Tuesday, 18 September 2018

Posted by Gautam singh Posted on 03:02 | No comments

भगवा महज एक रंग नहीं

दुनिया में कई रंग है और यह दुनिया रंग बिरंगी है। किसी को लाल तो किसी को पीला रंग पसंद है। किसी को हरा तो किसी को नीला रंग पसंद है। रंग चाहे जो हो सबको कोई ना कोई रंग जरूर पसंद है। हिन्दू धर्म में प्रत्येक रंग का अपना अलग महत्व है। भगवा रंग सिर्फ हिंदू धर्म में ही आस्था का प्रतीक नहीं है। इस रंग को कई अन्य धर्मों में भी पवित्र माना जाता है।

केसरिया या भगवा रंग त्याग, बलिदान, ज्ञान, शुद्धता एवं सेवा का प्रतीक है। कहा जाता है कि शिवाजी की सेना का ध्वज, राम, कृष्ण और अर्जुन के रथों के ध्वज का रंग केसरिया ही था। भगवा रंग शौर्य, बलिदान और वीरता का प्रतीक भी है। भगवा या केसरिया सूर्योदय और सूर्यास्त का रंग भी है, मतलब हिन्दू की चिरंतन, सनातनी, पुनर्जन्म की धारणाओं को बताने वाला रंग है यह। जैसे हम सभी को पता है कि हिन्दू धर्म में सूर्य और अग्नि दोनों को पूजा जाता है। रौशनी और अग्नि बुराइयों को दूर करती है। केसरिया या पीला रंग सूर्य और अग्नि का प्रतिनिधित्व करता है।

अग्नि में आपको लाल, पीला और केसरिया रंग ही अधिक दिखाई देगा। हिन्दू धर्म में अग्नि का बहुत महत्व है। यज्ञ, दीपक और दाह-संस्कार अग्नि के ही कार्य हैं। अग्नि का संबंध पवित्र यज्ञों से भी है इसलिए भी केसरिया, पीला या नारंगी रंग हिन्दू परंपरा में बेहद शुभ माना गया है। कहा जाता है कि पुराने ज़माने में साधु संत जब मोक्ष की प्राप्ति के लिए निकला करते थे तब अपने साथ अग्नि को भी लेकर निकलते थे। यह अग्नि उनकी पवित्रता की निशानी बन जाती थी। पर हर समय अग्नि रखना कठिन था इसलिए अग्नि की जगह भगवा रंग के ध्वज को साधु संत लेकर चलने लगे फिर धीरे धीरे साधू संत केसरिया या कहें भगवा रंग के वस्त्र भी पहनने लगे।

भगवा रंग का इस्तेमाल हिंदू के साथ ही बौद्ध धर्म और सिख धर्म में भी होता है। बौद्ध भिक्षु हमेशा भगवा कपड़ों में ही रहते हैं। सिख धर्म के अनुयायी भगवा पगड़ी को महत्व देते हैं, गुरु ग्रंथ साहेब को भी भगवा वस्त्र में रखा जाता है। सिख धर्म की ध्वजा निशान साहेब भी भगवा रंग की है। पूरे झंडे को भगवा कपड़ों में ही लपेटकर रखा जाता है। भगवा रंग का हिंदू धर्म या कहें कि सनातन धर्म का हिस्सा बनने की कहानी भी बहुत पुरानी है। भगवा वास्तव में ऊर्जा का प्रतीक है। जीवन और मोक्ष को भगवा के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता। यह शब्द भगवान से निकला है। यानी भगवान को मानने वालों का भगवा रंग प्रतीक बन गया।

Wednesday, 12 September 2018

मुझे अब भी याद है उस दिन बारिश होने लगी थी जोर-जोर से बिजली भी कड़की। लोग भाग रहे थे, कोई अपने सर पर बैग रखकर... तो कोई रेन कोट पहन कर... तो कोई छाता फैलाकर सब भागने में मशगूल थे और मुझे ऐसा लग रहा था जैसे सारी दिल्ली भाग रही हो, बस उस लम्हें हम दोनों अकेले रह गए थे। जहां तक की पहले खड़े होते ही जमाना अपने सारे काम छोड़ कर हम दोनों को हेय नजरों की जंरीरो से जकड़ लेता था। फिलहाल आज हम दोनों उस बारिश में वही खड़े रह गए थे और पहली बार हम दोनों ने जमाने को पास से इतना दूर भागते देखा। अभी कुछ वक्त पहले ही आग उगलती धूप थी वहीं बादलों ने शाम डलने का अनुभव कराया अब अंधेरा सा लग रहा था जैसे सूरज ढल चुका हो। तुम्हें याद जैसे ही बीजली कड़की थी तुम डर के मारे मेरी बाहों में सीमट गई थी। 

यहीं पहला मौका था जब तुम मेरे इतना करीब आई थी। सोचो वो कड़क कितनी हसीन थी जिसने तुम्हे मुझसे लिपटने पर मजबूर कर दिया। तब मैंने पहली बार तुम्हारे कमर पर हाथ रखा था। मैंने जैसे ही तुम्हारे कमर से हाथ हटाना चाहा था तुमने कहा छोड़ना भी मत ऐसे ही पकड़े रहना मुझे ना जाने क्यों बहुत डर लग रहा है। यह कहते हुए तुम्हारी आंखें नम हो गई। मैंने पहली बार तुम्हारे आंखों में आंसु देखा। पता है मैं उस दिन कितना परेशान हो गया था अपने प्यार में तुम्हारे आंसु देखकर... उस दिन ही तुमने कहा था मैं खुद को टूटते हुए देखना चाहती हूं तुम्हारी बाहों में.... याद करो बारिश बहुत देर तक हुई थी जब बारिश थमी, तो भी तुम बहुत देर तक मेरे सीने में मुंह छुपाये थी। उस दिन तुम एक सपने की तरह मेरे आंखों में पहली दफा उतरी वह सपना जिसमें मैंने अपने हिस्से की जिन्दगी अपने हिसाब से जी ली...उस सपने को मैंने एक किरदार के रूप में जिया। 

