Thursday 14 May 2015

कहा जाता है कि मनुष्य की कहानी आज से दस लाख वर्ष पूर्व शुरू हुआ था। लोग जंगलों में रहा करते थे। जानवरों का शिकार करके अपना भरण-पोषण किया करते थे। धीरे-धीरे लोगों में जागृति आई और वे जंगल छोड़ शहरों और गांवो में रहने लगे, विज्ञान ने प्रगृति की और विकास की धारा बहने गली। जिसने जीने के नए ढ़ंग दिए बड़ी-बड़ी इमारते भागती दोड़ती गाड़ियां। मस्ती करने के लिए पब-डिस्को खाने के लिए पिज्जा-बर्गर, नुडल्स और न जाने क्या-क्या ? हम आदिकाल से निकल कर तकनीकि काल में पहुंच गए ! विश्व के मानचित्र पर विकसित देशों की होड़ में शामिल हो गये। हम चांद पर पहुंच गये। विकास के बड़े-बड़े दावे भी किये गये है और किये जा रहे है, लेकिन इस तकनीकि काल में भी एक तबका ऐसा है जो आदिकाल में ही जीवन जीने को विवश है।

कहने को तो हम तकनीकिल काल में है, लेकिन हमारे देश में बहुत बड़ा तबका ऐसा भी है जो अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करने के लिए दिन-दिन भर जंगलों और खेतों में घुम-घुम कर कर पापी पेट की आग को बुझाने के लिए मिलो-मिल पागलों की तरह भटकते रहते है, तब जा कर वह अपने और अपने परिवार के लिए कुछ शिकार कर पाते है फिर जा कर घर रोशन होता है और चुल्हा जलता है। हम 21वीं शदीं में है पर सही मायने में उस परिवार के लिए ये 21वी शदीं या तकनीकि काल किस काम की जिसे खाने को लाले पड़े हो। ये विकास किस काम का जिस देश में अभी भी लोग ऐसे जीवन जीने को मजबूर हो। आज हमारे पास बड़ी-बड़ी सड़के भागती दैड़ती गाड़ियां मैट्रो, मोनो रेल, हवाई जहाज और न जाने क्या-क्या हैं ? लेकिन इस वर्ग को इन सारी चीजों से क्या मतलब ! वे तो अब भी दिन-दिन भर जद्दोजहद कर पापी पेट की आग को ही बूझा पाते है, और किल्लत भरी जिंदगी जिने को मजबूर है। इनके लिए न तो सरकार कुछ कर रही है और न ही कोई गैरसरकारी संस्था ही।


उन्हें अब भी ये सीरी बाते सपने जैसा ही लगता है, और लगे भी क्यों नहीं जो इंसान दिन-रात जद्दोजहद कर बस दो वक्त की खाने का ही बंदोबस्त कर पाता हो। उसमें भी जंगली जानवर या चुहा उसके खाने के मुख्य आहर हो उनके लिये ये सपना नहीं तो और क्या है। उनके लिये स्कूल-कॉलेज पब-डिस्को, पिज्जा-बर्गर सब सपना ही तो है। उन्हें तो इसका नाम तक नहीं पता। उनके जीवन में अब भी अंधेरा ही अंधेरा है। यह तबका अब भी आधुनिक सुविधाओं से मिलों दूर है। उन्हें इन सीरी चीजों से कोई मतलब नहीं है। उन्हें तो जिंदा रहने के लिये शिकार करना है और जिंदगी जिना है। ऐसे की तबका के कुछ लोगों से जब मैं मिला तो उनको मैंने बाहर की दुनियां के बारे में बताया तो उनके लियें ये सारी बाते एक कहानी की तरह लग रहा था जैसे हमें बचपन में दादी-नानी परियों की कहानी सुनाया करती थी और हम कल्पना कर उस परियों में खो जाते ठीक वैसे ही ये लोग भी उसी तरह कल्पना कर उसमें खो जाते है। कुछ पल का सुख पा कर फिर हकीकत में आ जाते हैं, और शायद यह सोचते है कि उनका यह सपना कब पूरा होगा या यू ही मर-मर कर जिंदगी का गुजारा होगा।
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