Wednesday 2 June 2021

 किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो लो उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल मे प्यार, जीना इसी का नाम है...  बॉलीवुड के दिग्गज अभिनेता लेखक निर्देशक राजकपूर निर्माता की आज डेथ एनवर्सिरी है  राज कपूर पर फिल्माया गया यह गीत हमलोगों के जीवन पर विल्कुल सटीक बैठता है...  राजकपूर भारतीय सिनेमा जगत का चमकता एक ऐसा ध्रुवतारा  जो पिछले आठ दशकों से फिल्मी आकाश पर जगमगाता रहे हैं... और आने वाले कई सदियों तक जगमगाते रहेगें.. राजकपूर सभी प्रकार के अभिनय को बखुबी पिरो देते थे...  चाहे वो सीधे साधे गांव वाले का चरित्र हों या फिर मुम्बइया चोल वासी स्मार्ट लड़के का...  वे सभी चरित्रो को ऐसे निभाते जैसे यह उनकी अपनी कहानी हो...  राजकपूर फिल्म की विभिन्न विधाओं से बखुबी परिचित थे... हिन्दी सिनेमा जगत के पहले शोमैन राजकपूर की  फिल्मों में मौज-मस्ती, प्रेम, हिंसा, से लेकर अध्यात्म और समाज सारा दर्शन मौजूद रहता था....  राजकपूर का जन्म 14 दिसंबर 1924 को पेशावर पाकिस्तान में हुआ था...  इनके पिता पृथ्वी राज कपूर अपने समय के मशहूर रंगकर्मी और फिल्म अभिनेताओं में से एक थे...  जिस कारण अभिनय उन्हें विरासत में मिली...  राजकपूर का बचपन में नाम रणवीर राज कपूर था...  राजकपूर की स्कूली शिक्षा कोलकाता में हुई, लेकिन पढ़ाई में उनका मन कभी नही लगा और यही कारण रहा कि उन्होने 10वीं कक्षा की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी... इस मनमौजी ने विद्यार्थी जीवन में किताबें बेचकर खूब केले, पकोडे़ और चाट खाया... राजकपूर को शो मैन ऑफ द सिनेमा कहा जाता है.... सन् 1929 में जब पृथ्वी राज कपूर मुंबई आए तो उनके साथ मासूम राजकपूर भी आ गए...  राज कपूर के पिता ने एक दिन कहा था, कि राजू, नीचे से शरूआत करोगें तो उपर तक जाओगे... राजकपूर ने पिता की यह बात गांठ बांध ली और जब उन्हें 17 वर्ष की उम्र में रणजीत मूवीटोन में साधारण एप्रेंटिस का काम मिला, तो उन्होंने वजन  उठाने से लेकर पोंछा लगाने तक का भी काम किया.... 1930 के दशक में उन्होने बॉम्बे टाकीज क्लैपर-बॉय और पृथ्वी थियेटर में बतौर अभिनेता काम किया...  राज कपूर बाल कलाकार के रूप में 1935 में ‘इकबाल, हमारी बात, और गौरी सन् 1943 में छोटी भूमिका के तौर पर  कैमरे के सामने आए... 

