी अभी खाया है।”
“तुमने पत्रकारिता क्यों चूज़ की ?” कन्वर्सेशन को नॉर्मल-वे पर लाने के लिए तान्या ऐसे सवाल अक्सर पूछने लगती थी।
“मैथमैटिक्स कमजोर था। सोचा कुछ ऐसा किया जाए जिसमें मैथ ना हो। गूगल पर सर्च किया। उसमें पत्रकारिता का विकल्प दिखा तो चूज़ कर लिया।” बड़े मकान के छोटे कमरे के फ़र्श पर बिछे हुए पुराने गद्दे पर लेटे-लेटे रवि ने जवाब दिया। कमरा उस वक्त बिल्कुल वैसा ही था, जैसा इंजीनियर्स का अमूमन होता है। अभी तक रवि गाज़ियाबाद में सैटल नहीं हो पाया था। गोविंदपुरम् में रूम की बातचीत चल रही थी। कुछ करने को था नहीं, तो अननॉन सीनियर्स के रूम में मोबाइल चार्जिंग पर लगाकर चैटिंग कर रहा था। कमरे में दो गद्दे और दो गद्दों पर चार लड़के। गद्दों की साइड वाले दोनों लड़के आधे से थोड़े ज्यादा फ़र्श पर ही थे। सभी के चेहरे पर चैटिंग के दौरान रिप्लाई करने वाली गंभीरता दिख रही थी।

कमरे के एक कोने में एक टेबल और टूट चुकी फिर भी यूज़ की जा रही एक चेयर रखी है। दूसरे कोने में रवि के दो बैग हैं। तीसरा और चौथा कोना खाली है। ये खाली कोने खुद को आज़ाद देश घोषित करते रहते हैं। महीने में एक-दो बार इंजीनियर्स का मूड़ बनता है, तो ये ‘आज़ाद मुल्क’ शराब की खाली बोतलों द्वारा कब्जा लिए जाते हैं। शराब हमेशा से साम्राज्यवादियों की फेवरिट रही है। हैंगर पर लटकी गंदी-सी जींस बिना बोले ही कह रही हो कि कुमार विश्वास की ‘कोई दिवाना कहता है’ बाद में सुनना पहले मुझे धुल दो। गंदी जींस में कोई कुमुदनी नहीं मिलेगी मचलने के लिए। कमरे में ‘ऊषा’ का फैन पूरी तरफ स्वस्थ है। फैन कमरे से सिगरेट के धुंए को बाहर निकालने में सक्षम साबित हो रहा था। लगभग सुंदर-सी दिखने वाली लड़की दरवाज़ा खोलकर अचानक से रूम के अंदर झांकने लगी।

 इस सीन को देखकर, कमरे के अंदर पहले से मौजूद तीन इंजीनियर और एक भावी पत्रकार टॉवल ढूंढने के लिए अपनी-अपनी नज़रों से कमरे को स्कैन करने लगे थे। वो बाई थी, लेकिन आंटी नहीं। सिचुएशन की गंभीरता को समझते हुए उसने दरवाजा बंद कर दिया। बाहर से ही ‘आटा ले आना’ बोल के वो चली गई।
“सुनो, फेसबुक पर नहीं व्हाट्स-एप्प पर बात करते हैं।”
“नहीं, फेसबुक पर ही करते हैं।”
“ओके, एज़ यू विश।”
क्लासेस के बाद रोज दोनों की घंटों फेसबुक, व्हाट्स-एप्प पर बातें होतीं थीं। फर्स्ट सेमेस्टर का रिजल्ट आ चुका था। तान्या के नंबर कम आए। रवि ने टॉप किया। टॉप करने का रवि का ये पहला अनुभव था। स्कूल मैं कई बार थर्ड रहा था, सैकेंड भी पर कभी फर्स्ट नहीं। आज फर्स्ट था, तो आईएमएस के रूम नंबर 201 में सैंट्रलाइज्ड एसी में बैठकर टॉपर होने की फ़ील ले रहा था। तब तक तान्या का मैसेज आ गया।
“मार्क्स तो कम आए यार।” साथ ही तान्या ने रोने वाली इमोजी भी भेजी थी।
“पढ़ाई करोगी नहीं, तो यही होगा। ये रोती हुई इमोजियां मेरे पास मत भेजा करो।” रवि ने झुंझलाहट के साथ रिप्लाई किया।
“ठीक है। अब मैं तुमसे बात नहीं कर पाऊंगी। अब मुझे सिर्फ पढ़ना है। बाय।”
इतना बोल कर तान्या ऑफलाइन हो गई। कुछ ही देर बाद उसके व्हाट्स-एप्प और फेसबुक अकांउट गायब थे। कुछ दिनों तक तान्या खुद को वर्चुअल-स्पेस से दूर करने की असफल कोशिश करती रही।

वक्त के साथ दोनों परिपक्व हो रहे थे। सेकेंड सेमेस्टर, थर्ड सेमेस्टर, फिर फोर्थ सेमेस्टर निकल गया। सेकेंड सेमेस्टर में अच्छे मार्क्स के बाद ही तान्या व्हाट्स-एप्प पर वापिस आ गई थी। डिस्टेंस रिलेशनशिप के लिए इस दौर में व्हाट्स-एप्प और फेसबुक उतने ही जरूरी हैं, जितने डेमोक्रेसी के लिए फ्रीडम ऑफ स्पीच। “सुनो, मैं दिल्ली आ रही हूं।” रात के 11 बजे तान्या ने मैसेज किया।
“क्यों…?” रवि का मैसेज ही जैसे कह रहा हो कि मत आओ।
“गेट का एग्ज़ाम देने, मिलोगे?” तान्या जानती थी, रवि मिलने की बात नहीं कहेगा इसलिए उसने खुद ही कह दी।
“क्या मिलना। इश्क़ में मिलकर क्या फायदा ?” रवि ने ना चाहते हुए भी ये रिप्लाई कर दिया।
“तुम इश्क़ में बनियागिरी क्यों करते हो यार ? मिल लोगे तो क्या हो जाएगा ?”
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Monday 24 July 2017


