Thursday 3 August 2017

Posted by Gautam singh Posted on 03:24 | No comments

प्यारी मां

प्यारी मां

तुम्हारे अथाह प्यार की खूबसूरती से मैं मिलों दूर तुम्हारे यादों के प्रकाश में यह खत लिख रहा हूं। तुम्हें खत लिखने से पहले हजारों दफा न जाने क्या-क्या लिखा और न जाने क्या-क्या मिटाया। कितना मुश्किल होता है मां अपने ही लिखे को मिटाना। तुमको पता है मां मैंने अपने दर्द को नहीं लिखा, मैंने शिकायते नहीं लिखी, लेकिन फिर भी मैंने हजारों खतों को मिटा डाला। यह खत मेरी जिन्दगी की सच्चाई है मां मुझे अपने ही लोगों ने हशिये पर ला कर खड़ा कर दिया है। मैं जिन लोगों को आंखों पर बैठाकर रखता था उन्होंने ही मेरे साथ छल किया है। मैं उनलोगों के बीच रहते-रहते एकदम खाली हो गया हूं मां। ठीक वैसे ही जैसे शराब की बोतल खाली होता है और खाली बोतल को जहां लोग फेकते है आज मुझे भी वहां फेक दिया गया है। कोई नजर तक उठा कर नहीं देखता।

सोचा था मां तुम्हें सब अच्छा-अच्छा लिखू पर नहीं लिख पा रहा हूं। जो सच है वह बता देना चाहता हूं। किताबों कि दुनिया में रहते-रहते इंसानों को पढ़ना ही भूल गया मां... कोल्ड ड्रिंक की बोतल से लेकर मंदीर की घंटी तक में मैंने शांति को खोजा है। हर रोज किताबों के बीच से कई सवाल मेरे सामने बाहें फैलाए खड़े हो जाते है मां उस वक्त मेरे पास कोई जवाब नहीं होता और मैं फिर शान्ति के प्रयास में भटकने लगता हूं, लेकिन कुछ दिखाई नहीं देता अगर कुछ दिखाई पड़ता है तो बस किताबों से भरा पड़ा एक कमरा, अगर कुछ महसूस होता है तो किताबों की गंध और उस गंद में गिरता-उठता मैं। मां मैं दिन पर दिन एक बेकार आदमी होता जा रहा हूं। मेरे पास अब न सोचने की शक्ति बची है और न ही समझने की चाह।


अब बस ऐसा लगता है मां कि मैं किसी ऐसी इमारत के रचना में लगा हूं जिसके कमजोर कारिगरियों के चलते नियती में गिरना लिखा कर लाया हो। अब मुझे नींद भी नहीं आती मां राते करवटे फेरते कट जाती है। स्लीपिंग पिल्स की तीन-तीन गोलियां भी मुझे नींद नहीं दे पाती सारी रात शान्ति के प्रयास में अकुलाते हुए कट जाती है। यह जागरण, यह उनींदापन एक अजीब सी खौफ मेरे अंदर पैदा कर रहा है। अब इतनी भी शक्ति नहीं रहा मां की अपने कमरे के बाहर वाले मैदान का मैं एक चक्कर लगा सकूं... जो दिल कभी एक अजीब सी सुखानुभूति से भरा होता था। वह आज यू ही धड़कता है, देह यूं ही पसीजता है, नसे यू ही खिचता है। देह की भाषा भी भूल गया हूं मां....


मेरा जीवन शरदचंन्द्र की उपन्यास देवदास के जैसे होते जा रही है मां जिसमें कहानी या क्लाइमेक्स की बजाय जीवन किसी की चाह में भारी होते जाता है ठीक वैसे ही मेरा जीवन उभ भरी यात्रा मात्र रह गया है। दिन की खालीपन मुझे थका देती है मां... रात में मुझे नींद नहीं आती और जब मैं किताबों से उबने लगता हूं तो रात के घोर अंधेरे में अपना लैपटॉप ऑन कर लेता हूं। गूगल पर मरने का आसान तरीके खोजने लगता हूं। फिर एका-एक मेरे अंदर अजीब सा डर सामाहित हो जाता है मैं डर के मारे नेट बंद कर देता हूं। मैं यह जातने हुए की मौत बहुत ही खूबसूरत है फिर भी डर जाता हूं। यह डर कैसा है मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है। शायद मैं डरता हूं। खुद को मारने से लेकिन अपने-आपको मारने से कही अजीब है अकेले मर जाना मां....
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