इसके अलावा राज कपूर ने सन् 1946 में आई फिल्म बाल्मीकि और अमर प्रेम में कृष्ण की बाखूबी भूमिका निभाई...  साल उन्नीस सौ सैंतालिस में मधुबाला के अपोजिट फिल्म नील कमल से अपने अहम रोल से कैरियर की शुरूवात की थी... इसके बाद राजकपूर का जादू थमा नहीं इसी क्रम में इन सारी फिल्मों में काम  करने के बावजूद भी एक आग थी कि खुद  निर्माता और निर्देशक बनकर अपनी फिल्म का निर्माण करे, उनका यह सपना 24 साल के उम्र में फिल्म ‘आग‘के साथ पूरा हुआ...  इस फिल्म में राजकपूर खुद मुख्य भूमिका के रूप में आए...  उसके बाद 1949-50 में राजकूपर रीवा चले गए और कृष्णा से रीवा में ही शादी कर ली...  वहां से आने के बाद राजकपूर के मन में खुद का स्टूडियों बनाने का विचार आया और चेम्बूर में चार एकड़ जमीन लेकर 1950 में आरके स्टूडियों की स्थापना कर फिल्म ‘आवारा‘ अपने ही स्टूडियो में बनाई जिसमें उन्हें एक रूमानी नायक के रुप में  ख्याति मिली, लेकिन उसके बाद आई फिल्म ‘आवारा‘ में उनके द्वारा निभाया गया चार्ली चैपलिन का किरदार सबरे प्रसिद्ध रहा...  उसके बाद उन्होंने ‘श्री 420, जागते रहो, और मेरा नाम जोकर‘ जैसे कई सफल फिल्में बनाई। राजकपूर अपने दोनो भाई शम्मी, शशी के साथ-साथ सत्तर के दशक में तीनों बेटे रणधीर, ऋषि और राजीव कपूर को लांच कर कई सफल फिल्में बनाई..... उन्होने मेरा नाम जोकर छे सालों में बनाई जो बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रही इसके चलते उन्हें काफी आर्थक समस्या से भी जूझना पड़ा था...  राजकपूर उन सितारों में से थे जो न सिर्फ अपनी प्रोफेशनल लाइफ बल्कि पर्सनल लाइफ को लेकर भी काफी सुर्खियों में रहे... साथ ही राजकपूर और नर्गिस की प्रेम ्कहानी भी काफी सुर्खियोंमें रही इस शोमैन के साथ नर्गिस की जोड़ी को पर्दे पर काफी पसन्द किया गया और ऑफस्क्रीन भी दोनों के प्यार के खूप सिक्के भी उछले... दोनों के बीच प्यार तो खूब हुआ लेकिन कभी दो जिस्म एक जान नहीं हो पाए... बस मलाल यही था...  वहीं राजकपूर के बारे में एख और प्रसिद्ध कहानी ये भी है... कि वो कभी बिस्तर पर नहीं सोए... हमेशा जमीन पर ही सोते थे... 



उन्हें यह प्रेरणा भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से मिली थी... उनकी बेटी रीतूनंदा ने अपने पापा के ऊपर जो किताब लिखी है.. उसमें उन्होने जिक्र किया है कि राजकपूर साहब ने अपने मातापिता की बहुत बड़ी तस्वीर अपने बेडरूम में बिस्तर के ऊपर लगाई थी... हर रोज सुबह उठकर उस तस्वीर को प्रणाम करके जमीन पर ही सोते थे... उनकी इस आदत को लेकर जब वह लंदन गए हुए थे... और जब उनको हिल्टेन होटेल में रूकना पड़ा तो वहां पर भी वह जमीन पर ही सोए लेकिन होटेल के मैनेजर ने उनको जमीन पर सोने से मना किया था... वैसे राजकपूर की सिने कैरियर में उनकी जोड़ी नरगिस के साथ बहुत पसंद की गई। इन दोनो की पहली फिल्म तो ‘आग‘ थी, लेकिन फिल्म ‘आवारा‘ के निमार्ण के दौरान नरगिस का झुकाव राजकपूर की ओर बढ़ गया, जिस वजह से नरगिस ने केवल राजकपूर की फिल्मों में काम करने का फैसला किया। और नरगिस ने महबूब खान की फिल्म ‘आन‘ में काम करने से इन्कार कर दिया। इस जोड़ी ने 9 वर्ष में 17 फिल्में बनाई, 1956 में आई फिल्म चोरी चोरी इन दोनो जोड़ी की आखरी फिल्म थी। उसके बाद राजकपूर ने 60 के दशक में ‘जिस देश में गंगा बहती है और संगम‘ जैसीे सफल फिल्म बनाई। 1960 में राजकपूर को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार फिल्म ‘अनाडी के लिये मिला। 1962 में फिल्म ‘जिस देश में गंगा बहती है‘ में पुनः सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार तथा 1965 में फिल्म ‘संगम, 1975 में मेरा नाम जोकर‘ और 1983 में प्रेम रोग के लिये सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार मिला, इसके बाद 80 के दशक में प्रेम रोग जैसी फिल्मों का निमार्ण किया जिसके लिये राजकपूर को एक बार फिर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार मिला, 1985 में आई फिल्म राम तेरी गंगा मैली हो गई उनकी आखरी फिल्म थी। 1987 में राजकपूर को दादा साहब फालके पुरस्कार भी दिया गया।1971 में भारत सरकार ने राजकपूर को कला क्षेत्र में अहम योगदान के लिय उन्हें पद्ा भूषण से सम्मानित किया।मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक सन 1988 मे दिल्ली में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया था... अपने निधन के समय वो भारत पाकिस्तान पर आधारित प्रेम कहानी हिना बना रहे थे... दो जून को राजकपूर हिन्दी सिनेमा के इतिहास में वो मील का पत्थर साबित हो गए जिनके नक्शे कदम पर कई नस्लों ने अदाकारी सीखी है... और सीखेंगे  उनकी पॉपुलरिटी के लोग भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी कायल हैं..  



Categories:

0 comments:

Post a Comment