जिसे एक कहानिकार अपने उपन्यास में नायक के रूप में गढ़ता है। जिसकी मैं शायद कल्पना ही कर रहा था। उस कल्पना लोक के भ्रमण में... मैं अभी खोया ही था कि तुमने कहा अब हमें चलना चाहिए बारिश थम चुकी है। हमें घर जाना था हमदोनों अलग-अलग दिशा में चल दिये मन में कई सवाल और कई उमंगे लिये। जिसका जवाब उस समय न तो मेरे पास था और ना ही तुम्हारे पास...  वक्त गुजरते देर नहीं लगा कब हमदोनों कॉलेज की गलियों से गुजरते हुए जॉब के ऑफिस में जा पहुंचे। यहां सबकुछ अपने हिसाब से नहीं होता यहां प्रोफेशनल दिखने का झोल-झाल है। ऑफिसयली करेक्ट होने का चीख-पुकार है। हम दोनों इस झोल-झाल और चीख-पुकार में ऐसे खोते चले गए की पता ही नहीं चला कब इतना दूर निकल गए। अब तो तुम इतना दूर हो गई हो कि अपने जेठ और सार के लड़के का गुलाम बन गई हो और वहां बंदिशे तो इतना है की जैसे तुम्हारें यादों पर भी पहरा लगा हो। पर तुम्हें कैसे बताऊं गुजरे एक साल में तुम मुझसे होकर कितनी बार गुजरी हो। मैं न जाने कितनी बार जी उठा हूं और न जाने कितनी बार मर कर बचा हूं।

मैं अब रोज अपने आप को समझाता हूं। जिन्दगी के सफर में धूप-छांव होती है। पर दिल कैसे जानेगा की धूप भी तुम ही थी और छांव भी... तुम्हारे जाने के बाद मेरे दिल की सरहदें जाने कितनी बार आबाद हुई है। न जाने कितनी भार उजड़ी है... मैं बस रिफ्यूजी भर रह गया हूं, तुम तो जानती हो सरहदों से मेरी कभी बनी ही नहीं... आज इस खामोंशी के चारों ओर अंधेरा सा छाया रहता है। आंखों में आंखे डाले नजरे एक दूसरे को खोजते रहती है और मैं वहां खड़ा बेसहारा सबकुछ देखता रहता हूं.... जानता हूं तुम नहीं हो और यह भी जानता हूं तुम कभी हो भी नहीं सकती पर फिर भी तुम्हारे होने का सपना देखना कितना सच लगता है। आज भी बारिश हो रही है पर तुम जो होती तो बात कुछ और थी अबकी बारिश तो सिर्फ पानी है। मैं इसे ताकते हुए बस यही सोचता हूं कि तुम मेरे दिल से खेल रही हो और सोचता हूं यह प्यार बिछुड़ा नहीं है। जब विश्वास ना हो तो कभी अपने दिल से पूछ लेना.. आज फिर तेज बाऱिश हुई उतना ही तेज जितना शायद उस दिन हुई थी। बारिश रूक चुकी थी, लेकिन ठंडी हवा के साथ एक ठंडी झन्न ने तुम्हारी याद को जाता कर दिया।


Tuesday, 28 August 2018

Posted by Gautam singh Posted on 07:21 | No comments

एक कसक

मैं अपने नानी के घर कब गया था। कुछ सही से याद नहीं वक्त गुजरते गया और सबकुछ बदलते चला गया। ना मुझे नानी के घर का गेट का पता है और न ही उनके घर का नक्सा मेरे जहन में है। जब भी अपने करीबियों से नाना-नानी की बाते सुनता हूं तो मैं अंदर ही अंदर घुटने लगता था। मेरी मां का नानी से कभी बना नहीं जिसके कारण हमलोगों का भी नानी-नाना से दूरीयां बढ़ती गई। हमलोगों को बस इतना पता है कि इसमें हम भाई-बहनों की कोई गलती नहीं, इसमें किसकी गलती है, इस बात को न हम तब जानते थे और ना ही आज जान रहे है, जब मैं इस बारे में लिख रहा हूं। सच तो ये है कि हम भाई-बहनों में से किसी को इस बात का पता ही नहीं है नाना-नानी का प्यार क्या होता है? दरअसल बढ़ते उम्र के साथ हमलोग अपने-अपने जिन्दगी में इस तरह खो गये की इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया। 

लेकिन अब इस बात की कमी खलती है जब अपने भांजा-भांजी को देखता हूं तो लगता है हमसब भाई-बहन कितने अभागे रहे है जिन्हें ना तो दादा-दादी का प्यार नसीब हो सका और न ही नाना-नानी का... दादा-दादी हमारे बीच थे नहीं और नाना-नानी रहते हुए भी न हम उनके लिए कोई थे और न ही वह हमारे लिए कोई। वक्त बीतते गया देखते-देखते बचपन कब जवानी में तबदील हो गया कुछ पता ही नहीं चला। पहले भी जब अपने दोस्तों या परिवार वालों से नाना-नानी या दादा-दादी से मिले प्यार के बारे में सुनना तो मन में एक ख़लिश सी होती और सोचता मैं इन सबसे इतना अगल कैसे हो गया, मुझे एक भी बच्चे ऐसे नहीं मिलते जो अपने नाना-नानी या दादा-दादी से मिले प्यार के बारे में न बताता हो, कई बार मेरे दोस्तों ने मुझसे सवाल भी किया की तुम नाना-नानी या दादा-दादी के बारे में कुछ क्यों कुछ नहीं बताते।

मैं बड़े ही अदब से कहता दादा-दादी इस दुनिया में है नहीं और इतना वक्त नहीं मिलात की मैं नाना-नानी के पास जा सकूं मैं यह बात तो बोल देता पर मेरे अंदर कई सवाल हिलोरे मार रहे होते सोचता सच-सच क्यों नहीं बता देता की हमलोग अपने नाना-नानी से बहुत दूर है। न तो नाना-नानी हमलोगों का कभी खैरियत लेते है और न ही हम लोग कभी नाना-नानी का लेकिन चुप हो जाता, सोचता दोस्त मजाक उड़ायेंगे। इस डर से कभी उनलोगों के सामने हकीकत बयां ही नहीं कर पाया। झूठ पर झूठ इतना बोलते गया की उस झूठ के भवंर में ही फर कर रह गया। सच कभी सामने आ ही नहीं पया। भागते वक्त के साथ ये सारी बाते पीछे छूटती चली गई। समय के साथ-साथ पढ़ाई के लिए शहर दर शहर बदलते गये और ये बाते जहन से निकलते गया पर हकीकत तो ये था कि हमलोग अपने-आप से समझौता करना सिख गये थे। फिर बदलते वक्त के साथ हमलोग भी अपने-अपने जिन्दगी में उलझते जा रहे थे पहले पढ़ाई फिर नौकरी इन सारे चीजों में ऐसे फंस गये थे की कभी नाना-नानी या दादा-दादी की याद ही नहीं आई... 

