Saturday 31 December 2016

वक्त की शाखा से सोलह का पत्ता टूट कर गिर गया है। कलेवर बदलेगा या नहीं क्या पता मगर कैलेंडर तो बदल चुका है। दो हजार सोलह के पहले सूरज को देखकर किसने सोचा होगा कि वक्त इतना बेरहम होगा कि देश में नोटबंदी को लेकर सौ से ज्यादा लोगों को अपनी जान गवानी पडेगी। किसने सोचा होगा की अखिलेश को उनके ही पिता पार्टी से बेदखल कर देंगे। समाजवादी कुनबा में दंगल होगा। एक आतंकवादी के मारे जाने पर पूरा घाटी आग में जलने लगेगा। सेना के कैंपो पर आतंकी हमला जैसे कई छोटे-बड़े मुद्दे को लेकर लोग घाव गिनते रह जाएंगे। काल का गाल बड़ा विकराल है और समय की अपनी एक निपट अबूझ, अप्रत्याशित और शाश्‍वत गति है। इसलिए तारीख बदलने से अतीत कभी नहीं मरता। वह तो वर्तमान के तलवे में कांटे की तरह धंसा है। सोलह की चोटों से सतरह जरुर लंगड़ायेगा। मगर हमें भरोसा रखना चाहिए, यही वक्त उन चोटों पर मरहम भी लगायेगा।

सोलह की शुरूआत ही आंतक के साये में हुई। जब आतंकवादियों ने पठान कोट पर हमला किया और हर बार की तरह इस बार भी हमले की साजिश हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में रची गई। इस पूरे घटनाक्रम में पंजाब पुलिस की लापरवाही खुलकर सामने आई। तो वहीं आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद पूरी घाटी आग में जलते हुए दिखी। इस साल ही सितम्बर में जम्मू-कश्मीर के उरी में आर्मी हेडक्वॉर्टर पर आतंकी हमले में बीस जवान शहिद हो गए और इस बार भी हमले की साजिश पाक में ही रची गई। जिसके बाद आम लोगों में पाकिस्तान के खिलाफ बदले की भावना आग की भांती जलने लगी और भारी जन-दवाब के बाद हमारे सैनिको ने वह कर दिखाया जो आजाद भारत में पहले कभी नहीं हुआ। हमारे सैनिकों ने इस हमले का बदला लेते हुए पाक अधिकृत कश्मीर में घुस कर सात आतंकी शिविर को तहस-नहस कर दिया जिसमें कम से कम 50 आतंकी मारे गए। तो वही इस साल देश के अंदर राष्ट्रविरोधी नारे भी सुनने को मिले जब देश की सबसे प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में देश के खिलाफ नारे लगे। तो इसी साल पूर्व वायुसेना प्रमुख केसी त्यागी को जेल जाना पड़ा।

तो वहीं दूसरी घटना बुलंदशहर में घटित हुई जब एक मां-बाप के सामने बच्ची के साथ गैंग रेप की किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काले धन और आतंक पर लगाम लगाने के लिए पांच सौ औऱ हजार के नोटों को बंद कर दिया औऱ आजाद भारत में पहली बार लोग काम-काज छोड़ बैंकों के सामने लाइन में लगे मिले। इस नोटबंदी में सौ से ज्यादा लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी। तो वहीं इस साल समाजवादी कुनबे में मची कलह भी देश के लोगों ने देखी। जहां पिता भाई के मोह में अपने ही बेटे और यूपी के सीएम को पार्टी से निकाल देते है। तो वहीं अम्मा (जयललिता) हमारे बीच नहीं रही उनकी मौत की खबर ने सैकड़ों लोगों की जान ले ली ये कुछ घाव है जो हमें सोलह दे कर जा रहा है लोग इन घाव को गिनते रह जाएंगे। ताऱिख जरूर बदल रही है पर अतीत कभी मरता नहीं वह तो वर्तमान के तलवे में कांटे की तरह धंसा है। सोलह की चोटों से सतरह जरुर लंगड़ायेगा। मगर हमें भरोसा रखना चाहिए, यही वक्त उन चोटों पर मरहम भी लगायेगा।

