Thursday 18 June 2015

राजनीति जिसका अर्थ है राज की नीति। नीति भी ऐसी जो सबका साथ, सबके विकास की न्याय राह पर चले। यानी न्याय के साथ विकास। यह कोई नरेंद्र मोदी या नीतीश कुमार के राजनीतिक नारों का प्रचार नहीं है। बल्कि "न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है।" राजधर्म भीष्म पितामह से अटल विहारी वाजपेई तक अपना असल अर्थ खोज रहा है। पितामह ने राजधर्म में निरंतर पूरुषार्थ और उसके जरिए जनकल्याण को राजा का पहला और महत्वपूर्ण कर्तव्य माना, और कहा कि राजा ऐसा हो जो प्रजा के हित में सोचे समझे। उनके लिए काम करे और समाज के हर वर्ग को प्रत्येक कार्यक्षेत्र में समान अवसर प्रदान करें, लेकिन आज राजनीति का स्वरूप बदलता जा रहा है। राजा से नेता बने सामाजिक कार्यकर्ता की नीति बदल गई है। और उनकी कार्यशैली बदल गई है। सब नेता अर्जुन बन गए हैं। जिनका एक ही लक्ष्य है मछली की आंख की जगह, सत्ता की कुर्सी हथियाना। किसी भी कीमत पर। साध्य को साधने के लिए साधन चाहे जो हो।

हम जो आज राजनीति देख रहे हैं। वह कायदे से राजनीति भी नहीं है, बल्कि "कुनीति" है! जिसमें ना देश का हित होता है, और ना ही जनहित। यहां बस लुट की प्रतिस्पर्धा होती है। यह पुरे भारत के संदर्भ में देखने को मिल जाता है। पर, सामाजिक और राजनीतिक रूप से सबसे संवेदनशील और जागरूक राज्य बिहार की बात करें तो चुनावी राजनीति की जनप्रयोग-शाला में आवाम पर आम और लीची भारी पड़ रहा है। जो कभी एक दूसरे को सुहाते नहीं थे आज गलबहियां डाले हुए हैं। राजनीति के इसी रूप को बिहार में देखा जा सकता है। जहां सुशासन बाबू को आवाम की चींता से ज्यादा आम की चिंता सता रही है। कभी बिहार का इतिहास ही भारत का इतिहास हुआ करता था। गौरवमयी इतिहास-परंपरा को देखे तो बिहार, जहां विश्व का सबसे पहला गणतंत्र ''लिच्छवी'' गंगा की इसी पवित्र ज़मीन पर सांस ले रहा था। तब शायद किसी ने गणतंत्र की कल्पना भी नहीं की होगी। वहीं अगर हम बात करें वैदिक काल की तो गंगा के उत्तरी किनारे पर बसा विदेह राज्य, जहां सीता का जन्म हुआ। महर्षि वाल्मिकि ने बिहार में रहकर ही रमायण की रचना की। महात्मा बुद्ध को बिहार में ही महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई, और वोद्ध धर्म का केंन्द्र भी बिहार को ही माना गया।

जैन धर्म के 24वें तीर्थकर भगवान महावीर का जन्म बिहार में ही हुआ। सिक्खों के 10वें गुरु, गुरु गोविंद सिंह भी पटना में ही पैदा हुए। भारतीय इतिहास के महानतम शासक सम्राट अशोक, सर्जरी के जन्मदाता महर्षि सुश्रुत, गणित का विशव को ज्ञान देने वाले आर्यभट्ट, राजनीति और कुटनीति का पाठ पढ़ाने वाले चाणक्य इसी बिहार की धरती पर उपजे, और जब देश गुलामी की जंजीरों से जकड़ा हुआ था। तो महात्मा गांधी ने देश को आजाद कराने के लिए चम्पारन सत्यग्रह और भारत छोड़ अंदोलन की शुरुआत इसी पवित्र धरती से की। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो स्वतंत्रता के बाद भी देश की राजनीति में बिहार की बहुत ही अहम भूमिका रही। इंदिरा गांधी की तानाशाही का सबसे पहला विरोध बिहार में ही हुआ। जय प्रकाश के नेतृत्व में, इंदिरा सरकार की कुनीतियों के खिलाफ एक बड़ा मोर्चा था, और यही कारण रहा की 1977 में इंदिरा विरोधी जनता पार्टी सत्ता में आई जो जेपी आंदोलन का ही सीधा असर था।

जब श्रीकृष्ण बाबू बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने तो उनके नेतृत्व में बिहार देश का सबसे व्यवस्थित राज्य बना, लेकिन धीरे-धीरे जाति आधारित राजनीति ने बिहार में अपनी जड़े जमानी शुरू कर दी। जिससे राज्य के हालात बिगड़ते गए। उसी का असर आज बिहार में देखने को मिल रहा है। जिस पुलिस बल को जनता की सेवा में तैनात किया जाता है। उन्हीं पुलिसवालों को आम और लीची के पेड़ों की सुरक्षा मे तैनात किया जा रहा है। वहीं 2012 के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि बिहार में 1492 लोगों की सुरक्षा एक पुलिसवाले के जिम्मे है। यानी 1 लाख लोगों की सुरक्षा में 67 पुलिस वाले तैनात है। जो देश में सबसे कम है। तो वही सुशासन बाबू ने 4 पेड़ों की रखवाली के लिए 1 पुलिसवाले की तैनाती की हुई है। इस पर सूबे के मुखिया नीतीश कुमार कहते हैं कि उनकी सरकार को आवाम की चींता है न की आम की। दरअसल बदले समीकरणों के बीच बिहार जंगल राज बनाम सांप्रदायिकता की युद्ध भुमि बन रहा है। देखना है कि राजनीति के कितने रंग बन-बिगड़ रहे हैं। सभी नेता बिहार की मजबूत एतिहासिक विरासत की बात तो करते हैं, लेकिन पता नही उसे मान क्यों नहीं देते ? जाति-उपजाति की लड़ाई आखिर बिहार का भविष्य कैसे उज्जवल बना सकती है।