हमलोग तेच रफ्तार से बड़े हो रहे थे और इस भवंर से कबके निकल चुके थे।  जिन्दगी में इन बातों का अब कोई पछतावा नहीं रह गया था।  अब बस आगे बढ़ने की होड़ थी और इस दुनिया में एक अजीब दौड़ थी इस दौड़ हमलोग भी में शामिल हो चुके थे। जहां पिछे मुड़ कर देखने की रिवायत नहीं है। समय के साथ-साथ सारे दोस्त प्रोफेशनल हो चुके थे। अब जो भी बाते होती वह ऑफिस की या फिर अपने पर्सनल लाइफ की... जिन्दगी से उन सारी कमी की कसक धीरे-धीरे मिलों दूर निकल चुकी थी... अब ऐसे सवाल भी नहीं होने थे जिसका जवाब देने में मैं असहज हो जाऊ... जिन्दगी अच्छे से गुजर रहा था, लेकिन वक्त ने फिर से करवट ली अब जब अपने दीदी के बच्चों को अपने नाना-नानी से किसी चीज को लेकर जिद करते या उनका उनके साथ खट्टे-मीठे रिश्ते को देखता हूं। तो वह टीस फिर से चुभने लगता है। सोचता हूं की हमलोग कितने अभागे रहे है जो इस खट्टे-मीठे रिश्ते को नहीं जी पाये। अब बस यही आश है कि किसी न किसी जन्म में इस रिश्ते को जरूर जियेंगे।  

Wednesday, 15 August 2018

 
खुले में शौच की परंपरा सृष्टिचक्र के आविर्भाव से ही शुरु हुई। जिसे आज पशुवत शौच का प्रारूप दे दिया गया। खुले में शौच की संस्कृति पहले पूरे विश्व में समाई थी। भले ही आज पूरे भारत के रग-रग में समाई हो। हम सभी ने अबोध अवस्था में ही त्रिकोणा मुह बना कर बड़े हर्ष से उनमुक्त होकर उदर को भार वीहिन किया। चटोली की आड़ में शुरु हुई यह सभ्यता बस एक साल में ही... मां के पैरों द्वारा बनाए गए चूल्हों पर स्थापित की गई। जो हल्का करने के लिए छी... छी... छी... नामक स्वर की ताल ध्वनी से खुद के लिए सजाई गई लोरी गीत थी। तो हमें यह न सिखाया जाय कि हमें शौच घर के कमौड पर बैठने का तरीका नहीं है। हमने बचपन में ही कमौड पर बैठने का अभ्यास किया है। बखूबी याद होगा।
 
 हल्का होने के दौरान जब मां पैरों के चूल्हें पर बिठा कर दाये हाथ से पूरा बदन थामते हुए बायें हाथ से बह रही नाक को पोछ देती थी और हम चिल्लाते हुए शकून का अनुभव करते थे। 'क्या यह गलत है' "मित्रों क्या मैं झूट बोल रहा हूं" हम में से किसने खुले में शौच नहीं किया है। आज भले ही त्रिकोनी लंगोटी का इतिहास बदलकर हगीज युग के नवीन परिवर्तन में बदल गया है। हगीज का भाव बड़-चड़ कर दुनिया की प्रचारमय संस्कृत का अहम हिस्सा है। मित्रों क्या आप सभी को वह त्रिकोणी लंगोटी याद है। खुले में शौच का ग्रामीण इतिहास बहुत पुराना एवं बेहद अनूठा है। नित्य सामुहिक शौच का आयोजन सुबह-शाम गांव की गलियों से खेतों की पगडंडियों तक होते आ रहे हैं। इन राहों पर गांवों की औरतों की लोटा-यात्रा में समाई उनकी वाद-विवाद प्रतियोगिता एवं हंसी की खनक व एक दूसरे की ठीठोंली और कभी-कभी लोक गीतों की गूंज से पूरा परिवेश गुंजार उठता है। नदी किनारे बसे गांवों में शौच काल में लोटे का प्रयोग सर्वदा निंदनीय ही रहा।
 
विकास काल के दौरान रेल मंत्रालय ने शौच के इतिहास में अद्भुत क्रांति कर दी, देश को सबसे बड़ा छत-द्वार विमुक्त शौचालय रेल मंत्रालय ने ही उपलब्ध करा कर अपना नया इतिहास रचा। कालांतर में यही शौचालय रेल लेन के नाम से बुहत प्रसिद्ध हुआ। जिसके समर्थन में पूर्व रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने बुलेट ट्रेन के विरोध में कहा... यह देश के लिए बहुत बड़ा खतरा है। क्योंकि देश की ग्रामीण आवादी सुबह रेल की पटरी पर हल्का होने के लिए जाता है। बड़े-बड़े खेतों में सामूहिक शौच की परंपरा ने भाई-चारे को भी मजबूती प्रदान की।
 
 इतिहास साक्षी है कि इस खुली शौच की परंपरा ने ही कई प्रेमी युगलों को आपस में मिलाया और उनके मिलन का साक्षी, दोनों के हाथों में सधा वो लोटा ही रहा। दूसरी तरफ लंबे घूंघट में गमन करता बहुओं का समूह सासु-निंदा की किलोल में अद्भुत सुख की अनुभूति का परम आनंद था। गोल घेरे में बैठ कर फारिग होना और सास-ननद का रोना-धोना सामूहिक शौच के उत्सवी किस्से थे। कभी-कभी ज्यादा हड़बड़ी में भागे लोग अपने किये पर ही धर देते थे। जिस पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता था। इतिहास के कुछ पन्नों में नाड़े दार कच्छे और पाजामे भी दर्ज है। ऐसे पजामे, जिनके नकचढ़े नाड़ों ने ऐन मौके पर खुलने से इंकार करते हुए अपनी कुर्बानियां देना ही स्वीकार किया। खुले में शौच एक परंपरा ही नहीं बल्कि एक संस्कार रहा। कभी-कभी हल्का होने के दौरान लोटे के पानी का आंसुओं की तरह बह जाना।
 