Sunday 25 December 2016

भूख और डर से, निरक्षरता और अभाव से मुक्त भारत का सपना देखने वाले अटल बिहारी वाजपेयी समकालीन भारतीय राजनीति का 'ग्रैंड ओल्ड मैन' वर्तमान में भारतीय राजनीति के 'भीष्म पितामह' वाणी में प्राण और प्राण में प्रण लेकर पैदा हुए अलट बिहारी वाजपेयी शुरू से ही कवि थे। उनका रचा हुआ। बाधाएँ आती हैं आएँ घिरें प्रलय की घोर घटाएँ, पावों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ, निज हाथों में हँसते-हँसते, आग लगाकर जलना होगा। क़दम मिलाकर चलना होगा। आज के दौर में सबसे ज्यादा जरूरत है। जराजनीतिक अफरा-तफरी और अराजक आरोपों के दौर में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे अजातशत्रु राजनेता की सक्रियता बहुत जरूरी महसूस होती है। उनके व्यक्तित्व का ही यह चुम्बकीय गुण था कि वैचारिक दृष्टि से विपरीत ध्रुव वाले राजनेता और दल भी उनके साथ आ जुडने के लिए कभी संकोच नहीं करते थे। लिखने पढ़ने के शौक के लिए जाने-जाने वाले भारत रत्न वाजपेयी आज अखबार भी नहीं पढ़ पा पाते बेहतरीन कवि, महान नेता और सफल पीएम के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले अटल बिहरी बाजपेयी खराब स्वास्थ के कारण राजनीतिक दुनिया से बहुत दूर है पर उनके आदर्श और बातें आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं। तभी तो कभी उनकी खड़ाऊ तो कभी उनकी चिठ्ठी लोगों के जीतने का कारण बनती है।

Friday 23 December 2016

तैमूर एक ऐसा नाम जिससे सारे सोशल साइट (फेसबुक, ट्वीटर, से लेकर वाट्स एप) वाले घबरा गए है। पूरे देश में तैमूर को लेकर बहस छिड़ी हूई है। क्या किसी बुरे शख्स का नाम रखने से जरूरी तो नहीं वह बच्चा भी बुरा ही हो? और यह भी जरूरी नहीं की राम, कृष्ण, शंकर या गौतम नाम रख लेने से वह मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जैसा ही हो या कृष्ण नाम रख देने से वह भगवान कृष्ण जैसा ही हो या शंकर रख देने से वह जहर का प्याला पीकर संसार को बचाए या गौतम नाम रख देने से गौतम बुद्ध वाला ही विचार उसके अंदर हो, इस बात की कोई गारंटी दे सकता है क्या? भारतीय सविधान के अनुसार अपने बच्चे का नाम खुद चुनेन और रखने की आजादी है और हर मां बाप अपने बच्चे का नाम सबसे ज्यादा माथापच्ची करके रखते है।

सैफ और करीना ने भी रखा- तैमूर अली खान पटौदी। तो क्या बुराई है इस नाम में? वैसे भी तैमूर का तमलब होता है। फौलाद या लोहा हम इसे इस नजरियें से क्यों न देखे वैसे भी जिस शख्स को लेकर इस नाम पर इतना बहस हो रहा है। वह शख्स अपने बुरे कर्मो की वजह से जाना जाता है। नाम की वजह से उसने ऐसा काम किया हो ऐसा तो नहीं हो सकता। हां हिंसक, क्रूर, बलात्कारी, हत्यारा, लुटेरा कोई शख्स हो सकता है, पर नाम नहीं। हम लोग बचपन से पढ़ते या सुनते आए है। अच्छे काम करों नाम कमाओं इससे तो एक बात साफ है। काम से नाम होता है न की नाम से काम अगर नाम से काम की पहचान होता तो बाबर, सिकंदर जैसे नाम वाले लोग कितने लोगों का नरसंहार कर चुके होते। रावण के बेटे का नाम भी अक्षय था तो क्या अक्षय नाम लेते ही हमें रावन का बोध होता है क्या? अभी अक्षय का नाम आते ही हमारे दिलो-दिमाग में वॉलीबुड के खिलाड़ी कुमार का चेहरा परत दर परत उभरने लगता है।

तो क्या उसके उपर रावण के बेटा होने का कोई धब्बा लगा है क्या? 16 दिसंबर की रात देश को तार-तार कर देने वाला निर्भया कांड में निर्भया के साथ बलात्कार करने वालों में शामिल आरोपियों में से एक आरोपी का नाम राम सिंह था। तो क्या अब यह नाम रखने का भी वैसा ही विरोध किया जाएगा, जैसा विरोध सैफअली खान और करीना के घर जन्मे बच्चे के नाम पर हो रहा है? नाम से अगर किसी व्यक्ति के अच्छे-बुरे गुण शख्सियत में शामिल होता तो आज विश्व के हालात ही कुछ और होते। तैमूर बड़ा होकर खून-खराबा करेगा या आने वाली पीढ़ी उसकी फिल्मों का बेसब्री से इंतजार करेगी…यह तैमूर अली खान के कर्म तय करेंगे, न कि उसका नाम। इसलिए इस संभावना को बल क्यों ना दिया जाना चाहिए कि जब तैमूर की बात हो तो तैमूर लंग नहीं तैमूर अली खान की तस्वीर हमारे जहन आए...

