Wednesday 5 August 2015

याकूब मेमन को फांसी मिल चुकी है। उसके फांसी के समर्थक और विरोधी दोनों खेमों को पता है कि याकूब मर चुका है और अब वह कभी लौट कर नहीं आएगा, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या फांसी से अपराध खत्म हो जाएगा? एक की फांसी आनेवाले किसी इंसान में अपराधी मानसिकता को पनपने से रोक देगी? इस बात का कोई सबूत नहीं है हमारे पास। तो ऐसे में क्यों न फांसी की नृशंसता और अमानवीतया के कारण पूरी तरह फांसी की प्रथा को ही फांसी दे दी जाए। क्योंकि फांसी अस्वाभाविक मौत है। इंसान के अंदर पूरे का पूरा जीवन और उस जीवन की भरी पूरी संभावनाएं होने के बावजूद फांसी एक मिनट में किसी की जिंदगी को बीती चीज बना देती है। तो ऐसे में फांसी को फांसी दे देने में क्या हर्ज है। जिस न्याय के तकाजे पर याकूब को फांसी पर लटकाया गया उस न्याय पर ही सवाल खड़े हो गए।


मुझे नहीं पता याकूब दोषी था या नहीं लेकिन अगर उसे देश के उच्चतम न्यायालय ने फांसी दिया तो सबूत कही न कही उसके खिलाफ रहा होगा। लेकिन  जिस तरीके से याकूब के फांसी के समर्थकों ने फांसी के विरोध में आए लोगों पर हमला किया उस से आहत होकर याकूब के वकिल आनंद ग्रोवर ने बेहद भावुकता में कहा कि अगर लोग यह उम्मीद करते हैं कि किसी वकील को किसी अपराधी या आतंकी ठहरा दिए गए व्यक्ति की पैरवी नहीं करनी चाहिए, तो फिर इसके लिए देश में तानाशाही चाहिए। उन्होंने कहा कि वह उम्मीद करते हैं कि जल्द ही या फिर भविष्य में कभी कोर्ट को अपनी भूल का एहसास होगा और वह उसे सुधारने की कोशिश करेगी। ऐसे में सवाल यह है कि कोर्ट कैसे अपने भूल को सुधार सकता है, क्योंकि मरा हुआ आदमी कभी जिंदा नहीं हो सकता अगर फांसी देना भुल है तो उस भुल को फिर कभी नहीं सुधारा जा सकता यह बात खुद ग्रोवर भी जानते है। कुछ तबकों का आरोप है कि याकूब के अपराध को भूलकर उसका समर्थन करने वाले मुसलमान नागरिक नहीं, मज़हबी है। ऐसे आरोप लगाते हुए वो भूल गए कि जो लोग याकूब का फांसी रुकवाने के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखे थे। या 29 जुलाई की आधी रात सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के घर गए थे वो भी हिंदु ही थे। इसमें कोई मुस्लिम नहीं था।


ऐसे में यहां सवाल विश्वास और अविश्वास का है। यहां सवाल मन के अंदर बैठी असुरक्षा का है। यहां सवाल लोकतंत्र के कानून व्यवस्था से एक विशेष वर्ग का भरोसा उठ जाने का है। अदालत को इसलिए भी सोचना चाहिए था कि विरोध की आवाजों में उसके अपने लोगों की आवाजें भी शामिल थी। सुप्रीम के रिटायर्ड जज जस्टिस बेदी ने लिखा था कि कोर्ट को रॉ अधिकारी बी. रमन की चिट्ठी को देखते हुए नए सीरे से फैसले को फिर से गढ़ना चाहिए। उस चिट्ठी के अनुसार भारत सरकार ने याकूब के साथ नरमी बरतने का वादा किया था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ जिस तरीके से फांसी को लेकर लगातर विरोध के स्वर उठ रहे है, ऐसे में क्यों न फांसी की सजा को ही खत्म कर दिया जाए। दुनिया के 130 देशों में फांसी की सजा तो खत्म हो ही चुका है तो क्यों न भारत में खत्म कर दे। पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने भी कहा ये कहां का न्याय है कि मौत के बदले मौत, भाजपा के युवा नेता वरुण गांधी ने फांसी के विरोध में तो यहां तक कह दिया की किसी सभ्य देश में जल्लाद का होना लज्जा की बात है। जब इतना सवाल फांसी को लेकर उठ रहे हैं तो फांसी को फांसी दे देने में क्या दिक्कत है। याकूब ने जांच पक्रिया में न केवल सहयोग किया बल्कि अपनी जान जोखिम में डालकर आईएसआई, टाइगर मेमन और दाऊद के खिलाफ कई अहम सबूत एजेंसियों को मुहैया कराए जो याकूब के पक्ष में जाता है। उसने अपने जिंदगी के 21 साल जेल के अंदर बिताए, कितना यकीन रहा होगा उसे देश के न्याय प्रक्रिया में देश के कानून पर? क्या सिर्फ उसका भरोसा टुटा? नहीं उसके साथ कइयों का भरोसा टूटा। भारत के कानून ने बताया कि एक इंसान की तरह वह भी यकीन रखता है। आंख के बदले आंख में...

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