पत्ते, डिल्ले की सरन में जाने के लिए मजबूर करता था। कलांतर में जिसके हजारों रोचक किस्से हैं। सावन की बारिश में हरी-भरी घास जब खेतों में आपकी बैठक का विरोध करती है और तब आप प्रतिकार के रुप में उस पर खेप डाल कर आप लम्बी सांस छोड़ कर अलौकिक सुख का अनुभव करते हैं। संक्षेप में कहें तो जिस व्यक्ति ने खुले में शौच का आनंद नहीं लिया उसका मानव जीवन में जीना ही व्यर्थ है। 200 आदमियों की बारात के बीच दस-बारह लोटे बार-बार खेत से सगुन की तरह जनवासे तक दौड़ कर कन्या दान के प्रति अपना दायित्व निभाते हैं।  इस समकालिन युग में प्लास्टिक की बोतलों और डिब्बों ने लोटे के साथ सिर्फ कंधा मिलाकर ही साथ नहीं दिया बल्कि अपने पित्र पुरुष लोटा महाराज को चैन ओर शुकून के साथ घर के अंदर आराम भी दिया। आज गाड़ी-ड्रायवरों और हाइवे के ढाबा-संचालकों की ये बोतलें बड़ी सेवा कर रही है। आपातकालीन खुल्लम-खुल्ला शौच में अखबारी कागज, पत्ते, मिट्टी के ढ़ेलो या पत्थरों का भी अविस्मरणीय योगदान रहा है।
 
जिसे इतनी आसानी से भुलाया नहीं जा सकता। इस संस्कारिक परंपरा को बंद कर शौच काल के इतिहास को दफन करने का प्रयास किया जा रहा है। जबकि सरकारों को समझना चाहिए की इस परंपरा से वे ही नहीं बल्कि उनके पूर्वज भी गुजरे है ये सदियों की परंपरा जो हमें विरासत में मिली इसे छीन्न करना समस्त मानव जाती के जन्मसिद्ध अधिकारों की हत्या करना है। भाईयों बहनों इस परंपरा को जारी रखें। वरना आने वाली पीढ़ी इस परम सुख से वंचित रहेगी और हमरी परंपरागत सभ्यता नष्ट हो जायेंगी।
 
आभार
गुमनाम लोग
 

Sunday, 5 August 2018

... कुल जमा 300 लोग एनडीटीवी से निकाले गए, मल्लिकार्जुन खड़गे नहीं 'खड़के'...; 300 लोग दैनिक जागरण से निकाले गए, खड़गे नहीं खड़के; 250 लोग टाइम्स ऑफ इंडिया से निकाले गए, खड़गे नहीं खड़के...; करीब इतने ही लोग हिंदुस्तान टाइम्स से निकाले गए, खड़गे नहीं खड़के; 700 लोग सहारा इंडिया और अन्य मीडिया संस्थानों से निकाले गए, खड़गे नहीं खड़के...; नरेंद्र मोदी शासन में 5000 से ज्यादा छोटे और मझोले अखबार बंद हो गए और हजारों मीडियाकर्मी बेरोजगार हुए, खड़गे तब भी नहीं खड़के...। अब ऐसा क्या हुआ कि तीन 'खास' मीडियाकर्मियों को जब 'उनके' संस्थानों ने निकाला तो खड़गे न सिर्फ 'खड़के' बल्कि खूब जोर से 'भड़के' भी...???!!!
 
मजीठिया वेज बोर्ड को लागू करने में कभी भी, किसी भी नेता ने ऐसी 'फुर्ती' नहीं दिखाई। बीते 10-15 सालों में कांग्रेस की भी सरकार रही और अब मोदी सरकार को भी पूरे चार साल हो गए हैं। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना 'डंडा' चला दिया लेकिन राज्य सरकारों को 'निर्देश' देने के अलावा इन सरकारों ने क्या किया? यह कितना सुनिश्चित किया कि कोई भी मीडिया संस्थान इसे लागू करने से बचने न पाए।

सरकारों को छोड़िए, इन 'महान' पत्रकारों ने क्या किया?? उल्टे प्रबंधनों को 'निकल' भागने के रास्ते ही सुझाए। पत्रकारों को 'कॉन्ट्रेक्ट' पर रखकर 'पालतू' बना लेने का 'आइडिया' इन्हीं लोगों ने दिया। किसी ने सुझाया कि वीडियोग्राफरों की कोई 'जरूरत' ही नहीं है मोबाइल से वीडियो बन जाएंगे तो किसी ने कहा कि रिपोर्टर - स्ट्रिंगर की कोई जरूरत नहीं है, वह 'खुद' ही प्राइमटाइम 'निकाल' देगा। न केवल प्राइम टाइम 'चमका' देगा बल्कि मालिक को बढ़िया 'डील' भी दिला देगा। 
  
हमें खड़गे या मोदी जैसे नेता-नतेड़ों से कोई फर्क नहीं पड़ता...। 'फर्क' पड़ता है उनसे, जिन पर पत्रकारिता के 'मिशन' को आगे बढ़ाने की 'जिम्मेदारी' थी या उन्होंने 'खुद' यह जिम्मेदारी ले ली थी...। उन लोगों ने क्या किया...? उन लोगों ने पत्रकारिता को नीचे से काटा। ग्रास रूट पर बिना किसी मोह-माया के काम करने वालों को काटा। 100-200 रुपये के मेहनताने को यह कहकर बंद कर दिया कि कंपनी इतना 'खर्चा' नहीं झेल सकती है। यह अलग बात है कि कंपनी इनकी 3-4 लाख प्रति माह की तनख्वाह को बिल्कुल आराम से झेल सकती है। परिणाम यह हुआ कि 'अंतिम आदमी' की खबरें आना बंद हो गईं। अब जब खबरें आना बंद हुईं तो ये पत्रकारिता के 'पहरेदार' क्या करते...? एसी कमरे में बैठकर दो मुल्लाओं, दो पाकिस्तानी पत्रकारों और दो विहिप के आताताइयों को पकड़कर मुर्गों की तरह लड़वाना शुरू कर दिया। एक बच्चा बोरवैल में गिर गया तो 24 घंटे उसी में 'खींच' दिए। यह नहीं देखा कि उसी दिन देशभर में 50 और बच्चे भी ऐसे ही किसी बोरवैल में गिरे हैं जिनकी खबर देने के लिए हमारे पास कोई स्ट्रिंगर ही नहीं बचा है। बचे समय में मुलायम सिंह, अखिलेश यादव, मायावती और नरेंद्र मोदी को अपनी सुविधानुसार गालियां देने का काम शुरू कर दिया और दिनभर की नौकरी हो गई 'पक्की'। कोई मौका मिल गया तो गोटी फिट कर के 'नेता' बन बैठे।

