अगर अतिसंयोक्ति से भरे किसी विषय को अतिवाद का जोड़ा-जमा पहना दिया जाय तो वह चाहे कोई संगठन, समूह या कोई राजनीतिक दल हो उससे असहमत होने का या उसे दर किनार करने का प्रयास सभी को करना चाहिए। हां भले ही कुछ लोग टीवी पर 'विजन' का बहुत बड़ा माया जाल रचकर अपने स्वार्थ सिद्धियों एवं अवसरवाद को भुनाने में तो सफल रहे हो। उस असहमती को कुचल कर, लेकिन वे अब अपने यर्थाथ से बच कर अपने चेहरे को छिपा कर प्रलोभन से भरा हुआ लालीपॉप देकर फिर से देश को गुमराह कर रहें हैं। ऐसे हालात में विपक्ष भी जरूरी है। नाम के तौर पर विपक्ष जो कुछ था भी उसे भी खरीद लिया गया है। पिछले चार सालों से सरकार के मुह में जुबान डालकर कुछ तथा-कथित दरवारी लेखक अपने शब्दों का दाव-पेंच गढ़कर उसे कुचलने का प्रयास कर रहे है। क्या यह जायज है? जहां वे राजनीतिक नेताओं को साधते हुए आम नागरिक के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से तुलना करते हुए इतने बड़े विपक्ष को गारत करना चाहते है। जिसकी उपयोगिता सदन में लोकतंत्र की खूबसूरती के तौर पर सुनिश्चित होती हो, जहां विपक्ष खत्म ही हो चुका हो क्या ऐसी विषम परिस्थिति में देश के आम नागरिक को विपक्ष की निष्पक्षता पर शक नहीं पैदा होगा। ऐसे में अब तथा-कथित दरवारी लेखक ही ये सिद्ध करें कि विपक्ष होना चाहिए या नहीं? अगर उनकी नजर में नहीं होना चाहिये तो कोई बात नहीं, अगर होना चाहिये तो सदन की वास्तविक खूबसूरती बनाये रखने के लिए विपक्ष को जिन्दा रखें।
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