Sunday 29 January 2017


प्रिय निधी

तुम तक मेरा खामोश सलाम पहुंचे। तुम खोमोश, मैं खामोश, ऐसा प्रतित हो रहा है जैसे पूरा दुनिया खामोश। नदियों के कलरव से लेकर पत्तियों की चरमराहट तक सब खामोश...एक लाश की भांती शांत, ठंठा और अकड़ा हुआ कितना भयानक है ये सन्नाटा! कलम भी कितनी खामोशी से चल रही है... इसके लिखे अक्षर भी कितने खामोश हो गए है। इन अक्षरों के कोहराम नहीं रहे.....घर के दरवाजे पर ठहरा हुआ, तेरी आहट का साया कच्ची नींद से अक्सर रात में, इसने हमें बार-बार जगाया है।



प्रियतमा तुम क्या गई मेरे जीवन से..., जीवन का सारा संगीत ही थम गया, हर साज चुप, हर आवाज चुप... मैं गाता भी हूं तो मेरा गीत चुप किसी तीर की तरह उसे और भी ज्यादा घायल कर देती है। अब चिड़ियों का चहचाना या कोयल का गाना कानों में अमृत नहीं विष घोलती है। पर ये बिना बोले रह भी तो नहीं सकते, इनकी हर आवाज मुझे कचोटती है... कितना अच्छा होता तुम बोलती ये खामोश रहते ये खामोशी मुझे प्रिय होती। सिर्फ तुम बोलती और सारी प्रकृति चुपरहती। तुम्हारे स्वरों में प्रकृति के हर स्वर का अनुभव कर लेता मैं। मगर सारी प्रकृति बोल रही है और तुम खामोश और स्थिर हो पत्थर की भांती...


बहुत दिनों से सोचा था तुम्हें एक खामोशी भरा खत लिखू पर अब खत लिखा भी नहीं जाता..... तुम्हारे बिना लिखना ही अच्छा लगता है। हर बार ये शब्द ही तो होते है... हमारे सेतु बस गिने चुने सीमायें ओढ़े....एक आहट धुंधली-धुंधली हां और ना के बीच डोलती हुई....वो कुछ जो लिखा ही नहीं गया हो अब तलक...जो कहा ही नहीं गया हो अब तलक पर उभर रहा है। इस तरफ भी और शायद उस तरफ भी अदृश्य इस छोर से उस छोर तक महसूस होता हुआ महफूज होता हुआ कुछ पनप रहा है शायद। इन खामोशियों के बीच जिसको मैं समझ रहा हूं और तुम भी समझ रही हो...

तुम्हारे आने की आहट ने मुझे बार-बार बेचैन किया है...तुम्हारी यादे अब बे-मौसम बारिश की तरह हो गई है। जो मुझे किसान की तरह कभी भी बर्वाद कर देती है और तुम भी सरकार की तरह मुझे कोई मुआवजा नहीं देती....तुम्हारी बेवफाई ने मेरी दुनिया में गदर मचा रखा है। मेरी दुनिया के हर चौराहे पर तेरी ही बेवफाई का चर्चा है। हर कोने से एक ही प्रशन चिख-चिख कर पुछ रहा है कि तुम बेवफा क्यों हुई....पर मैं जानता हूं तुम बेवफा नहीं हो सकती...वो लड़की बेवफा कैसे हो सकती है जिसने मुझ जैसे बेवकूफ को जीना और लड़ना सिखाया है। जिसने दिल्ली जैसे शहर में अपना बनाया हो....अगर तुम बेवफा नहीं हो तो फिर कौन बेवफा है....मैं....नहीं शायद वह आईना बेवफाई कर रहा है जो कभी हमने देखा था... हम दोनों ने एक रेखाचित्र खींचा था.. इस शहर में चलते हुए जब भी इस शहर से निकलना चाहता हूं कोई न कोई यादे मुझे लौटा लाती है। मैं तुम्हें हर लैंप पोस्ट पर खड़ा पाता हूं। हर बस से लेकर मेट्रो की सीट पर तुम्हीं बैठे लगती हो। कितना कुछ छूट गया हमारे मिलने में न?

अब तुम नहीं हो पर तुम्हारी यादो पर पेहरा कैसे लगाऊ...ये यादे कभी भी आकर मुझे तन्हा और खामोश कर देता है। उस तन्हाई और खामोशी में कितनी तड़प, आह, पिड़ा और लाचारी है यह मैं तुम्हें कैसे बतांऊ पर मैं तुम्हें लिख रहा हूं क्यों लिख रहा हूं और क्या लिख रहा हूं नहीं पता....लेकिन फिर भी लिख रहा हूं क्योंकि तुम्हारे बिना लिखना ही अच्छा लगता है। अल्फाज तुम तक पहुंचने के कदमों के निशान लगते हैं। डर लगता है कोई पीछे पीछे हमारी बात न सून ले।

अब हम दो भागों में बंट गए हैं। तुम पूने और मैं दिल्ली, तुम वहां मैं यहां। मैं बस यही लिखना चाहता हूं कि कम से कम पढ़ना तो रोना मेरे लिए। मेरे खामोशी और लाचारी के लिए। मैं भी रोना चाहता हूं। अपने सर्टिफिकेट पर खड़े अरमानों की इमारत की छत पर जाकर। मैं चाहू तो तुम्हें फोन या मैसज कर सकता हू फिर सोचता हूं तुम्हारे लिए लिखने से अच्छा है 'तुम्हे' लिखूं। हो सकता है ये खत तुम तक पहुंचे या न पहुंचे... कभी इतना वक्त लग जाए कि सियाही ही मिटने लगे। किसे पता ये खत तुम तक पहुंचने से पहले डाकिया पढ़ ले। बड़ा जालिम होगा वो। देखो यहां भी मैं लाचार हूं, बेबस हूं... शायद इसीलिए तो खामोश हूं... इन्ही खामोशियों में सोचता हूं क्या तुम ये सब जान पाओगी कभी...तुम्हारे ख्याल भी इतने खामोश होते हैं कि मैं जाने-अनजाने हां-ना के बीच झूलने लगता हूं। तुम तो मेरे बेवसी को समझ लोगे न। मैं किससे कहूं। तुम्हारी बातें भी खुद से कहता हूं। खुद को समझाते समझाते थक गया हूं। तुम समझती हो न!


तुम्हारा
 मैं...

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