'म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के' फिल्म दंगल में अमीर खान के मुह से यह पंक्तियां सुने हमें अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। खेल कुश्ती भी है और क्रिकेट भी लेकिन बात यह है जब यह खेल लड़के खेलें तो ठीक है लडकियां इस खेल से दूर ही रहती हैं, लेकिन मिताली और उनके टीम भले ही महिला क्रिकेट विश्व पक हार गई हो वह दुनिया के सामने एक खुले मैंदान की जाबांज खिलाड़ी है। वह सब जानती है कि हार-जीत के बीच जो कॉमन चीज है खूल को पसीने में बदल देने की तरलता। वह लोग जानती है कि दोनों टीमों के खिलाडियों ने न जाने कितनी हजारों जाते कुंहासे से भरी सुबह इसके लिए झोंक दिया है।मिताली और उनके टीम ने मेहनत के बल पर जो खूबसूरत कहानी का निर्माण किया है।

उस पर 125 करोड़ देशवासियों को गर्व है। तुमने अपने बल पर ही आज अपना तुलना सचिन, कोहली, धोनी से करने पर विवश किया है। आज तुम्हें सम्मान दे रहे हैं कल अवश्य ही वो तुम्हें भूल जाएंगे। मिताली तुमलोगों अपनी मेहनत के बल पर एक बहुत खूबसूरत कहानी का निर्माण किया है। उसे सहेजना हमलोंगो कि जिम्मेदारी है। तुम आज वहां विदेश में तिरंगे का मान बढ़ा रही हो, मगर हमारे समाज की सच्चाई यही है कि भले ही वो तुमको देखकर क्षण भर के लिए खुश हो ले, मगर वो यही चाहता है कि उसके आस पास की औरतें वो करें, जो वो बरसों से करती चली आ रही है। विश्वास करना मेरा, एक महिला को गुलामी की जंजीरों में जकड़ने वाला ये समाज कभी नहीं चाहेगा कि बगावत करके उनके घर की लड़कियां, बहू, बेटियां तुम्हारे बताए हुए रास्ते पर चलने का प्रयास करें।

Tuesday 18 July 2017

Posted by Gautam singh Posted on 00:00 | No comments

आनंद मरा नहीं करते!

बाबू मोशाय! जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं।

"अरे ओ बाबू मोशाय! हम तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर उस ऊपर वाले के हाथों में हैं, कब, कौन, कहां उठेगा ये कोई नहीं जनता।"

आनंद मरा नहीं, आनंद कभी मरते नहीं। ये संवाद दरअसल दर्शन है जीवन का। एवरग्रीन एक्टर 'राजेश खन्ना' यानी काका उनका जीवन रंगमंच जैसा ही तो रहा। सितारों की ज़िन्दगी में जब तक तालियों की गढ़गढ़ाहट शामिल होती है तब तक उन्हें कुछ नहीं सूझता, लेकिन जब ये तालियों का शोर धीमा पड़ने लगता है तो मानो उनके जीवन के रंग भी फीके पड़ जाते हैं। उनका यह डॉयलोक उनके उस दर्द को दर्शाते है। "इज्जते, शोहरते, उल्फते, चाहते सबकुछ इस दुनिया में रहता नहीं आज मैं हूं जहां कल कोई औऱ था। ये भी एक दौर है वह भा एक दौर था।" जब तक स्टेज सजा था तब तक लोगों की भीड़ भी लगी हुई थी, जैसे ही मज़मा ख़त्म हुआ, काका अकेले रह गए। काका ही सिर्फ ऐसे अदाकार थे जिन्हें 'सुपरस्टार' का ख़िताब मिला।

काका अपने मासूम और सुंदर अभिनय में प्रेम रचते। उस दौर में राजेश खन्ना ने जो लोकप्रियता हासिल की, आज के जमाने में उसके आसपास भी कोई नहीं पहुंच सकता। तब के युवा खासतौर पर उनके जैसे कपड़े बनवाया करते उनके जैसे बाल रखते, उनके ऊपर फिल्माये गानों को गुनगुनाते। लड़कियों में उनको लेकर ऐसी दीवानगी थी कि उनकी एक झलक पाने लिए घंटों इंतजार करतीं। उस दौर में लड़कियां उन्हें खून से खत लिखा करती और उनकी फोटो से शादी तक कर लिया करती। काका की सफेद रंग की कार जहां रुकती थी, लड़कियां उस कार को ही चूमा करती। लिपिस्टिक के निशान से सफेद रंग की कार गुलाबी हो जाया करती थी। आज काका हमारे बीच नहीं है, उनके 'फैन्स' उनसे जुदा नहीं हो सकते! उनके फैन्स उनके ही रहेंगे यही तो काका ने पंखे वाले विज्ञापन में कहा था। काका भले ही ना हो लेकिन फ़िल्मों में निभाए गए अपने किरदारों से वह हमेशा अपने चाहने वालों के बीच बने रहेंगे। वैसे भी ‘आनंद’ मरा नहीं करते! वह तो उदासी में जीवन को अर्थ देते हैं।