Thursday 22 December 2016

तुम तक मेरा खामोश सलाम पहुंचे। तुम खोमोश, मैं खामोश, ऐसा प्रतित हो रहा है जैसे पूरा दुनिया खामोश। एक लाश की भांती शांत, ठंठा और अकड़ा हुआ कितना भयानक है ये सन्नाटा! कलम भी कितनी खामोशी से चल रही है... इसके लिखे अक्षर भी कितने खामोश है। इन अक्षरों का कोहराम नहीं रहे मेरे...घर के दरवाजे पर ठहरा हुआ, तेरी आहट का साया कच्ची नींद से अक्सर रात में, इसने हमें जगाया है। जालिम तुम क्या चुप हुई, जीवन का संगीत ही थम गया, हर साज चुप, हर आवाज चुप... मैं गाता भी हूं तो मेरा आवाज चुप किसी तीर की तरह और उसे घायल कर देती है। अब चिड़ियों का चहचाना या कोयल का गाना कानों में अमृत नहीं विष घोलती है। पर ये बिना बोले रह भी तो नहीं सकते पर इनकी हर आवाज मुझे कचोटती है... कितना अच्छा होता तुम बोलती ये खामोश रहते ये खामोशी मुझे प्रिय होती, यदि सिर्फ तुम बोलती और सारी प्रकृति चुपरहती। तुम्हारे स्वरों में प्रकृति के हर स्वर का अनुभव कर लेता मैं। मगर सारी प्रकृति बोल रही है और तुम खामोश और स्थिर हो पत्थर की भांती....
कभी देखा, सुना या महसूस किया है खानाबदोश की खामोशी को...गरिबी की चादर लपेटे हाड़ तक कपकपा देने वाली सर्द भरी रातों में टिमटिमाते तारे और खुले आसमां के बीच दिलो और दिमाग को जमा देने वाले ठंड में कैसे जीते है। कभी उनके अंदर उठते गहरे समंदर के लहरो को कभी देखने की कोशिश की है। कैसे बेबस आंखे सर्द में डुबी खौफनाक सन्नाटे के बीच रात में खुले आसमान में शुन्य की ओर निहारती है। कैसे जरा-जरा सांस लेते हुए प्रतीत होता है। सुनों कभी तुमने महसूस किया है उनकी खानाबदोश गरिबी को, उनकी बेबसी को, उनके तड़प को, उनकी आह को, उनकी असहन पीड़ा को... तुम्हें क्या पड़ी है उनके इस सारी तकलीफों को महसूस करने की... क्योंकि तुम सोचते हो, गरिबी, उदासी, बेबसी, आह, तड़प ये सब तो खुदा की दी हुई तकलिफ है और उसने तो तुम से कुछ कहा भी नहीं है अपने परेशानियों के बारे तो तुम क्यों खामखाह उनके तरफ झाकोंगे लेकिन कभी देखो महसूस करों खानाबदोश की खामोशीयों को कितना कुछ कहता है। कितना चिल्लाता है। किताना आंसू टपकाता है। खानाबदोश की बेबस खामोशी.... 

Thursday 15 December 2016

Posted by Gautam singh Posted on 02:59 | No comments

बाल विवाह एक अभिशाप

बचपन इंसान के जिंदगी का सबसे हसीन और खूबसूरत पल होता है न कोई चिंता न कोई फिकर मां की गोद और पापा के कंधे न पैसे की चिंता न फ्यूचर की सोच। बस हर पल अपनी मस्तियों में खोए रहना, खेलना कुदना और पढ़ना। बगैर किसी तनाव के, लेकिन प्रत्येक बच्चा इतना खुशनसीब नहीं होता। हमारे समाज में कई बुराइयां है, जिनमें से एक है बाल विवाह। जो बच्चों से उसका बचपन छीन लेता है। बचपन एक फूल की भांति होता है। जिसमें मासूमियत के अलावा और कुछ नहीं होता। वो जीवन स्वार्थ से परे होता है, लेकिन हमारे समाज में कुछ स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ के लिए बच्चों की मासूमियत छीन लेते हैं।