करीब 15-20 पहले जब हमने अपना करियर शुरू किया तब न तो हम पर पैसे होते थे और न हमारे वरिष्ठ पत्रकारों के पास...। दिन-रात सिर्फ काम करते रहने का 'ज्ञान' मिलता रहा। इन लोगों ने 'गंदगी' फैलाई कि सारे 'पैसे' इन्हें दो और ये 'ठेके' पर काम कराएंगे। परिणाम पत्रकारिता के इतने बड़े नुकसान के रूप में आया कि अब इन्हीं लोगों के सामने 'विश्वसनीयता' का ही संकट खड़ा हो गया।

पत्रकारिता का इन 'स्वयंभू' पत्रकारों ने इतना नाश कर दिया कि अब हमारे ऑफिस में कोई भी 'पत्रकार' बनने नहीं आता, आता है तो केवल 'एंकर' या 'एंकरनी' बनने.., क्योंकि पत्रकारिता तो 'नए' बच्चे जानते ही नहीं कि क्या 'चीज' होती है। अभी पिछले दिनों पत्रकारिता का एक 'छात्र' तो हमारे यहां सिर्फ 'इंटरव्यूअर' बनने आया। उसे 'पत्रकार' नहीं, केवल 'साक्षात्कारकर्ता' बनकर लोगों पर 'हावी' होना था।

इसलिए, ‘तथाकथित’ बड़े नाम का ‘बुरा’ हश्र देखकर दुखी होने की जरूरत नहीं है। जो बोया जाता है, वही काटना भी पड़ता है। अपनी बर्बादी के लिए नेताओं या किसी और को दोष दोने के बजाय अपने गिरेबां में झांकने की जरूरत है...। बाकी तो फिर..., जो है, सो है...।



धर्मेंद्र कुमार
Posted by Gautam singh Posted on 03:43 | No comments

हैप्पी फ्रेंडशिप डे

वो दीपीका पर मरती था, मैं प्रियंका का दिवाना था। दीपीका उसकी हो चुकी थी। पर अभी भी प्रियंका मेरी तलाश थी। उसे फुर्सत से तैयार होना पसंद था। मैं किसी जोकर की तरह तुरंत तैयार हो जाता था। मैं अच्छे कपड़े भी लंगूर की तरह पहनता था। वो सज-धजकर मानो किसी परी का मूर्त रूप ले लेती थी। इसके बावजूद भी मैं कितना भी सज-धजकर लिपा-पुता छछूंदर ही नजर आता था। उसे दर्जनों तरह के हेयरस्टाइल्ट बनाने आते थे। मुझे अपनी ही आंखों में डॉप भी डालना नहीं आता था। वो 5.5 फीट, मैं बहुत मुश्किल से 5.7 फीट वह बड़े आसानी से मेरे कानों के उपरी हिस्से की सीमा रेखा को पार कर जाती थी। उसे हील बहुत पसंद थे। जो की मैं उसे कभी नहीं पहनने देता।
 
 
क्योंकि वो हील पहनकर मुझसे ज्यादा बड़ी हो जाती थी। वह आईएस बनना चाहती थी लेकिन इंजीनियर बनकर जॉब कर रही है। मुझे जर्नलिस्ट बनना था और मैंने सबकुछ छोड़ कर जर्नलिज़्म चुना। उसके पास सपने थे, मेरे पास उम्मीदें थीं। फिर भी मैंने अपनी इन उम्मिदों को पुरी प्रान चेतना के साथ उसके सपनों को जीतने में सफल रहा, यह मेरे जर्नलिज्म की पहली खास उपलब्धि थी। वह बहुत पैसा कमाना चाहती थी और मैं उसके सपनों को आज़ाद करना चाहता था, जिसमें मेरी भी सबसे बड़ी आजादी थी। हमलोगों को मिलते काफी वक्त हो चुका था। अब भागदौड़ भरी जिन्दगी में महीनों बाद बातें होती है। पर कुछ भी बदला सा नहीं लगता। मैं उसे कहता पढ़ाई पर ध्यान दो गेट हर हाल में क्वालिफाई करना है।
 
 
वह कहती आईएस बनना है। बेशक वह खूब पढ़ती है पर मैं भी आलसी नहीं हूं और न ही कामचोर हूं लेकिन मैं अपने सिलेबस को छोड़कर सबकुछ पढ़ना पसंद करता। वो सिलेबस को चालीसा की तरह पढ़ती। उसने गेट में भी अच्छा किया उसे आईआईटी मिल गया। अब भी हमारी बाते होती हैं कुछ यादे लिये हुए कुछ सपने आंझे हुए। लेकिन जो सोचा था ये अदावत जिस बुलंदी पर जायेगी उसका मुकम्मल होना अधुरा ही रह गया। पर अब पहले जैसा नहीं मैं जब भी फोन करता था। वह हाफती हुई लंबी सांस खिचते हुए लपककर अल्लो बोला करती थी। अब ये जरूर कुछ बदल गया है। फिर भी अपने प्रथम मिलन की तरह अपनी जल भरी आंखों में सजल उत्तेजना लिए हर बार मिलने के लिए आतुर रहती।
 
 
ये उसकी मेरे प्रति उदारता है पर मैं इसे बख्सीस ही समझता हूं। फिर भी कभी-कभी फोन कॉल अटेंड नहीं हो पाती पर मुझमें इतना धैर्य नहीं की मैं इसे बर्दास्त कर सकू। अब हम दोनों बहुत अलग हैं। फिर भी मुझे उसके सपनों के ख्वाब बुनना पसंद है। हमदोनों ने एक दूसरे के जज्बातों को जिंदा ही नहीं रखा बल्कि दिन प्रति दिन उसे बड़े सलीके से सजाया... मैंने एक लर्गफ्रेड़ नहीं बल्कि फ्रेंड बनाया और वह चाहती है कि जब भी उसका कोई ब्वायफ्रेंड बने तो उसके लिए उसके कार्ड पर सबकुझ मैं लिखूं। काफी वक्त हो गया है हम दोनों को मिले लेकिन सबकुछ पहले जैसा ही है। जिन्दगी में दोस्तों का झुंड तो नहीं मिला पर कुछ मुट्टी भर अच्छे दोस्त जरूर मिले है। मैं यही चाहता हूं हर कोई अपने दोस्त के लिए एक कहानी संजोये और वह भावना जब धक से लगे तो कह दे। हैप्पी फ्रेंडशिप डे ....
 
