Thursday 22 December 2016

तुम तक मेरा खामोश सलाम पहुंचे। तुम खोमोश, मैं खामोश, ऐसा प्रतित हो रहा है जैसे पूरा दुनिया खामोश। एक लाश की भांती शांत, ठंठा और अकड़ा हुआ कितना भयानक है ये सन्नाटा! कलम भी कितनी खामोशी से चल रही है... इसके लिखे अक्षर भी कितने खामोश है। इन अक्षरों का कोहराम नहीं रहे मेरे...घर के दरवाजे पर ठहरा हुआ, तेरी आहट का साया कच्ची नींद से अक्सर रात में, इसने हमें जगाया है। जालिम तुम क्या चुप हुई, जीवन का संगीत ही थम गया, हर साज चुप, हर आवाज चुप... मैं गाता भी हूं तो मेरा आवाज चुप किसी तीर की तरह और उसे घायल कर देती है। अब चिड़ियों का चहचाना या कोयल का गाना कानों में अमृत नहीं विष घोलती है। पर ये बिना बोले रह भी तो नहीं सकते पर इनकी हर आवाज मुझे कचोटती है... कितना अच्छा होता तुम बोलती ये खामोश रहते ये खामोशी मुझे प्रिय होती, यदि सिर्फ तुम बोलती और सारी प्रकृति चुपरहती। तुम्हारे स्वरों में प्रकृति के हर स्वर का अनुभव कर लेता मैं। मगर सारी प्रकृति बोल रही है और तुम खामोश और स्थिर हो पत्थर की भांती....
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