जहाँ आज की भागती-दौड़ती जिंदगी में युवा पीढ़ी शादी से घबराती है तो वहीं इन छोटे-छोटे बच्चों को जीवन के इस बंधन में बांध देते हैं। जिस उम्र में इन बच्चों को खेलना-कुदना, पढ़ना-लिखना चाहिए, उन्हें शादी जैसे ताउम्र साथ निभाने वाले बंधन में बांध दिया जाता है। हमलोग बचपन से ही किताबों में पढ़ते आए हैं कि 'एक सफल जीवन के लिये खुशहाल बचपन बहुत जरूरी है', लेकिन ऐसे में खूशहाल जीवन कैसे होगा? जिसका बचपन ही विवाह जैसे भारी-भरकम रिश्तों से बांध दिया जाता हो।


विवाह एक ऐसा रिश्ता है जिसके लिए लड़का और लड़की दोनों को मानसिक और शाररिक रूप से तैयार होना बहुत जरूरी होता है। पर जिस उम्र में इन बच्चों का विवाह कराया जाता है, उस उम्र में यह पता ही नहीं होता कि शादी आखिर होती क्या है? जिसके कारण आने वाले पीढ़ी से लेकर खुद जच्चा और बच्चा दोनों की जान खतरे में बनी रहती है। 2007 में जारी यूनीसेफ की एक रिर्पोट के अनुसार भारत में औसतन 46 फ़ीसदी महिलाओं का विवाह 18 वर्ष होने से पहले ही कर दिया जाता है, जबकि ग्रामीण इलाकों में यह औसत 55 फ़ीसदी है। हालांकि पिछले 20 वर्षों में देश में विवाह की औसत उम्र धीरे-धीरे बढ़ रही है, लेकिन बाल विवाह की कुप्रथा अब भी बड़े पैमाने पर प्रचलित है, जिसका मूल कारण हैं लिंग भेद और शिक्षा की अव्यवस्था।

2001 जनगणना के मुताबिक़ राजस्थान देश के उन सभी राज्यों में सबसे ऊपर है, जिनमें बाल विवाह की यह कुप्रथा सदियों से चली आ रही है। राज्य की 5.6 फ़ीसदी नाबालिग आबाद विवाहित है। इसके बाद मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा, गोवा, हिमाचल प्रदेश और केरल आते हैं। यहां इतनी छोटी उम्र में विवाह जैसे पवित्र रिश्ते से बांध दिए जाते है जिसे अभी चलना तक भी नहीं आता। आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी हमारे देश की स्थति ज्यों की त्यों बनी हुए है। एक तरफ जहां हम चांद और मंगल पर पहुंच रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ बाल विवाह जैसी कुप्रथा को हम खत्म नहीं कर पाए हैं।

बाल विवाह को रोकने के लिये अंग्रेजी हुकुमत ने 1928 में शारदा एक्ट बनाया जिसके अन्तर्गत नाबालिक लड़के और लड़कियों का विवाह करने और कराने पर जुर्माना और कैद रखा, लेकिन इसके वाबजूद बाल विवाह हमारे समाज में खुए आम होते रहे। इसको रोकने के लिए सन्र 1978 में संसद द्वारा बाल विवाह निवारण कानून में संसोधन कर इसे पारित किया गया। जिसमे विवाह की आयु लड़कियों के लिये 18 साल औए लड़को के लिये 21 साल निर्धारित की गई। इसके बाद सरकार द्वारा बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 पारित किया गया। ये अधिनियम बाल विवाह को आंशिक रुप से सीमित करने के स्थान पर इसे सख्ती से प्रतिबंधित करता है। लेकिन हमारे देश की यह विडंबना ही है की जिस देश में महिलाओं को देवी माना जाता हो जिस देश की महिलाएं राष्ट्रपति जैसे पद पर आसीन रही हो वहां बाल विवाह जैसी कुप्रथा के चलते बालिकाएं अपने अधिकारों से वंचित रह जाती है। बाल विवाह एक सामाजिक समस्या है। इसका निदान सामाजिक जागरूकता से ही संभव है। आज युवा वर्ग और हर वर्ग को आगे आकर इसके विरुद्ध आवाज उठानी होगी। तब जा कर देश से बाल विवाह जैसे दंश का विनास होगा।


मेरी तलाश अभी जारी हैं ....मुझे मेरे सफर का अभी अंजाम नहीं मिला
जिस्मों की भीड़ हैं हर तरह .... मुझे एक भी जिन्दा इंसान नहीं मिला