 

Sunday, 10 June 2018

अगर अतिसंयोक्ति से भरे किसी विषय को अतिवाद का जोड़ा-जमा पहना दिया जाय तो वह चाहे कोई संगठन, समूह या कोई राजनीतिक दल हो उससे असहमत होने का या उसे दर किनार करने का प्रयास सभी को करना चाहिए। हां भले ही कुछ लोग टीवी पर 'विजन' का बहुत बड़ा माया जाल रचकर अपने स्वार्थ सिद्धियों एवं अवसरवाद को भुनाने में तो सफल रहे हो। उस असहमती को कुचल कर, लेकिन वे अब अपने यर्थाथ से बच कर अपने चेहरे को छिपा कर प्रलोभन से भरा हुआ लालीपॉप देकर फिर से देश को गुमराह कर रहें हैं। ऐसे हालात में विपक्ष भी जरूरी है। नाम के तौर पर विपक्ष जो कुछ था भी उसे भी खरीद लिया गया है। पिछले चार सालों से सरकार के मुह में जुबान डालकर कुछ तथा-कथित दरवारी लेखक अपने शब्दों का दाव-पेंच गढ़कर उसे कुचलने का प्रयास कर रहे है। क्या यह जायज है? जहां वे राजनीतिक नेताओं को साधते हुए आम नागरिक के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से तुलना करते हुए इतने बड़े विपक्ष को गारत करना चाहते है। जिसकी उपयोगिता सदन में लोकतंत्र की खूबसूरती के तौर पर सुनिश्चित होती हो, जहां विपक्ष खत्म ही हो चुका हो क्या ऐसी विषम परिस्थिति में देश के आम नागरिक को विपक्ष की निष्पक्षता पर शक नहीं पैदा होगा। ऐसे में अब तथा-कथित दरवारी लेखक ही ये सिद्ध करें कि विपक्ष होना चाहिए या नहीं? अगर उनकी नजर में नहीं होना चाहिये तो कोई बात नहीं, अगर होना चाहिये तो सदन की वास्तविक खूबसूरती बनाये रखने के लिए विपक्ष को जिन्दा रखें।

Monday, 16 April 2018

Posted by Gautam singh Posted on 05:40 | No comments

कलंक पर बेशर्म बातें

यू तो भले ही सुशासन का दावा ठोक कर सत्ता के लिए लालायित सरकारे जब बातों की दाव पेच और पेचिदगी का समांजस्य बैठा कर कुर्सी पा जाती है। तो उन पर जब समाजिक गरीमा और मानवीय मरियादा की हत्या हो जाती हो, तो सवाल करना लाजमी और मजबूरी भी है। आपने तो अपने निधारित वसूलों से बचने के लिए अपनी असफलता या संलिप्तता को छुपाने के लिए दूसरी सरकारों में घटित हुए वाक्यों का उदाहरण थोपने लगते है। आपसे सवाल यह है कि आप सत्ता में उनके जैसा काम करने के लिए आये थे या उनसे बेहतर लंबे-चौड़े विकास का चकाचौंध छप्पन इंची सीना दिखाकर सुशान का वादा करके आये थे।

आप उस समय 56 इंची सीने पर 100 इंची चटपची जुबान बाखूबी चला रहे थे और आज जब आपके मौसेरे पर कथित आरोपों की झड़ी लग जाती है। तो आप उदाहरण के तौर पर अपना ठिकरा विपक्ष की सरकार पर क्यों थोप देते है। इससे तो आप स्वयं ही यह सिद्ध करते है कि उनसे ज्यादा बेहतर काम करने का वादा कर मात्र सत्ता हथियाने आये थे। आपने सिद्ध यह कर दिया कि आपसे बेहतर प्रतिपक्ष की सरकार थी। उसने भी गुड़िया का दंश झेला लोग सड़को पर आये। लेकिन किसी भी सरकार का उदाहरण दिये बैगेर, बिना किसी लाग-लपेट के दोषियों को सलाखों के पिछे तत्काल प्रभाव से ठूस दिया। यह उस समय की सरकार की बहादुरी थी। यहां तो साहब एक हप्ते हो गए हैं। कार्यवाही के नाम पर ठेंगा दिखाते हुए अपनी मूल जिम्मेदारी से बचते हुए विपक्ष के राज में हुई निर्मम घटना से तुलना करने से जरा सा भी नहीं चुके और अपने सत्ता के सहचर संघर्षी पर जरा सा भी जांच की आंच न आने दिया। भले ही विपक्षी सरकार के दर्जनों उदाहरण गिना दिया हो अब न्याय कौन करें... आप या विपक्ष?...

Tuesday, 3 April 2018

Posted by Gautam singh Posted on 23:06 | No comments

आप अभी भी शोषित है


देखिये बात बिल्कुल स्पष्ट है। आपको आरक्षण देना है दिजीए। क्योंकि वह गरीब, पिछड़ा सवर्णों के अत्याचार का मारा पैदा हुआ था, हुआ है और शायद जबतक आरक्षण व्यवस्था रहेगा। तब तक वह अत्याचार का मारा ही पैदा होता रहेगा। जरा सोचिये रामविलास पासवान, रामदास आठवले, जीतन राम मांझी, शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी, अर्जून मुण्डा, मधु कोडा। सरीखे नेता के संतान क्या सवर्णों के अत्याचार का मारा ही पैदा हुआ है? अगर हुआ ही है तो हां इन्हें आरक्षण मिलना चाहिए।

आरक्षण के लिए आप किसी के अधिकार की मलाई चाटने के लिए मुह फैलाए की आप उससे पहले अपने बाजुओं में बल करके अत्याचार से लड़ने के खिलाफ खड़े हो जाए। आप तो इतने चालाक और सातीर बाजीगर है कि थप्पड़ भी आप ही मार रहे है और मुझे चिल्लाने के बजाय खुद ही चिल्ला रहे है। मार भी रहे है और रोने भी नहीं दे रहे है। फिर वही बात अपने राग का विधवा रागन अलाप रहे है। करोड़ो की सम्मपति आप लोगों के पास है लेकिन आप अभी भी गरीब है। देश आप लोग चला रहे है। लेकिन आप अभी शोषित है। आपका भले ही इलाके में दादागिरी चलता हो लेकिन आप अभी भी सवर्णों के अत्याचार के मारे हुए है। आपके बच्चे भले ही देश और विदेश के बड़े-बड़े शहरों में पढ़ रहे हो लेकिन वह फिर भी गरीब और पिछड़ा हुआ ही है। आपके दादा जुल्म के मारे थे, बाप जुल्म के मारे है और पोता भले ही मर्सडीज, ओडी और जैगवार में चल रहे हो लेकिन वह भी जुल्म के मारे हुए ही है।

Thursday, 8 March 2018

साहिर लुधियानवी एक ऐसा नाम जिसके बिना शायरी ग़ज़ल और गाने फीके से लगते हैं। मोहब्बत की दास्तान को सबसे मुक्कमल अंदाज में पेश करने वाले साहिर मोहब्बत के नगमे लिखते तो रहे मगर मुकम्मल मोहब्बत कभी नसीब न हुई। साहिर ने जब कॉलेज के दिनों में किसी अधूरे प्रेम के लिए लिखा था 'जिंदगी तेरी नर्म जुल्फों की छांव में गुजरने पाती, तो शादाब हो भी सकती थी' एंग्रीयंग मैन के दौर वाले अमिताभ ने अपने तल्ख अंदाज से इस अहसास को हिन्दुस्ता की कितनी पीढ़ियों ने अपनी-अपनी प्रेमिकाओं के सामने दोहराने की कोशिश की होगी। 

ज़ज्बे, एहसास, शिद्दत और सच्चाई के शायर साहिर लुधियानवी उन चुनिंदा शायरों में से रहे हैं जिन्होंने फिल्मी गीतों को तुकबंदी से निकाल कर दिलकश शेरों शायरी की बुलंदियों तक पहुंचाया। मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी ने कभी साहिर लुधियानवी की शायरी के रोमांटिक मिज़ाज पर तंज़ कसते हुए कहा था कि ''उनके दिल में तो परचम है पर क़लम काग़ज़ पर मोहब्बत के नग़मे उकेरती है।'' लेकिन साहिर की निजी जिंदगी में प्यार कभी परवान न चढ सका। ग्लैमर तथा शौहरत की दुनिया में रहने के बावजूद वे कभी किसी लड़की को जीवन संगनी नही बना पाये। महान पंजाबी कवित्री अमृता प्रीतम के प्यार में साहिर गिरफ्त हुए जरूर थे। ये एकतरफा प्यार भी नहीं था, लेकिन फिर भी साहिर को मुकम्मल मोहब्बत नसीब न हो पाई। शब्दों के जादूगर साहिर जब औरतों के बदहाली पर रचते हैं 'औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया' तो रूह कांप उठती है। उनके लेखनी के प्रति हम सहज ही नतमस्‍तक हो जाते हैं।

Wednesday, 14 February 2018

Posted by Gautam singh Posted on 07:14 | No comments

कनखी के दिवाने!

इन दिनों प्रिया प्रकाश वारियर की एक कनखी ने सोशल मीडिया पर धूम मचा रखा है। फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम पर इस एक कनखी से पूरा हिन्दुस्तान हिल गया है। न्यूज चैलन से लेकर न्यूज पेपर तक सिर्फ प्रिया प्रकाश के ही चर्चे में लगे हुए है। लोग उसके कनखी के कायल हो रहे है तो वहीं इंटरनेट उसके कनखी से पिघलने लगा है, बॉलीवुड हिलने लगा है। दीपिका, प्रियंका, कंगना से लेकर कैटरीना तक की अदाएं पानी भरने चली गई है। सारा देस बस प्रिया प्रकाश वारियर की कनखी के 'प्रकाश' में नहा रहा है। इंटरनेट पर बस प्रकाश की ही 'प्रकाश' है। सोशल साइट पर प्रिया प्रकाश वारियर ऐसे 'प्रकाश' फैलायी हुई है कि देश के सारे युवा उनके ही 'प्रकाश' के तले प्यार के अंधेरे से लड़ना चाह रहे है।

26 सकेंड की यह नैन-मटक्का वाली वीडियो चंद घंटों में 'प्रकाश' फैला गई और प्रिया प्रकाश वारियर रोतों-रात प्रत्येक भारतीय यूवा के दिलों में दीये की प्रकाश की तरह उतर गई। वैलेंटाइन सप्ताह के बीच जब प्रिया प्रकाश की यह कनखी सामने आया तो हरेक युवा के दिल में इस कनखी वाली लड़की ने वैलेंटाइन सप्ताह में एक नई उम्मीद जगाई। देश के सभी युवाओं के लबों पर बस प्रिया प्रकाश के ही 'प्रकाश' फैल गए। जब यह वीडियो मेरे व्हाट्सएप में पहली दफ़ा प्रकट हुआ तो मुझे लगा जैसे स्कूली टीनएजर्स के नैन-मटक्का वाली कोई एमएमएस हो। नजरंदाज कर गया। फिर कई जगह से यही क्लिप आयी। अगले दिन पता चला कि वो वीडियो तो नेशनल क्रश बन गया है। आंखों के रास्ते दिलों को घायल बनाने वाली प्रिया प्रकाश अब वाया सोशल मीडिया पाकिस्तान पहुंच चुकी है। अब प्रिया की नैनों के इशारों के दीवाने पाकिस्तान भी हो रहा है। इंटरनेट की इस दुनिया में सबकुछ बहुत फ़ास्ट होता है। 26 सेकंड का वीडियो ...चंद घंटों में धमाल मचा गई। भारत से लेकर पाकिस्तान तक युवाओं के दिलों को घायल कर गई। पर मुसीबत भी यहीं है। ये इंटरनेट जितना जल्दी सिर पर चढ़ाता है उतनी ही जल्दी पटक भी देता है। जरा सोचिये अब जब सख्त लौंडों के सर से वैलेंटाइन का भूत उतरेगा, उसके बाद इस लड़की के कनखी का क्या होगा? 

Wednesday, 7 February 2018

Posted by Gautam singh Posted on 07:31 | No comments

'वेलेंटाइन डे' और तुम

'वेलेंटाइन डे' का नाम सुनकर ही हर एक युवाओं के मन में एक हलचल सी होने लगती है, वेलेंटाइन सप्ताह आज से शुरू हो चुका है। वैसे हम किसी 'डे' को एक दिन में समेटकर रख नहीं सकते और वैसे भी 'वेलेंटाइन डे' तो प्यार का दिन, प्यार के इजहार का दिन। अपने जज्बातों को शब्दों में बयां करने का दिन है। शायद इस दिन का हर धड़कते हुए दिल को बेसब्री से इंतजार रहता हो, लेकिन मेरा मानना है कि हम प्यार को एक दिन या एक सप्ताह में समेट कर नहीं रख सकते। यह तो एक खुशनुमा अहसास है जो हमारे रगों में लहु बनकर गर्दिश करता है। अगर फिर भी ऐसा दिन है तो उसे मनाने में कोई हर्ज भी नहीं होना चाहिए। आज 'रोज डे' है और हम कुछ दोस्त भी साथ है तो हमलोगों ने सोचा 'इस वेलेंटाइन डे' पर क्यों ना एक पत्र लिखा जाए वैसे अब पत्र तो लिखा जाता नहीं है फिर भी हमलोग पत्र लिख रहे है अपने-अपने प्रिय और प्रियतमा के लिए...

प्रिय 

देखों ना आज से वेलेंटाइन सप्ताह शुरू हो चुका है। पूरा बाजार गुलाब के फुलों से भरा हुआ है। ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे पूरा शहर गुलाबी रंगों में रंगा हुआ हो। हवाओं में गुलाबों की खुशबु महक रही है। इस महक के बीच तुम्हारी यादों की कुंज में, मैं तुम्हे यह खत लिख रहा हूं। प्रिय तुम तो जानती हो मैं कभी इस 'वेलेंटाइन डे' का पक्षधर नहीं रहा हूं लेकिन फिर भी मैं मनाने से कतराता भी नहूीं हूं। जब मैं घर से पहली दफा शहर आ रहा था। तुमने जो मुझे चुपके से खत दिया था। उस खत में कुछ बाते पहली दफा बताई थी, जिसे तुम अपनी जुबां से शायद नहीं कह पाई थी। जैसे की मैं सिर्फ पढ़ाई पर ही ध्यान केन्द्रित ना करूं, दोस्तों के साथ हंसी मजाक कर लिया करूं मौका मिलते ही आते-जाते लड़कियों को ताड़ लिया करूं वगैरह-वगैरह। तुम्हें पता है प्रिय तुम्हारे इस खत को मैं रोजपढ़ता हूं अकेले में और फिर इसे प्लास्टिक के थैली में लपेटकर अटैची में बंध कर सबसे छुपा कर रख देता हूं। मैं नहीं चाहता कि यह खत मेरे अलावा कोई और भी पढ़े। 


मैं इस खत को जितनी बार पढ़ता हूं तब ऐसा लगता है की हम दूर नहीं है बल्कि साथ ही है। तुमने उस दिन उस खत में लिखा था कि मैं आते जाते लड़कियों को ताड़ लिया करूं। तुमने ऐसा क्यों लिखा था। इस बारे में मैं न तब जान पाया था और न ही अब जान पाया हूं जब मैं यह खत तुम्हे लिख रहा हूं। सच बताऊं प्रिय तो मैं कभी ऐसा कर ही नहीं सकता था। इस बात को तुम मुझसे कहीं ज्यादा जानती थी। शायद इसलिए तुमने यह लिखा था। क्योंकि तुम जानती थी की मैं कभी किसी की ओर देख ही नहीं सकता और यह निष्ठा थी तुम्हारी मेरे प्रेम के प्रति इस लिए शायद तुमने यह लिखा था। मैं सोचता जिसके पास तुम्हारे जैसी लड़की हो उसे भला किसी और लड़की की ओर देखने की क्या जरूरत।


सही बताऊं प्रिय तो मैं हर दफ़ा की तरह इस दफ़ा भी वेलेंटाइन सप्ताह भुल गया था और यहां तुम भी नहीं थी जो मुझे याद दिलाए, जब सुबह तुम्हारा फोन आया तो मुझे पता चला की आज से यह सप्ताह शुरू हो चुका है। प्रेमी एक दूसरे को गुलाब दे कर इस सप्ताह का आगाज कर रहे है और मैं अपने कमरे के चार दिवारियों के बीच सोया पड़ा हूं। तुम्हे इस सप्ताह का इंतजार कितना बेसब्री रहा करता था। जैसे ही यह सप्ताह आता तुम्हारे चेहरे खिल उठते वैसे तुमने कभी किसी 'डे' पर मुझसे किसी चीज की फरमाईस तो नहीं की पर तुम इस सप्ताह के अनुसार प्रत्येक दिन विश किया करती और उपहार भी लाया करती। मुझे तो पता भी नहीं होता कौन सा 'डे' है। पर तुम मुझे एक दिन पहले आने वाले दिन के बारे में बताती कल कौन सा 'डे' है। मैं रोज भुल जाया करता और जब तुम सुबह मुझसे पुछती तो मैं कुछ न कह पाता तुम थोड़ा डाटती और फिर बड़े ही शहजता से बताती आज कौन सा 'डे' है। 'रोज डे' से शुरू होते हुए प्यार का यह दिन वाया प्रपोज डे, चॉकलेट डे, टेडी डे, प्रॉमिस डे, हग डे, किस डे के बाद अपने मूल दिवस वेलेंटाइन डे पर पहुंच जाता। तुम इन सारे दिवस को बड़े ही उत्साह के साथ मनाती।


अब जब यह खत तुम्हे मिले तो शायद वेलेंटाइन सप्ताह की धूम खत्म हो चुकी होगी। शायद महीना भी बदल चुका होगा। बाजार में होली की रोनक दिख रही होगी। वर्ष की अंतिम ऋतु शिसिर की विदाई हो रही होगी। तो वहीं साल के पहले ऋतु वसंत का आगमन होने को होगा। पलास के फूल खिलने को होंगे, आम के पेड़ में मंजरी लगने को होगी। तब तुमको शायद यह खत मिले, मैं जानता हूं यह खत जब तुमको मिलेगा तुम थोड़ा नाराज होगी और तुम्हारी नाराजगी भी जायज है। हर लड़की चाहती है की वह जिसे पसंद करे वह कम से कम वेलेंटाइन सप्ताह को तो याद रखे पर मैं याद नहीं रख पाया। इस बार जब मैं शहर से घर आऊं तो मुझे अच्छे से समझाना अगर मैं फिर भी ना समझू... तो बात मत करना क्योंकि हर गलती कीमत मांगती है और इस गलती की कीमत यही हो शायद

तुम्हारे खत के इंतजार में